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पितृसत्ता के आदर्शात्मक एवं व्यावहारिक स्वरूप | Ideal and practical form of Patriarchy in Hindi

पितृसत्ता के आदर्शात्मक एवं व्यावहारिक स्वरूप | Ideal and practical form of Patriarchy in Hindi
पितृसत्ता के आदर्शात्मक एवं व्यावहारिक स्वरूप | Ideal and practical form of Patriarchy in Hindi

पितृसत्ता के आदर्शात्मक एवं व्यावहारिक स्वरूप | Ideal and practical form of Patriarchy

(I) पितृसत्तात्मक और आदर्शात्मक रूप- समाज में नारी की परिस्थिति निर्माण पर पितृसत्तात्मकता का गहरा प्रभाव रहा है। यही पितृसत्तात्मकता सभी वर्तमान समाजों एवं कालों में सार्वभौतिक पारिवारिक व्यवस्था के रूप में सदैव विद्यमान रही है और पुरुष की शक्ति एवं सत्ता को, इस व्यवस्था द्वारा निरन्तर प्रबल किया गया है। नारी की परिस्थिति को निर्बल करके उसकी अबला की छवि एवं स्थिति का निर्माण किया गया है। क्योंकि नारी के शरीर के कुछ ऐसे आयाम होते हैं, जिनका सांस्कृतिक सम्बन्ध निर्मित करके दोहरे नैतिक मापदण्डों की स्थापना की गयी है। विद्वानों द्वारा नारी का क्षेत्र घर की चारदीवारी में सीमित करने के लिये ही पुरुष और स्त्री के कार्य-विभाजनों को आन्तरिक एवं बाह्य स्थलों के रूप में विभक्त किया गया है, जिसके अनुसार घर के सभी कार्य और बच्चों के लालन-पालन का दायित्व नारी की भूमिका के साथ संस्थापक रूप से जोड़ दिया गया है। इस कार्य विभक्तिकरण का स्पष्ट प्रभाव उभर कर इस प्रकार सामने आया है- प्रथम, नारी सदैव सत्ता व शक्ति की प्राप्ति से वंचित रही, क्योंकि सत्ता एवं शक्ति के अवसर, परिस्थितियाँ तथा सभी पद घर के बाहर विद्यमान होते हैं। अतः, इस प्रक्रिया से पुरुषों ने इन क्षेत्रों में संस्थापक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं के आधार पर एकाधिकार कर लिया। दूसरी, समाज के सीमित क्षेत्र एवं पारिवारिक परिधि द्वारा नारी के सृजनात्मक पक्ष को भी कमजोर किया गया है अत:, समाज में नारी की सृजनात्मक क्षमताओं को अभिव्यक्ति एवं प्राप्ति के लिये सार्वजनिक एवं खुले स्थलों का अनुभव एवं अन्तःक्रिया होना आवश्यक है पर्दा प्रथा ने नारी के क्षेत्र को सीमित ही नहीं किया, बल्कि उसको संकीर्ण भी बनाया है। शारीरिक बन्धन द्वारा उसकी मौखिक अभिव्यक्ति पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया है, ताकि उसकी मानसिक स्थिति एवं क्षमता का संस्थागत ह्रास हो सके। इस प्रथा के द्वारा नारी के संवादों एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को भी हीन बनाकर उसे मात्र रति पदार्थ के रूप में प्रस्तुत किया गया है । नारी का एवं उसकी परिस्थिति से जुड़ा हुआ विकृत एवं अलगावमय प्रस्तुतिकरण यह भी रहा है, जिसने नारी की स्थिति को प्रभावित किया है।

समाज में मान्यताओं का महत्त्व- समाज में मान्यताओं एवं विश्वासों के विशेष स्वरूपों ने नारी की परिस्थिति एवं छवि दोनों को निम्न एवं हीन बनाने में विशिष्ट भूमिका अपनायी है। समाज की सभी मान्यताओं एवं रीति-रिवाजों में केवल महिलाओं से ही अपेक्षा की जाती है जबकि पुरुष से किसी भी प्रकार की कोई अपेक्षा नहीं रखी जाती है, बल्कि उसे अनेक प्रकार की सुख-सुविधायें तथा सभी प्रकार की छूट दी जाती है। इस प्रकार पितृसत्तात्मक समाज में रहने की अभ्यस्त महिलाओं की वर्तमान परिस्थिति बहुत ही निम्न स्तर तक पहुँच गयी है और स्वयं महिलायें भी इसकी इतनी आदी हो चुकी हैं कि उसने कभी इस व्यवस्था का प्रतिरोध करने का साहस भी नहीं किया। ऐसा विचारकों का मानना है कि किसी नारी का प्रभावी स्वभाव एवं व्यवहार व्यक्तिगण गुण हो सकता है, लेकिन नारी की परिस्थिति में सबलीकरण की प्रक्रिया को समूहगत और संस्कारगत परिवर्तनों के द्वारा ही सम्भव किया जा सकता है।

आदर्शात्मक समाज की अवधारणा – जब कभी विचारक किसी आदर्शात्मक समाज की कल्पना करते हैं तो उसके अन्तर्गत, परिवार के सभी सदस्यों को समान अधिकार प्राप्त हो और सभी परिवार के सदस्यों को निर्णय लेने का अधिकार भी हो। विद्वानों के अनुसार इस प्रकार की व्यवस्था हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों एवं दायित्वों का निष्पक्ष पालन करे लेकिन ऐसा व्यवहार में नहीं होता है क्योंकि हमारे देश में हर क्षेत्र में पुरुष की प्रधानता ही है। आनुभाविक रूप से अब यही तथ्य सामने आ रहे हैं जबकि वर्तमान परिस्थितियों में परिवर्तन आया है; लेकिन यही काफी नहीं है क्योंकि आज भी यह आवश्यकता है कि महिलाओं का सबलीकरण किस प्रकार किया जाये तथा सरकार द्वारा चलायी जा रही सभी योजनाओं का पूरा लाभ, किसी प्रकार से महिलाओं तक पहुँच सके, तब ही हमारा देश पूरी तरह से विकसित देश बन सकेगा। इस देश की जनसंख्या में महिलाओं की भागीदारी लगभग आधी मानी गयी है यदि आधी जनसंख्या पीड़ित होती है तो देश का विकास सम्भव नहीं हो पायेगा । इसीलिये देश के चहुँमुखी विकास के लिये महिलाओं की परिस्थिति में काफी सुधार करना अनिवार्य है।

(I) पितृसत्तात्मकता- आनुभविक और व्यावहारिक पक्ष — प्रत्येक निष्पक्ष व्यक्ति को विदित हो जायेगा कि प्रत्येक धर्म में महिला का स्थान पुरुष की अपेक्षा काफी नीचा है समस्त त्योहार; जैसे—करवा चौथ, श्रावणी तीज, गणगौर, तिलवा चौथ आदि का व्रत महिलायें अपने पति एवं बेटों की दीर्घ आयु एवं स्वस्थ जीवन के लिये रखती हैं।

(1) समाज में पति को परमेश्वर माना जाता है, चाहे वह शराबी, जुआरी अथवा पर-स्त्रीगामी ही क्यों न हो। किन्तु उसकी पत्नी को, उसके लिये निर्धारित मापदण्डों पर खरे उतरना उसकी अच्छी पत्नी होने की निशानी मानी गयी है।

(2) विवाह के पश्चात् महिलाओं को सुहाग चिह्न धारण करना अनिवार्य है। पुरुषों के लिये ऐसी कोई अनिवार्यता एवं बाध्यता नहीं है। ये चिह्न इस बात के प्रतीक हैं कि यह महिला किसी पुरुष की अमानत है ।

(3) समाज में महिला को दाह-संस्कार का हक न होने के कारण ही बेटों की चाहत व बेटियों की गंभीर उपेक्षा हुई है।

(4) प्राचीन समाज में सती प्रथा का चलन था, अर्थात् पति के बिना महिला को उसके जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रहता था, लेकिन पुरुषों के लिये इस प्रकार के नियम कभी नहीं रहे ।

(5) जब एक महिला विधवा हो जाती है तो उसके सुहाग चिह्न बेरहमी से उतार दिये जाते हैं और उससे रंगीन वस्त्र पहनने तक का हक भी छीन लिया जाता है।

(6) महिला के लिये, अपने पति के अलावा किसी अन्य पुरुष से यौन सम्बन्ध स्थापित करने की छूट नहीं होती है, जबकि प्रायः पुरुष ऐसा करते देखे गये हैं और उन्हें समाज के लोग किसी प्रकार भी हीन भावना से नहीं देखते ।

(7) समाज में बलात्कार जैसी घटनायें किसी महिला के साथ घट जाये तो उसका पति उसे प्रायः छोड़ देता है, किन्तु पति के पर-स्त्रीगामी हो जाने पर भी महिलायें ऐसा नहीं कर सकती ।”

(8) समाज में एक महिला अच्छी गृहिणी, माँ और पतिव्रता महिला सिद्ध होने की कोशिश में ही अपना पूरा जीवन गुजार देती है।

(9) धर्म, रीति-रिवाज व परम्पराओं के कारण ही महिलाओं के मन में सुहाग चिह्न धारण करने की बात इतनी जमी हुई है कि नारी को उसे अपनाये बिना अपना जीवन असुरक्षित-सा लगने लगता है ।

(II) अन्य धर्मों में नारी की स्थिति- समाज में वैवाहिक एवं पारिवारिक सम्बन्धों में, सामाजिक लिंग-भेद की इस प्रकार की अन्य परम्परायें तथा रीति-रिवाज इस्लाम व ईसाई धर्म में भी मानी गयी है । इस्लाम धर्म में ” मैं तुम्हें तलाक देता हूँ” कहकर ही अपनी पत्नी को तलाक दे देता है। यह प्रथा काफी निर्दयी मानी गयी हैं। हमारे सभ्य समाज में भी इस्लाम धर्म में आज महिला का दर्जा मात्र एक गुलाम या दासी के समान ही है। असमानता के कारण ही इस गैर-बराबरी एवं भेद-भाव को जारी रखने के लिये महिलाओं पर महिला होने की दृष्टि से, विभिन्न प्रकार की पारिवारिक एवं सामाजिक हिंसा भी की जाती है तथा समाज में बाहरी हिंसा की अपेक्षा महिलाओं पर परिवार में भी हिंसा की जाती है। महिलाओं पर केवल उनकी ससुराल में भी हिंसा नहीं होती है, वस्तुतः ये महिलायें अपने मायके में भी अधिक पीड़ित रहती हैं। वास्तव में यदि देखा जाये तो उसके जीवन का विकास और गति उसके मायके में ही रोक दी जाती है। समाज की इस पितृसत्तावादी सामाजिक व्यवस्था द्वारा एक-दूसरे के पूरक दो इंसानों को अर्थात् पुरुष और महिला में बाँटकर पुरुष को परमेश्वर और महिला को उसकी दासी बना दिया गया है जो एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था है ।

(III) नारीवाद की व्यावहारिक तथा सही स्थिति – विश्व में नवोदित नारीवाद महिला और पुरुष के बीच, पितृसत्तात्मक व्यवस्था के द्वारा बनाई गयी असमानता और की खाई को समाप्त करने एवं महिला को पुरुष की ही भाँति समान रूप से इंसान समझने के लिये संघर्ष करता है। इसके लिये सामाजिक ताने-बाने में लिंग-भेद व्याप्त, को केवल पहचानना ही काफी नहीं है, अपितु उसे चुनौती देना एवं उसके विरुद्ध खड़े होकर संघर्ष करना भी नारीवाद कहलाता है । नारीवाद की यह चुनौती किसी भी रूप में हो सकती है— अकेले, सामूहिक रूप से, बड़े पैमाने पर धरने-आन्दोलन करके अथवा व्यक्तिगत जीवन में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मूल्यों को नकारना और महिला का अपने शरीर एवं जीवन पर स्वयं के नियंत्रण एवं अधिकार के लिये संघर्ष करना ही नारीवाद का उद्देश्य है।

(IV) नारीवादी आन्दोलन के प्रमुख कार्य- नारीवाद द्वारा संचालित आन्दोलन में निम्नलिखित प्रमुख कार्य किए जाते हैं-

(1) नारीवाद की मानवीयकरण और पीड़ित मानवों को मानवाधिकार दिलाने की एक प्रक्रिया माना गया है, जो समाज में मानवीय मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिये प्रतिबद्ध है। इसीलिये उसकी आवश्यकता पुरुषों के लिये भी उतनी ही है, जितनी महिलाओं के लिये होती है।

(2) नारीवाद का उद्देश्य घर और बाहर, दोनों क्षेत्रों में महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता व महिलाओं के सम्मान की बात करना है।

(3) नारीवाद वर्तमान में समाज के पितृसत्तात्मक सामाजिक ढाँचे की व्यवस्था को बदलकर महिला-पुरुष पर आधारित ढाँचे की स्थापना के लिये प्रयत्नशील है।

(4) नारीवाद, महिलाओं को शताब्दियों पुराने चलते आ रहे दमन, शोषण तथा उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देती है ।

(V) नारीवाद में पुरुषों की स्थिति- विद्वानों का ऐसा मानना है कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में सभी पुरुष प्रसन्न हैं तथा उन्हें इस व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं है। ऐसा सोचना उचित नहीं है, क्योंकि इस पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था ने महिलाओं को जिस प्रकार से दब्बू और कमजोर बना दिया है, उसी प्रकार से इस व्यवस्था ने पुरुषों को भी शासन करने वाले दुःसाहसी, अन्यायी तथा अत्याचारी व्यक्तियों के रूप में उभारा है। इसलिये आज प्रत्येक पिता और भाई अपनी बहनों और बेटियों को लेकर चिंतित हैं। इस व्यवस्था में पुरुषों पर मर्दानगी दिखाने का लबादा जबरदस्ती थोपा गया लगता है। महिलायें अबला और कमजोर नहीं होती हैं, फिर भी उन्हें ऐसा बनाया व बताया जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक जाता है। पुरुष भी ताकतवर एवं अन्यायी नहीं होता है फिर भी उसे ऐसा ही दिखाया जब कभी पुरुषों का मन भी ऐसा करता होगा कि वे बाहर जाकर पैसा कमाने के स्थान पर घर की जिम्मेदारी संभालें या बच्चों के साथ समय बितायें या उनके पालन-पोषण का उत्तरदायित्व संभालें, तब यह पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था उन्हें ऐसा नहीं करने देती और यदि वे ऐसा करते भी हैं तो उनको ‘जोरू का गुलाम’, ‘नामर्द’ जैसी भाँति-भाँति की गालियाँ देकर बदनाम किया जाता है।

(VI) नारीबाद की पुरुषों को आवश्यकता— इसलिये समाज में कोई भी संवेदनशील और मानवाधिकार प्रेमी पुरुष पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा थोपी गयी इस भूमिका को स्वीकार करना कभी पसंद नहीं करता जबकि नारीवाद के अन्तर्गत पितृसत्तात्मक समाज की व्यवस्था को बदलकर महिला-पुरुष की समानता पर आधारित समाज में पुरुष भी अपनी इच्छा अनुसार अपने लिये नयी भूमिका ले सकेंगे एवं पितृसत्तात्मक व्यवस्था के द्वारा की गयी के ‘मर्दानगी वाली खेल’ से बाहर निकलकर स्वतन्त्रता अनुभव कर नयी भूमिका ग्रहण कर सकेंगे।

(VII) पुरुष-प्रधानता की हानिकारक स्थिति — समाज में पुरुष नियंत्रक एवं शासनकर्त्ता की भूमिका में रहने के कारण सामान्यतया अत्याचारी बन जाता है यदि मर्दानगी दिखानी है तो किसी पर भी अपनी विजय दिखानी ही होगी और कभी यदि फैसले गलत हो जायेंगे तो किसी पर भी गुस्सा उतारना ही होगा। ऐसी स्थिति आने पर यदि सामने का पुरुष ज्यादा बलशाली हुआ और उसे जीतना कठिन होता है तो उसकी बहिन-बेटी के साथ बलात्कार भी किया जा सकता है। इस प्रकार की खबरों से रोजाना अखबार व पत्र-पत्रिकायें आजकल भरी रहती हैं। वस्तुतः संवेदनशील पुरुषों को यह बात सुनना कितना बुरा लगता होगा कि ” आज समाज में लड़कियों एवं महिलाओं को जंगली जानवरों से भी उतना डर नहीं है जितना कि पुरुष वर्ग से होता है।

इस व्यवस्था में व्यक्ति धीरे-धीरे अपनी इंसानियत भी खोता चला जाता है। समाज में इंसान इंसान को गुलाम बनाए, इससे बड़ी पीड़ा और सामाजिक त्रासदी क्या हो सकती । रोती, गिड़गिड़ाती और दया की भीख माँगती महिला के साथ बलात्कार करना, छोटी-छोटी लड़कियों के साथ बलात्कार करना, अपनी मंशा पूरी नहीं होने पर तेजाब छिड़कना, हत्या कर उसे अध-कूप में डाल देना क्या यही इंसानियत के लक्षण हैं ? इसलिये ये कहा जा सकता है कि नारीवाद पुरुष को इंसान बनाने में सहायता करता है । वर्तमान समाज में इसकी आवश्यकता भी है, क्योंकि आज कई संवेदनशील पुरुष नारीवाद के इस संघर्ष में महिलाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग कर रहे हैं, ताकि नारीवाद अपने उद्देश्य में पूर्ण रूप से सफल हो सके ।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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