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पितृसत्तात्मक परिवार में प्रजनन सम्बन्धी लिंग-भेद

पितृसत्तात्मक परिवार में प्रजनन सम्बन्धी लिंग-भेद
पितृसत्तात्मक परिवार में प्रजनन सम्बन्धी लिंग-भेद

एक पितृसत्तात्मक परिवार में प्रजनन सम्बन्धी लिंग-भेद की चर्चा कीजिये । (Discuss the Gender differences in birth in a Patriarchal family.)

पितृसत्तात्मक परिवार में प्रजनन सम्बन्धी लिंग-भेद – मानव का शरीर कई तंत्रों से मिलकर बना हुआ है जो एक-दूसरे से मिल-जुलकर आपसी तालमेल से काम करते हैं। यद्यपि कोई भी तंत्र पूरी तरह से स्वतंत्र या स्वायत्त नहीं होता है फिर भी समझने की दृष्टि से इन तंत्रों की अलग-अलग जानकारी की जा सकती है । जब यह कहा जाता है कि शरीर का अमुक हिस्सा एक तंत्र है तो उसका आशय यह होता है कि यह अंगों का एक समूह है जो मिल-जुलकर किसी एक खास काम को अंजाम देता है, उदाहरण स्वरूप, पाचन तंत्र में आहार नाल के अतिरिक्त अन्य कई ग्रंथियाँ भी होती हैं। ये सब मिलकर भोजन को पचाने का कार्य करती हैं। शरीर पाचन तंत्र, रक्त परिसंचरण तंत्र, तंत्रिका तंत्र आदि कई तंत्रों के संयुक्त काम का परिणाम है।

इस प्रकार मानव शरीर में महिला और पुरुष में लगभग 90 प्रतिशत से अधिक अंग एक-समान होते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि महिला और पुरुष के शरीर में अधिकांश क्रियायें भी समान ही होती हैं। दोनों ही जब खाना खाते हैं तो उनका पाचन तंत्र बिल्कुल एक समान पाचक रस (एन्जाइम) तैयार करते हैं। इसी तरह पचे हुए भोजन का अवशोषण रक्त में होता है। इसके साथ ही उन्हें शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुँचाया जाता है । वहाँ पर उनका ऑक्सीकरण होता है, जिससे ऊर्जा प्राप्त होती है आदि । वस्तुतः देखा जाये तो मानव शरीर में एक ही तंत्र ऐसा है, प्रजनन तंत्र के मामले में महिला और पुरुष के शरीर में स्पष्ट भेद होता है। महिला और पुरुष में प्रमुख अंतर, शारीरिक दृष्टि से यही है कि- “वे प्रजनन की प्रक्रिया में अलग-अलग भूमिकायें निभाते हैं। इसलिये महिलायें गर्भ धारण कर सकती हैं, जबकि पुरुष ऐसा नहीं कर पाते हैं।”

‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था में प्रजनन की स्थिति –

आधुनिक समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था में परिवार का मुख्यिा कोई पुरुष ही होता है। इसलिये उसका परिवार के सभी सदस्यों, सम्पत्ति व आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण होता है और वंश भी उसी के नाम से चलता है। इस व्यवस्था में पुरुष का स्थान महिला से सदैव ही ऊँचा रहता है और महिला पुरुष के उपभोग की वस्तु मानी जाती है तथा वह उसका वंश बढ़ाने का माध्यम मात्र ही है। प्राकृतिक रूप से जो जिस बच्चे को जन्म देती है, वह उसकी माँ है, यह बात स्पष्ट रूप से जाहिर है; लेकिन उस बच्चे का पिता कौन है, यह पता नहीं चल पाता । प्रश्न यह है कि पुरुष कैसे यह सुनिश्चित करे कि यह बच्चा उसका ही है ? इसी कारण से इस पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में विवाह की संस्था को जन्म दिया गया। इसके द्वारा ही मुख्य रूप से महिलाओं की यौनिकता व प्रजनन पर नियंत्रण रखा जाता है। इसके पति को यह भी मालूम रहता है कि उसकी पत्नी के गर्भ में उसी की संतान है । इस प्रकार पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने ही प्रजनन क्रिया को एक सामाजिक रूप प्रदान किया है और उसके साथ कई प्रकार की रीति-रिवाजों, रूढ़ियों और परम्पराओं को भी शामिल किया है।

प्रजनन सम्बन्धी व्यवस्थायें – प्रायः ये प्रश्न उत्पन्न होते हैं कि कौन-सी महिला प्रजनन कार्य कर सकती है ? कब कर सकती है ? किसके साथ कर सकती है और किस स्थिति में प्रजनन कार्य को सम्मानजनक कार्य माना जाता है ? इन सब प्रश्नों के लिये इस सामाजिक व्यवस्था में तमाम प्रकार की पाबंदियाँ और नियम तथा कायदे आदि बने हुए हैं तथा पुरुषों पर भी पाबंदी है। समाज में विवाह संस्था के बाहर जन्म लेने वाले बच्चों को सामाजिक मान्यता नहीं दी जाती। विवाह संस्था के बाहर पुरुष यौनिक सम्बन्ध तो बना सकते हैं, परन्तु उनका वंश अपनी पत्नी से जन्म ली हुई संतान से ही चलता है। इस प्रकार पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में महिला की कोख सामाजिक नियंत्रण की एक वस्तु बन गयी है चूँकि प्रजनन प्रारम्भ से ही एक रहस्य रहा है, इसलिये इसे लेकर बहुत-सी भ्रांतियाँ और अंध-विश्वास फैले हुए हैं। चूँकि यह एक निषिद्ध विषय है, इसलिये इस विषय पर खुले रूप में बातचीत नहीं होती और अधिकांश व्यक्ति कही-सुनी बातों पर ही विश्वास करते हैं। इसका एक परिणाम यह होता है कि हम अपने शरीर की सामान्य क्रियाओं को भी विकृतियाँ मान बैठते हैं और नीम-हकीमों के चक्कर में पड़ जाते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि प्रजनन तंत्र का सम्बन्ध यौन अंगों और काम भावनाओं से भी माना जाता है।

प्रजनन का प्राकृतिक रूप- विद्वानों के अनुसार, प्रजनन क्रिया वस्तुतः महिला और पुरुष के मिलन अथवा सहवास से ही संभव होती है। वैसे हाल ही में विज्ञान जगत में प्रजनन के सम्बन्ध में क्लोनिंग के जो प्रयास हुए हैं, उन्होंने इस संदर्भ में कई प्रकार के प्रश्न उत्पन्न कर दिये हैं। अभी तक यह विश्वास किया जाता है कि मानव व अन्य विकसित जंतुओं में बिना सहवास के अलैंगिक प्रजनन संभव नहीं है। मगर क्लोनिंग ने इस धारणा को खंडित कर दिया है । आज क्लोनिंग तकनीक की जो स्थिति है, उसके माध्यम से ही एक अकेला व्यक्ति बच्चे पैदा कर सकता है, किन्तु पुरुष को अपना क्लोन पैदा करने के लिये महिला की सहायता जरूर लेनी होती है। क्लोनिंग को लेकर अभी तक इतना संशय है कि प्रजनन क्रिया की बात फिलहाल उसके बिना करना ही उचित है। प्रजनन क्रिया हेतु महिला में अंडाणु और पुरुष में शुक्राणु का निर्माण होता है। आगे चलकर इन अंडाणु व शुक्राणु के मेल से भ्रूण बनता है और यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहे तब गर्भ ठहरता है। अंडाणु और शुक्राणु के इसी मेल को ‘निषेचन’ कहते हैं।

महिला शरीर से प्रजनन का संबंध- किसी भी महिला के शरीर में प्रजनन के मुख्य अंग दो अण्डाशय होते हैं। प्रजनन कार्य को संभव बनाने के लिये कई सारे और अंग होते हैं, जिनको सहायक प्रजनन अंग कहा जाता है। अंडाशय पेट के निचले क्षेत्र में (अर्थात् कूल्हे वाले हिस्से में) दोनों ओर होते हैं। प्रत्येक अंडाशय में लाखों अंड कोशिकायें होती हैं । इन कोशिकाओं में अंडाणु बनाने की क्षमता विद्यमान होती है। विशेष बात यह है कि ये सारी कोशिकायें जन्म के समय से ही महिला के शरीर में विद्यमान होती हैं, किन्तु उस समय ये अपरिपक्व अवस्था में होती हैं और लगभग 9 से लेकर 14 वर्ष की अवस्था तक ये अपरिपक्व अवस्था में ही बनी रहती हैं। इनके परिपक्व होने की शुरूआत अलग-अलग महिला में अलग-अलग आयु में ही होती है। अंड कोशिकाओं के परिपक्व होने की शुरूआत एक महत्त्वपूर्ण घटना है और इस पर कई बातों का प्रभाव पड़ता है-

गर्भाशय अथवा बच्चादानी— स्त्री के शरीर में अपनी मुट्ठी के आकार की यह एक तिकोनी, चपटी थैली होती है, जिसकी बाहरी दीवारें मोटी और पेशी युक्त होती हैं। गर्भ ठहरने पर यही दीवारें फैलकर अपनी जगह बनाती हैं और बच्चा हो जाने पर वे पुनः पूर्व स्थिति में आ जाती हैं।

ग्रीवा- यह अंग एक प्रवेश द्वार के समान होती है, जिससे होकर शुक्राणु गर्भाशय में प्रवेश करते हैं।

अंडाशय- स्त्री के गर्भाशय के दोनों ओर एक-एक अंडाशय होता है। प्रत्येक अंडाशय में लाखों कोशिकायें होती हैं जिनमें परिपक्व अंडे (अंडाणु) बनाने की क्षमता होती है।

अंड नली अथवा अंडवाहिनी— इन दोनों अंडाशयों के पास एक-एक नली होती है। इन नलिकाओं के फैलने-सिकुड़ने से ही अंडाणु आगे बढ़ता है।

हार्मोन अथवा अन्तःस्त्रावी रस- मानव के शरीर में जगह-जगह पर अंतःस्रावी ग्रंथियाँ हैं। ये ग्रंथियाँ कुछ विशेष प्रकार के रस बनाती हैं। ये रस खून में मिलकर रक्त वाहिनियों के द्वारा शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों में पहुँचते हैं, जो इन अंगों को कई महत्त्वपूर्ण काम करने के निर्देश देते हैं तथा इस तरह शरीर की अलग-अलग प्रक्रियाओं को नियंत्रित करते हैं अंतःस्त्रावी ग्रंथियों के उन रसायनों को ही अंतःस्रावी रस या हार्मोन कहते हैं। हमारे शरीर में कई प्रकार के हार्मोन होते हैं।

इन अंतःस्रावी ग्रंथियों का प्रमुख कार्य प्रजनन तंत्र को ही विकसित करना है। बचपन व किशोरावस्था के दौरान होने वाले शारीरिक परिवर्तन, मासिक धर्म की शुरूआत, गर्भावस्था व मासिक धर्म का बंद होना आदि काफी हद तक हार्मोनों के कारण ही नियंत्रित होते हैं मस्तिष्क में पाई जाने वाली पीयूष तथा अंडाशय (पुरुषों में अंडकोश) इसमें प्रमुख भूमिका निभाते हैं ।

(1) पीयूष ग्रंथि – पीयूष ग्रंथि में पाये जाने वाले निम्नांकित सभी हार्मोन प्रजनन का प्रमुख कार्य करते हैं-

(क) ग्रोथ हार्मोन – ये बचपन व किशोरावस्था के दौरान शरीर के परिवर्तनों में सहायक होते हैं।

(ख) प्रोलैक्टिन — यह गर्भावस्था की अवधि में दूध की ग्रंथियों को विकसित करता है।

(ग) ऑक्सीटोन – यह गर्भ की शुरूआत करने के लिये आवश्यक होता है ।

(घ) एफ०एस०एच० – यह अंडाशय में पाये जाने वाले अंडाणु को परिपक्व होने के लिये निर्देशित करता है ।

(ङ) एल० एच० – एल० एच० अंडाशय में पाये जाने वाले अंडाणु को कूटकर अंडवाहिनी में जाने का निर्देश देता है।

(2) अंडाशय – पीयूष ग्रंथि के एफ० एस० एच० और एल० एच० नामक दोनों हार्मोन एस्ट्रोजन व प्रोजेस्टेरोन बनाने के निर्देश देते हैं। एस्ट्रोजन शरीर के स्तरों के विकास, जाँघों के बीच व काँख में बालों के उगने, कूल्हे की हड्डी के चौड़ा होने जैसे बदलाव लाने के संकेत देता है। जब मासिक धर्म अथवा माहवारी शुरू होती है, तब एस्ट्रोजन के निर्देश से ही गर्भाशय की अन्दर की परत मोटी हो जाती है, जिससे कि बच्चा ठहर सके ।

पुरुष शरीर में प्रजनन की स्थिति-

मानव (पुरुष) के शरीर में प्रजनन के प्रमुख अंग अंडकोश (वृषण) हैं। पुरुष के अण्डकोश टेस्टोस्टेरोन नामक हार्मोन बनाते हैं। इस हार्मोन का ही असर है कि अंडकोश में शुक्राणुओं का निर्माण शुरू होता है। पुरुष अंडकोश शरीर के बाहर होते हैं। जन्म से पहले ये अंडकोश शरीर के अंदर ही होते हैं, लेकिन जन्म के समय ये शरीर से बाहर निकल आते हैं और एक विशेष थैली में टिक जाते हैं। विद्वानों ने इसका कारण यह माना है कि शुक्राणुओं के निर्माण के लिये थोड़े कम तापमान की आवश्यकता होती है। यदि अंडकोश शरीर के अंदर रहेंगे तो उच्च तापमान के कारण शायद शुक्राणुओं के निर्माण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। अंडकोश में भी शुक्राणु बनाने के लिए कोशिकाएँ होती हैं जो विभाजित होकर शुक्राणु बनाती है यहाँ से ये शुक्राणु अपरिपक्व अवस्था में ही आगे की यात्रा शुरू करते हैं। सर्वप्रथम ये अंडकोश के पीछे एपिडिडायमिस नाम की एक पतली घुमावदार नली में पहुँचते हैं, जिसकी लम्बाई लगभग 20 फुट होती एपिडिडायमिस का अंत शुक्रवाहिनी में होता है। प्रत्येक अंडकोश के लिये नलियाँ अलग-अलग होती हैं। ये दोनों शरीर के अंदर पहुँचकर आपस में जुड़ जाती हैं । यहाँ यह नली थोड़ी फूली हुई होती है। इसे स्खलन नलिका कहते हैं। इसमें शुक्राणु जमा होते रहते हैं और समय आने पर ही ये झटके से बाहर फेंके जाते हैं ।

पुरुषों में शुक्रवाहिनी सीधे मूत्र मार्ग से जुड़ जाती है अर्थात् पेशाब या मूत्र भी इसी रास्ते से बाहर आता है और वीर्य भी स्खलन से पहले शुक्राणुओं में तीन अंतःस्रावी ग्रंथियों के नाव आकर मिलते हैं-

(1) शुक्राशय (सैमिनल वैसिकल), (2) पुरःस्थ (प्रोस्टेट ग्रंथि एवं (3) काउपर ग्रंथि ।

इस प्रकार शुक्राणुओं के साथ इन तीनों ग्रंथियों के स्राव के मिलने से ही वीर्य बनता है। इन ग्रंथियों के स्राव ही शुक्राणुओं को पोषण देते हैं तथा उनको तैरने में सहायता करते हैं। अंडाणु के विपरीत, शुक्राणु के बनने में कोई चक्र नहीं होता है। ये करोड़ों की संख्या में लगातार बनते रहते हैं जबकि महिला में अंडाणु का निर्माण एक निश्चित अंतराल पर ही होता है। शुक्राणु अंडकोश में बनकर ही धीरे-धीरे विकसित होते हुए स्खलन नली में आते रहते हैं। अब या तो ये स्खलन द्वारा बाहर फेंके जाते हैं या शरीर के अंदर ही नष्ट हो जाते हैं। एक संभावना यह भी है कि अंडवाहिनी में अंडाणु का सम्पर्क करोड़ों शुक्राणुओं से हो जाये। ऐसा होने पर इनमें से कोई एक शुक्राणु अंडाणु की दीवार से होकर प्रवेश कर जाये तो निषेचन हो जाता है, किन्तु इसकी शर्त यह है कि अंडोत्सर्ग के समय ही शुक्राणु महिला के शरीर में प्रवेश कर चुके हों। हालाँकि अंडाणु का निषेचन एक ही शुक्राणु से होता है, किन्तु इसके लिये आवश्यक होता है कि करोड़ों शुक्राणु उपस्थित हों । यदि निषेचन हो जाता है तो पुटिका नष्ट नहीं होती और हार्मोन का निर्माण जारी रहता है ।

मानव में निषेचन प्रक्रिया — निषेचन क्रिया की स्थिति में महिला और पुरुष के प्रजनन अंगों की बात एक साथ ही करना उचित है। अंडोत्सर्ग के समय यदि शुक्राणुओं को महिला के शरीर में पहुँचा दिया जाता है तो वह फौरन हर दिशा में तैरने लगते हैं। एक स्खलन में लगभग दस करोड़ शुक्राणु पुरुष के शरीर से स्खलित होते हैं। संभोग के दौरान इन्हें वीर्य के रूप में योनि में छोड़ा जाता है। योनि के रास्ते ग्रीवा में से ये बच्चेदानी में पहुँचते हैं। वहाँ से ये अंडवाहिनियों में प्रवेश कर जाते हैं। अंडवाहिनी में किसी एक शुक्राणु और अंडाणु का मिलन हो जाता है। यदा-कदा एक साथ दो अंडाणु बन जाते हैं, तब इन दोनों का निषेचन हो सकता है और जुड़वाँ बच्चे बन सकते हैं। ये दो जुड़वाँ बच्चे एक-दूसरे से उतने ही भिन्न होते हैं, जितने कोई भी भाई-बहिन होते हैं।

ये दोनों लड़के या दोनों लड़कियाँ अथवा एक लड़का और एक लड़की भी हो सकते हैं। निषेचन के साथ ही अंडाणु में विकास प्रारंभ हो जाता है। इस अवस्था में इसे भ्रूण कहा जाता है। सामान्यतया इस भ्रूण से एक ही बच्चे का विकास होता है, किन्तु कभी-कभी आगे विकास से पूर्व यह दो भागों में बँट जाता है और प्रत्येक भाग अलग-अलग विकसित होता है। ये भी जुड़वाँ बच्चों को जन्म देते हैं। एक ही भ्रूण से बने होने के कारण ये जुड़वाँ बच्चे हू-ब-हू एक-दूसरे के समान होते हैं। ऐसे जुड़वाँ बच्चे या दोनों लड़के होंगे अथवा दोनों लड़कियाँ इस प्रकार संभोग या मैथुन या सहवास की क्रिया के दौरान पुरुष के शुक्राणु महिला के शरीर में पहुँचते हैं और यदि यह क्रिया अण्डोत्सर्ग के दौरान हुई हो तो अण्डाणु का निषेचन हो जाता है। इसके पश्चात् की पूरी प्रक्रिया महिला के शरीर में ही सम्पन्न होती है। इस प्रकार संभोग की क्रिया महिला पर एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी डाल सकती है।

बच्चा निर्माण- निषेचित अंडा अंडवाहिनी में आगे बढ़ता है। बच्चेदानी में पहुँचने से पूर्व ही उसका विकास प्रारंभ हो जाता है। बच्चेदानी में पहुँचकर यह उसकी दीवार से जुड़ जाता है और आगे की उसकी सारी विकास प्रक्रिया यहाँ पर होती है। बच्चे की इस विकास की प्रक्रिया में लगभग 266 दिन का समय लगता है। चूँकि गर्भावस्था की गिनती आखिरी मासिक स्राव से की जाती है और अंडोत्सर्ग इस स्राव के लगभग 14 दिन बाद होता है, इसलिये गर्भावस्था लगभग 280 दिन या 9 माह की मानी जाती है।

क्या होगा – लड़का या लड़की- लगभग सभी विकसित जंतुओं में नर और मादा अलग-अलग होते हैं। प्रायः इनके बीच स्पष्ट दिखाई देने वाले अन्तर भी दिखाई देते हैं। प्रकृति में लिंग का निर्धारण किस प्रकार होता है ? अलग-अलग जंतुओं में इसकी विधि अलग-अलग होती है जैसे कुछ जंतुओं में निषेचन के पश्चात् तैयार अंडे से नर या मादा कुछ भी बन सकता है। यह इस बात पर निर्भर रहता है कि अण्डे का आगे का विकास किस तापमान पर होता है। इसी प्रकार से कुछ जंतुओं में प्रायः ऐसा भी देखा गया है कि उनके दो प्रकार के अण्डे होते हैं-

(1) निषेचित एवं (2) अनिषेचित ।

इनमें से एक प्रकार के अण्डों से नर बनते हैं, जबकि दूसरी प्रकार के अण्डों से मादा, किन्तु मनुष्यों में लिंग निर्धारण कोशिका में उपस्थित गुणसूत्रों (क्रोमोसोम) के आधार पर होता है मनुष्यों में कुल 23 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं। प्रत्येक जोड़ी का एक सूत्र माता से और दूसरा पिता से प्राप्त होता है। इनमें से 22 जोड़ियों में तो दोनों गुणसूत्र एक जैसे होते हैं, किन्तु तेईसवीं जोड़ी के दोनों गुणसूत्र को X, दूसरे गुणसूत्र को Y कहा जाता है। इन्हें लिंग गुणसूत्र कहते हैं। महिलाओं में तेईसवीं जोड़ी के दोनों गुणसूत्र X होते हैं, जबकि पुरुषों में एक X तथा दूसरा Y होता है। इसको इस प्रकार से समझा जा सकता है-

शुक्राणुओं की जैवीय स्थिति

  • महिला = 22 जोड़ियाँ + XX
  • पुरुष = 22 जोड़ियाँ + XY

जब जनन कोशिका (अंडाणु या शुक्राणु) का निर्माण होता है, तब उनमें प्रत्येक जोड़ी का कोई एक गुणसूत्र जाता है। इसमें अंडाणुओं के मामले में स्थिति इस प्रकार रहती है-

  • अंडाणु-1 = 22 गुणसूत्र + X और
  • अंडाणु-2 = 22 गुणसूत्र + X

अर्थात् दोनों प्रकार के अण्डाणु एक समान होते हैं, लेकिन दूसरी ओर शुक्राणुओं के मामले में स्थिति इस प्रकार रहती है-

  • शुक्राणु -1 = 22 गुणसूत्र + X और
  • शुक्राणु-2 = 22 गुणसूत्र + Y

अर्थात् शुक्राणु दो प्रकार के होते हैं। इन्हें हम X और Y शुक्राणु कह सकते हैं।

 निषेचन का निष्कर्ष – निषेचन क्रिया के समय अंडाणु जो सदैव X होता है, उसके साथ या तो Y शुक्राणु का मेल होगा या X शुक्राणु का यदि दोनों X और X शुक्राणु का मेल हुआ तो तेईसवीं जोड़ी XX बनेगी और इससे जो अण्डा विकसित होगा वह मादा अर्थात् लड़की को ही जन्म देगा। दूसरी ओर यदि महिला के निश्चित X अण्डाणु से Y शुक्राणु का मेल हुआ तो तेईसवीं जोड़ी XY बनेगी। इससे जो अण्डा विकसित होगा उससे नर अर्थात् लड़के का ही जन्म होगा ।

इस प्रकार शुक्राणुओं शुद्ध जीव विज्ञान की दृष्टि से जानकारी करने पर यह स्पष्ट होता है कि लड़के या लड़की का जन्म लेना शुद्ध संयोग की बात है। किसी भी पुरुष के वीर्य में लगभग बराबर मात्रा में X और Y शुक्राणु होते हैं। इनमें से कौन-सा शुक्राणु अण्डाणु का निषेचन करेगा, यह सब संयोग की बात है। इस छोटे-से संयोग को लेकर कभी-कभी यह प्रश्न खड़ा करना कि अमुक ने लड़कियों को जन्म दिया है बिल्कुल उचित नहीं है, क्योंकि इस संयोग में भी पुरुष से शुक्राणु के आधार पर लिंग निर्धारित होता है। महिला अण्डाणु तो हर स्थिति और संयोग में समान ही होते हैं।

बच्चे के पैदा न होने की स्थिति—

कई बार कोई दंपत्ति बच्चे पैदा करने में असमर्थ रहते हैं । इस मामले में भी समाज सारा दोष महिला पर ही डालता है। ऐसी महिला को बाँझ आदि कहना सामान्य बात है। प्रजनन तंत्र और प्रजनन प्रक्रिया के दौरान दिये गये विवरण से ऐसी कई बातें उभरती हैं, जो किसी दम्पत्ति के निःसंतान रहने के लिये जिम्मेदार मानी जा सकती है।

अण्डोत्सर्ग के बाद अण्डाणु कुछ दिन तक ही जीवित रहता है। यदि इस दौरान उसका मेल शुक्राणु से हो जाये तो ठीक है, नहीं तो वह नष्ट हो जाता है और अगला चक्र शुरू हो जाता है। इसका आशय यह है कि “सफल निषेचन के लिये सही समय पर शुक्राणु का पहुँचना अति आवश्यक है, इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक चक्र के एक-दो दिन ही ऐसे होते हैं जब कोई महिला गर्भ धारण कर सकती है।”

जैवीय नियमानुसार निषेचन तो एक ही शुक्राणु करता है, किन्तु इस क्रिया की सफलता के लिये करोड़ों शुक्राणुओं की उपस्थिति आवश्यक होती है। ऐसा भी हो सकता है कि महिला के शरीर का आंतरिक वातावरण शुक्राणुओं के लिये ही घातक हो । यह भी संभव है कि अंडाणु बन ही न रहे हों और यह भी संभव है कि गर्भाश्य का स्तर भ्रूण को सहारा न दे पा रहा हो। इस मामले में महिला की सेहत और भावनात्मक स्थिति का भी महत्त्व होता है। इसका आशय यह है कि “किसी दंपत्ति का नि:संतान रहना कई बातों पर निर्भर करता है। इसमें किसी एक साथी की दिक्कत हो सकती है अथवा दोनों का मिला-जुला प्रभाव हो सकता है।’

माहवारी चक्र की प्रक्रिया-

यदि प्रत्येक तीसरे चौथे दिन में अंडाशय और गर्भाशय का अध्ययन किया जाये तो यह मिलेगा कि उसमें परिवर्तन होता रहता है। पूरे माह में ग्रीवा ऊपर-नीचे होती रहती है तथा ग्रीवा में से निकलने वाला स्राव (धात) बदलता रहता है। परिपक्व होते हुए भी अंडाणु के आस-पास कोशिकाओं का एक समूह तैयार हो जाता है, जिसको पुटिका कहा जाता है। यह पुटिका कुछ हार्मोन बनाती है। इन्हीं हार्मोन के प्रभाव से अण्डोत्सर्ग के समय शरीर का तापमान थोड़ा बढ़ जाता है। पुटिका हार्मोन का एक और प्रभाव होता है। इसी की वजह से बच्चेदानी अर्थात् गर्भाशय की दीवार मोटी हो जाती है। और वहाँ खून की सप्लाई बढ़ जाती है। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि अंडोत्सर्ग के साथ ही यह संभावना बनी रहती है कि शायद अंडाणु का मूल शुक्राणु से होकर भ्रूण तैयार होगा। इस भ्रूण का आगे विकास बच्चेदानी की दीवार पर टिककर ही होता है तथा विकास के दौरान इसे पोषण भी बच्चेदानी की दीवार के माध्यम से ही मिलता है, अर्थात् संभावित गर्भावस्था की तैयारी में बच्चेदानी की दीवार में परिवर्तन होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

जब अंडा परिपक्व होकर पुटिका को वहीं छोड़कर अंडाशय से बाहर निकलता है तो अंडाशय के समीप ही स्थित अंडवाहिनी का झालरदार मुँह उसे झेल लेता है। एक बार शुरू होने पर अंडाणु निकलने की यह प्रक्रिया महिला के जीवन में कई वर्षों तक चलती है लगभग 45-50 वर्ष की आयु तक हर माह एक अंडाणु परिपक्व होकर निकलता है। वैसे दो अण्डोत्सर्ग के बीच लगभग 28 दिन का अन्तराल होता है, किन्तु इसमें काफी विविधता पायी जाती है। यह अंतराल 21 दिन से लेकर 35 दिन तक का भी हो सकता है। सामान्यतया प्रति माह एक ही अंडाणु परिपक्व होता है, किन्तु कभी-कभी एक से अधिक अंडाणु भी तैयार हो सकते हैं। झालरदार मुँह से होकर अंडाणु अंडवाहिनी से आगे की ओर अग्रसर होता है।

इस अण्डाणु की मुलाकात शुक्राणुओं से न हो तब जल्दी ही अंडाशय में पूरे मासिक चक्र में हार्मोन की मात्राओं में भी परिवर्तन होते रहते हैं। पूरे समय हार्मोन का उतार-चढ़ाव होता रहता है। इसका महिला की शारीरिक क्रियाओं, मनःस्थिति (मूड) आदि पर प्रभाव होता है इसके अतिरिक्त मासिक स्राव के दौरान बच्चेदानी में मरोड़ की वजह से दर्द का होना भी सामान्य बात है। ये मासिक चक्र एक बार शुरू होने के पश्चात् लगभग 45 से 50 साल की आयु तक चलते रहते हैं। इस दौरान ये तभी रुकते हैं, जब गर्भ ठहर जाये या कोई शारीरिक गड़बड़ी हो। 45-50 साल की आयु में माहवारी रुक जाती है। इसी को रजोनिवृत्ति या ‘मीनोपॉज’ कहते हैं। इसके पश्चात् अंडाशय काम करना बंद कर देते हैं और अंदर उपस्थित सारे अपरिपक्व अंडाणु नष्ट होने लगते हैं। अंडाशय अब पीयूष ग्रंथि से मिलने वाले हार्मोन संकेतों का उत्तर नहीं देता है, तो एस्ट्रोजन व प्रोजेस्टोरोन नहीं बनते । हार्मोन में इन परिवर्तनों के कारण एक बार फिर महिला के शरीर व मनःस्थिति (मूड) में परिवर्तन होते हैं। विशेष रूप से देखा गया कि एस्ट्रोजन की कमी के कारण हड्डियाँ कमजोर पड़ने लगती हैं जिसका प्रभाव मानव शरीर पर भी पड़ता है।

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Anjali Yadav

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