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भारतीय महिला संगठनों के द्वारा भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को किस प्रकार प्रभावित किया गया था ?
जिस समय बीसवीं सदी आरम्भ हुआ तो उस समय महिलाओं की स्थिति में व्यापक परिवर्तन होने लगा था क्योंकि उस समय के प्रतिभाशाली समाज सुधारकों द्वारा उनके लिए विभिन्न सुधारात्मक कार्य किए गए जिससे उनकी आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में भी व्यापक परिवर्तन हुआ। इन परिस्थितियों में, महिलाओं को समाज में अपनी स्थिति को महत्त्वपूर्ण बनाने के लिए विभिन्न संगठनों की आवश्यकता महसूस हुई थी जिसके कारण भारत के विभिन्न भागों में तत्कालीन नारियों द्वारा अलग-अलग संगठन बनाए गए थे। महिलाओं द्वारा ब्रिटिश भारत में अपने संगठनों का गठन वस्तुतः दो चरणों में किया गया था। प्रथम चरण – सन् 1910 ई. से 1928 ई. तक तथा ‘द्वितीय चरण, सन् 1928 से सन् 1947 तक था। इन दोनों चरणों में महिलाओं द्वारा विभिन्न संगठन बनाए गए, जिनमें से कुछ संगठन अखिल भारतीय स्तर पर बनाए गए थे। इन सभी संगठनों में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व तथा भागीदारी दोनों ही उच्च स्तरीय तथा विशेष महत्त्व का था।
प्रथम चरण (सन् 1910 से सन् 1928 तक) में गठित महिला संगठन (Women Organizations in First Period i.e. 1910 to 1928 A.D.)
भारतीय नारियों द्वारा सर्वप्रथम सन् 1910 में अपना एक निजी संगठन बनाने का निर्णय लिया गया ताकि वे अपनी समस्याओं को ब्रिटिश सरकार के समक्ष उचित रूप से रख सकें। इसके बाद तो नारियों द्वारा विभिन्न संगठन बनाए गए। प्रथम चरण के विभिन्न महिला संगठनों का विवरण, जो सन् 1910 ई. से 1928 तक के समय में बनाए गए थे, इस प्रकार हैं-
(1) भारत स्त्री महामण्डल- यह भारतीय महिलाओं का प्रथम संगठन माना जाता है, जिसकी स्थापना सन् 1910 ई. में श्रीमति सरला देवी चौधरानी द्वारा की गई थी। इस संगठन का उद्देश्य महिलाओं की समस्याओं पर विचार करना था। इसके लिए उन्होंने महिलाओं के सामाजिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए तथा नारी चेतना के विकास के सम्बन्ध में विभिन्न कार्य किए थे।
(2) विभिन्न महिला समितियों का गठन- श्रीमती चौधरानी के प्रयासों से प्रभावित होकर श्रीमती सरोजनी नलिनी दत्त द्वारा ग्रामीण महिलाओं की समस्याओं का व्यापक अध्ययन किया गया और प्रथम महिला समिति का गठन सन् 1913 ई. में ‘पावना’ में किया। इसके बाद उन्होंने विभिन्न स्थानों पर इस प्रकार की विभिन्न महिला समितियाँ गठित की। इन समितियों का प्रमुख उद्देश्य महिलाओं को पर्दा त्यागने तथा घर की चारदीवारियों से बाहर निकलकर सामाजिक कार्यों में शामिल करना था। इन समितियों के द्वारा महिलाओं को शिक्षित करने का कार्य भी किया गया था ।
(3) महिला भारतीय संघ की स्थापना- भारतीय महिलाओं के प्रयासों से उत्साहित होकर ही महिलाओं में राजनैतिक जागरूकता उत्पन्न करने के उद्देश्य से श्रीमती ऐनी बेसेन्ट द्वारा सन् 1917 ई. में ‘महिला भारतीय संघ’ की स्थापना की गयी जिसकी अध्यक्षा श्रीमती सरोजनी नायडू को बनाया गया तथा सिस्टर माग्रेट को इस संघ का सचिव बनाया गया था। इस संस्था द्वारा सर्वप्रथम महिलाओं के लिए मताधिकार की माँग की गयी, जिसके लिए सरकार को स्मरण पत्र भी दिया गया। राजनैतिक क्षेत्र में महिलाओं का पदार्पण वस्तुत: इसी संघ द्वारा हुआ था और श्रीमती एनी बेसेन्ट के महत्त्वपूर्ण योगदान के कारण इस संगठन का विकास हुआ।
(4) अखिल भारतीय महिला कांफ्रेन्स – भारतीय महिला संघ की अध्यक्षा श्रीमती नायडू द्वारा सन् 1926 ई. में इस संगठन की स्थापना की गई। यह केवल सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था के रूप में विकसित हुई। इस संस्था के प्रारम्भिक विचारणीय बिन्दु सामाजिक मुद्दे जैसे बाल कल्याण, महिला कल्याण, विधवा कल्याण आदि थे। फिर गाँधीजी के निर्देशानुसार इस संगठन द्वारा महिलाओं से सम्बन्धित विभिन्न कार्यों को पूरा करना, अपना प्रमुख उद्देश्य बनाना पड़ा था। महिलाओं की समस्याओं के समाधान के लिए ही भारत में महिलाओं की राष्ट्रीय परिषद् भी गठित की गयी जिसका प्रमुख उद्देश्य महिलाओं के सामाजिक स्तर को ऊँचा उठाना तथा उनकी विभिन्न समस्याओं का निराकरण करना निश्चित किया गया।
इस प्रकार उपर्युक्त महिला संगठनों द्वारा सरकार के समक्ष, स्त्रियों की शिक्षा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा जैसी बुराइयों का उन्मूलन तथा नारी अधिकारों की माँग को सफलतापूर्वक उठाया गया था। इन संगठनों के प्रयासों से ही ब्रिटिश सरकार द्वारा दो—अधिनियम पारित किए गए, जिनमें प्रथम -बाल विवाह प्रतिबन्ध अधिनियम तथा हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम आदि प्रमुख हैं। इस प्रकार सरकार द्वारा महिलाओं की समस्याओं को विधिक मान्यता प्रदान कर दी गई।
द्वितीय चरण ( 1928 से 1947 तक ) महिला संगठन (Women Organisations of Second Stage i.e. 1928 to 1947 A.D.)
भारतीय महिला राजनीति का द्वितीय चरण सन् 1928 में प्रारम्भ हुआ, क्योंकि इस समय कुछ ऐसी राजनैतिक घटनाएँ घटित हुई थी, जिन्होंने भारतीय महिला संगठनों को व्यापक रूप से प्रभावित किया था। जब 1931 ई. में चुनाव सम्पन्न हुए, उस समय अधिकांश महिलाएँ निर्वाचित हुई थीं। सन् 1937 ई. में भी महिलाओं के लिए आरक्षित 41 स्थानों पर चुनाव हुए जिनमें काफी महिलाएँ निर्वाचित हुईं। इन विशिष्ट महिलाओं में हंसा मेहता, लक्ष्मी सहगल, दुर्गाबाई आदि प्रमुख महिलाएँ थीं इन महिलाओं में विजया लक्ष्मी पंडित को कांग्रेसी मंत्रिमण्डल में सार्वजनिक स्वास्थ्य मंत्री भी बनाया गया था ।
इन महिला संगठनों द्वारा सन् 1937 ई. में हिन्दू स्त्रियों के व्यक्तिगत कानूनों में सुधार की माँग की गयी और इन सुधारों को लागू करवाने के लिए दबाव भी बनाया। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले सुधारों का प्रस्ताव रखने तथा समितियों की स्थापना करने की माँग की। ब्रिटिश सरकार से कानून पारित कराने के लिए, महिला संगठनों द्वारा पुरुषों के सहयोग की माँग की गयी। तब सन् 1945 ई. में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की अध्यक्षा श्रीमती हंसा मेहता ने महिला अधिकारों के सम्बन्ध में एक घोषणा पत्र जारी किया और शिक्षा एवं स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में अधिकार की माँग की।
ब्रिटिश सरकार द्वारा महिला संगठनों की माँग पर सन् 1945 ई. में एक अधिनियम पारित किया गया, जिसमें स्त्रियों को ‘विवाह विच्छेद’ का अधिकार दे दिया गया। इसी अधिनियम की धारा 22 में सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त करने का प्रावधान भी किया गया। इसी • अधिनियम की धारा 25 तथा 26 में न्यायिक अलगाव तथा विवाह विच्छेद की भी व्यवस्था की गयी। इसी अधिनियम को आधार बनाकर स्वतन्त्र भारत की सरकार द्वारा सन् 1956 में उत्तराधिकार अधिनियम पारित किया गया जिसके द्वारा उन्हें सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार भी प्राप्त हुआ। यही अधिनियम आज भी भारत में महिलाओं के सम्पत्ति अधिकारों के लिए प्रमाणिक आधार माना जाता है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि भारतीय महिलाओं द्वारा गठित संगठन निर्माण आन्दोलन एक सफल आन्दोलन रहा था, क्योंकि उन्हीं के माध्यम से स्त्रियों में राजनैतिक चेतना भी जाग्रत हुई और स्त्रियों की परम्परागत स्थिति में व्यापक सुधार हुआ। इससे यह बात स्पष्ट हो गयी कि जब तक महिलाएँ किसी समस्या के प्रति जागरूक नहीं होंगी तब तक वह समस्या दूर नहीं होगी।
महिला संगठनों के कार्य का मूल्यांकन (Evaluation of the Works of Women Organisations)
भारतीय इतिहास में प्रथम बार महिलाएँ, आत्म-निर्भर संगठनों के माध्यम से अपनी स्थिति को मजबूत बना रही थीं। नारियों का संघर्ष ही इन संगठनों की प्रमुख विशेषता रही है। महिला संगठनों की प्रमुख विशेषताओं एवं कार्यों की समीक्षा इस प्रकार की जा सकती है-
(1) नागरिक अधिकारों को प्रोत्साहन देने वाले संगठनों का अभाव- भारत में आज भी नागरिक अधिकारों को प्रोत्साहित करने वाली संस्थाओं की संख्या काफी कम है, जबकि विश्व के अन्य देशों में इस प्रकार की संस्थाओं की संख्या अधिक है।
(2) गैर-साम्प्रदायिक संस्थाओं का दोष- ब- भारत की गैर-साम्प्रदायिक तथा समस्त वर्गों की महिलाओं की संस्थाओं का प्रमुख दोष यह है कि इन संस्थाओं का प्रमुख आधार जाति-उपजाति या धर्म है, जिससे यह संस्थाएँ महिलाओं को उच्च अधिकार नहीं दिला पा रही हैं।
(3) महिलाओं को आर्थिक सहायता न देना— यद्यपि भारत में महिलाओं के विभिन्न संगठन हैं, लेकिन आधुनिक समाज की महिलाएँ घरेलू कार्यों में ही लगी रहती हैं, और इनका कार्य बच्चों की देखभाल ही रह जाता है। यही नहीं, उनको घर के खर्च तथा जीविकोपार्जन में समन्वय स्थापित करने के लिए विभिन्न कार्य करने पड़ते हैं जिसके परिणामस्वरूप समस्याएँ बहुत अधिक होती हैं, लेकिन ये संस्थाएँ निम्न स्तर की महिलाओं की आर्थिक सहायता नहीं कर पाती हैं और महिलाओं का प्रभावशाली वर्ग ही समस्त लाभों को प्राप्त कर लेता है।
(4) उच्च वर्ग का प्रतिनिधित्व करना — महिलाओं की अखिल भारतीय संस्था ‘अखिल हिन्दू महिला परिषद्’ भी उच्च वर्ग की ही प्रतिनिधि मानी जाती हैं, जिनका प्रमुख कार्य केवल प्रस्ताव पारित करना होता है, लेकिन प्रस्तावों को क्रियान्वित करने का कार्य बहुत ही कम सम्पन्न हो पाता है।
(5) स्त्रियों का अशिक्षित होना – यद्यपि भारतीय महिला संगठनों द्वारा महिलाओं को शिक्षित करने के विविध कार्यक्रम चलाए गए हैं, फिर भी वास्तविकता यह है कि आज भी अधिकांश महिलाएँ अशिक्षित हैं जिनको अक्षरों का भी ज्ञान नहीं है।
(6) समस्याओं का निराकरण न होना – यद्यपि वर्तमान महिला संगठन महिलाओं से सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं के निराकरण करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन आज भी महिलाओं की मूलभूत समस्याएँ सर्वत्र विद्यमान हैं, जिनमें से प्रमुख हैं—निराश्रय विधवा, अलगाववादी महिलाओं की समस्या, पुरुष वासनाओं की शिकार होने से सम्बन्धित महिलाओं की समस्या आदि। इससे स्पष्ट होता है कि इन विभिन्न संगठनों के अस्तित्व एवं कार्य करने के बावजूद महिलाएँ पारिवारिक यातनाएँ सहन करने के लिए विवश होती हैं। आज महिलाओं की समस्याएँ तो अधिक हैं, लेकिन इनको दूर करने वाली संस्थाओं की संख्या काफी कम है और जो संस्थाएँ हैं भी, उनके प्रभाव की क्रियान्वयनता काफी कम है ।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि भारतीय महिला संगठन या संस्थाएँ महिलाओं के सांस्कृतिक पक्ष को ही प्रस्तुत करती हैं, जो महिला संगठन इनकी समस्याओं पर गंभीरता से विचार कर रही हैं। वे संस्थाएँ संख्या में काफी कम है। यह कहना उचित ही है कि भारतीय महिला संगठनों को केवल महिलाओं की पिछड़ी दशा का मापदण्ड माना जाता है। वर्तमान में भारतीय महिला आयोग की स्थापना स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए ही की गयी है, किन्तु नारी की समस्याओं के सुधार की दृष्टि से उसके उद्देश्यों को पूर्ण करना अभी भी उसकी भविष्य की भूमिका एवं क्रियान्वयन प्रणाली एवं उसके प्रभाव पर ही निर्भर करता है । आज आवश्यकता इस बात की है कि नारियों की वर्तमान समस्याओं जिनमें नारियों के विरुद्ध अपराध, घरेलू हिंसा आदि प्रमुख है, को दूर करने के लिए वर्तमान में विद्यमान समस्त नारी संगठनों द्वारा मिलकर गम्भीरतम् प्रयास किया जाए ।
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