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भारतीय संदर्भ में लिंग एवं शिक्षा के सिद्धान्त एवं उपयोग | Theories and Uses of Gender and Education of Indian Context in Hindi

भारतीय संदर्भ में लिंग एवं शिक्षा के सिद्धान्त एवं उपयोग | Theories and Uses of Gender and Education of Indian Context in Hindi
भारतीय संदर्भ में लिंग एवं शिक्षा के सिद्धान्त एवं उपयोग | Theories and Uses of Gender and Education of Indian Context in Hindi

भारतीय संदर्भ में लिंग एवं शिक्षा के सिद्धान्त एवं उपयोग का वर्णन करें। (Describe the Theories and Uses of Gender and Education of Indian Context.)

लिंग तथा लैंगिक मुद्दों का महत्त्व सदैव ही रहा है और किसी भी विषय पर सकारात्मक झुकाव हेतु शिक्षा की आवश्यकता अत्यधिक होती है। वर्तमान में किसी भी सभ्य समाज का आकलन वहाँ की शैक्षिक और लिंगीय समानता की स्थिति को देखकर किया जाता है। लिंग तथा शिक्षा के कार्यों के समुचित संचालन हेतु इनसे सम्बन्धित कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया, जिससे इनका उपयोग किया जा सके। यहाँ कुछ सिद्धान्त तथा उनका उपयोग भारतीय सन्दर्भ में निम्न प्रकार है-

1. समाजीकरण का सिद्धान्त (Theory of Socialization) – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं, वह समाज में रहता है और समाज में रहते हम हुए उन्नति करता है। समाज के नियमों को मानने, उसके आदर्शों पर चलने की प्रक्रिया को हम सामान्य शब्दों में समाजीकरण कह सकते हैं । कोई बालक अपने जन्म के समय शिक्षा मनोविज्ञान के अनुसार न तो सामाजिक होता है और न ही असामाजिक, परन्तु जैसे-जैसे उसका विकास होता है तो उसका समाजीकरण भी साथ-ही-साथ होता है । समाजीकरण को प्रभावित करने वाले कुछ व निम्न प्रकार हैं-

  1. आनुवंशिकता,
  2. सामाजिक वातावरण,
  3. विद्यालीय वातावरण,
  4. पारिवारिक वातावरण,
  5. सांस्कृतिक क्रिया-कलाप,
  6. अन्य अभिकरणों के साथ मेल-जोल,
  7. जनसंचार के साधनों की प्रभाविता,
  8. मित्र तथा समूह,
  9. सामाजिक अन्तःक्रिया के अवसर,
  10. आत्म-प्रकाशन तथा अभिव्यक्ति के अवसर,
  11. सामाजिक मान्यतायें तथा रीति-रिवाज,
  12. शासन प्रणाली ।

बालक की समाजीकरण की प्रक्रिया पर परिवार, समाज, संस्कृति तथा किस प्रकार की शासन प्रणाली प्रचलित है, इसका प्रभाव पड़ता है । समाजीकरण में गति तभी आयेगी जब समाज से सम्पर्क स्थापित करने के अधिक-से-अधिक अवसरों का सृजन किया जाये। समाजीकरण की प्रक्रिया में वर्तमान में विद्यालयों की प्रभावी भूमिका देखी जा सकती है। विद्यालय में कराये जाने वाले कक्षीय तथा कक्षेत्तर क्रिया-कलापों के द्वारा समाजीकरण की प्रक्रिया में वृद्धि होती है, क्योंकि-

1. विद्यालयों में बिना किसी लैंगिक भेद-भाव के सामाजिकता की भावना पर बल दिया जाता है।

2. विद्यालयों में परस्पर प्रेम, सौहार्द्र तथा सहायता के द्वारा सामूहिकता की भावना पर बल दिया जाता है।

3. विद्यालयों में परस्पर लिंग का आदर करना सिखाया जाता है, जिससे समाजीकरण की प्रक्रिया को गति मिलती है ।

4. विद्यालयों को समाज का लघु रूप माना जाता है। अतः यहाँ पर सामाजिक ज्ञान प्रदान कर समाजीकरण के सिद्धान्त को आगे बढ़ाया जाता है ।

5. शिक्षा और समाज एक-दूसरे से प्रगाढ़ रूप से सम्बन्धित हैं शिक्षा के द्वारा सामाजिक आवश्यकताओं की और शिक्षा के स्वरूप तथा उद्देश्यों इत्यादि के निर्धारण पर समाज का प्रभाव पड़ता है । अतः शिक्षा के सिद्धान्त समाजीकरण में सहायक हैं

6. लिंगीय सिद्धान्तों के द्वारा परस्पर लिंगों के प्रति सम्मान और आदर तथा अन्योन्याश्रितता की भावना के विस्तार द्वारा समाजीकरण में गति आती हैं

7. लिंगीय सिद्धान्तों को सकारात्मक बनाने का कार्य शिक्षा के सिद्धान्तों के द्वारा किया जाता है।

8. शिक्षा के सिद्धान्तों द्वारा प्राप्त किये गये ज्ञान का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करना सिखाया जाता है, जिससे समाजीकरण में गति आती है।

9. लिंगीय सिद्धान्तों के द्वारा समाजीकरण की प्रक्रिया में लिंग की समानता की आवश्यकता तथा महत्त्व पर प्रकाश डाला जाता है।

10. शिक्षा तथा लिंग दोनों के ही सिद्धान्त समाज के अभिन्न अंग हैं और इनसे समाजीकरण को गति मिलती है।

समाजीकरण के सिद्धान्त की उपयोगिता प्रत्येक समाज में है, क्योंकि समाज तभी होगा जब वहाँ पर निवास करने वाले व्यक्तियों के मध्य अन्तःक्रिया हो । उनमें प्रेम, सहयोग, त्याग, सौहार्द्र, सहानुभूति इत्यादि गुण हों । समाजीकरण की उपयोगिता भारतीय सन्दर्भ में निम्न प्रकार हैं-

  1. प्रेम तथा मानवता हेतु
  2. मनुष्य के सभ्य जीवन हेतु
  3. संगठित जीवन हेतु
  4. बच्चों के पालन-पोषण हेतु
  5. आर्थिक क्रिया-कलापों हेतु
  6. राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता हेतु
  7. शिक्षा के प्रसार हेतु
  8. व्यक्ति की व्यक्तिगत उन्नति से लेकर राष्ट्रीय उन्नति हेतु
  9. सुरक्षात्मक वातावरण हेतु
  10. प्रेरणा, पुरस्कार तथा आत्म-प्रकाशन हेतु

1. प्रेम तथा मानवता हेतु — समाजीकरण की प्रक्रिया में सभी लिंगों के समभाव पर बल दिया जाता है, क्योंकि लिंगीय असमानता के कारण ही समाज में दो विरोधी गुणों के लोग मिलकर एक साथ कार्य करते हैं। समाजीकरण की उपयोगिता समाज में प्रेम तथा मानवता के प्रसार हेतु अत्यधिक है समाजीकरण के द्वारा ही व्यक्ति परस्पर प्रेम से रहना सीखते हैं, एक-दूसरे के सुख-दुःख में काम आते हैं। इस प्रकार मनुष्यों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए प्रेम तथा मानवता के गुणों का होना अत्यावश्यक है और इसके लिए समाजीकरण की आवश्यकता अत्यधिक है।

2. मनुष्य के सभ्य जीवन हेतु — मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के कारण वह सामाजिक नियमों और परम्पराओं को मानता है, जिससे उसका जीवन सभ्य और सुखी बनता है, क्योंकि बर्बरतापूर्ण एकाकी जीवन में मनुष्य के भीतर सामाजिक प्रवृत्तियाँ नहीं होती हैं । समाजीकरण के द्वारा एक अबोध बालक भी धीरे-धीरे सामाजिक होने लगता है और सभ्य बनकर अपने व्यवहारों, मनोवृत्तियों तथा क्रिया-कलापों पर नियन्त्रण स्थापित करने लगता है।

3. संगठित जीवन हेतु — वर्तमान में समाज और समाजीकरण के बिना मनुष्य अपने सुचारु और व्यवस्थित जीवन की परिकल्पना भी नहीं कर सकता है और सामाजिक संगठन के मूल में मनुष्यों के संगठित रहने की प्रवृत्ति भी एक कारण है। संगठित जीवन व्यतीत करने के अनेकों लाभ हैं, जैसे—सुरक्षा का भाव, आवश्यकताओं की पूर्ति इत्यादि और यह समाजीकरण के बिना सम्भव नहीं है। इस प्रकार समाजीकरण संगठित जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है ।

4. बच्चों के पालन-पोषण हेतु- यदि समाज नहीं होता तो परिवार जैसी महत्त्वपूर्ण संस्था न होती और बच्चों के पालन-पोषण का कार्य समुचित रूप से सम्पन्न नहीं हो पाता इस प्रकार बच्चों के पालन-पोषण, उनको सामाजिक, सांवेगिक तथा मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए समाजीकरण का अत्यधिक महत्त्व है

5. आर्थिक क्रिया-कलापों हेतु — समाज में व्यक्ति रहता है और वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक-दूसरे पर निर्भर रहता है और इसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार के उद्योग तथा व्यावसायिक गतिविधियों का जन्म होता है। इस प्रकार मनुष्य की आकांक्षाओं और उन्नति के लिए समाजीकरण अत्यावश्यक है ।

6. राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता हेतु – राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता में समाज की प्रक्रिया का महत्त्व अत्यधिक है। समाज में रहकर व्यक्ति के साथ-साथ (Live Together), साथ-साथ क्रिया करने की प्रवृत्ति का विकास होता है, जिससे राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की भावना आती है। लिंग, जाति, धर्म, जन्म-स्थान इत्यादि भेद-भावपूर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता के लिए समाजीकरण की आवश्यकता अत्यधिक है।

7. शिक्षा के प्रसार हेतु – समाज की अपने व्यक्तियों से कुछ आकांक्षायें होती हैं जिनकी पूर्ति के लिए सभी अपने सदस्यों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था करता है। वर्तमान विद्यालयों में समाज किस प्रकार का है, उसकी क्या आवश्यकतायें हैं, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है और शिक्षण उद्देश्यों के द्वारा इनकी पूर्ति का प्रयास भी किया जाता है। वर्तमान समाज में शिक्षा को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है जिसका परिणाम हम अनिवार्य और निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा के रूप में देख सकते हैं।

8. व्यक्ति की व्यक्तिगत उन्नति से लेकर राष्ट्रीय उन्नति हेतु — समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति की व्यक्तिगत उन्नति से लेकर राष्ट्रीय उन्नति का कार्य सम्पन्न किया जाता प्रत्येक व्यक्ति की कुछ जन्मजात प्रवृतियाँ होती हैं जिनको समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा निखारा है और सकारात्मक प्रवृत्तियों को सकारात्मकता की ओर मोड़ा जाता है । व्यक्ति अपनी योग्यताओं का समुचित प्रयोग और प्रकाशन समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा करता है । जब किसी राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत उन्नति होगी तो निश्चित ही वह राष्ट्र की उन्नति के पथ पर अग्रसर होगा । इस प्रकार व्यक्ति की व्यक्तिगत उन्नति से लेकर राष्ट्र की राष्ट्रीय उन्नति के लिए समाजीकरण अत्यावश्यक है ।

9. सुरक्षात्मक वातावरण हेतु — सुरक्षात्मक वातावरण का सृजन करने के लिए समाजीकरण की प्रक्रिया अत्यावश्यक है। समाज में व्यक्ति को आर्थिक, सामाजिक, सांवेगिक तथा मनोवैज्ञानिक इत्यादि सुरक्षायें मिलती हैं। इन सुरक्षाओं को प्रदान कर समाज हमें आगे बढ़ने की ओर प्रेरित करता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा लोग परस्पर मिलकर कार्य करते हैं, जिससे कार्य-क्षेत्र में सुरक्षात्मक वातावरण आता । सुरक्षात्मक वातावरण का सृजन इसी प्रकार लिंगीय विषयों में भी देखने को मिलता है।

10. प्रेरणा, पुरस्कार तथा आत्म-प्रकाशन हेतु — समाजीकरण की प्रक्रिया में व्यक्ति को आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है, अच्छा कार्य करने पर प्रशंसा और पुरस्कार मिलता है। समाजीकरण की आवश्यकता इसलिए भी अधिक है क्योंकि इसके द्वारा व्यक्तियों को अपने भीतर निहित भावों के आत्म-प्रकाशन के अवसर प्राप्त होते हैं। आत्म-प्रकाशन की आवश्यकता प्रत्येक मनुष्य को होती है। बिना इसके मनुष्य मनुष्य नहीं, पशु सदृश हो जायेगा और यह अवसर समाजीकरण के सिद्धान्तों की प्रक्रिया द्वारा प्राप्त होता है।

2. लिंग भेद (Gender Difference) :

लिंग द्योतक है स्त्री, पुरुष या इन दोनों के गुणों से सम्पन्न तृतीय लिंग (Third Gender) का लैंगिक भेद-भाव आज एक समस्या के रूप में हमारे समाज के सम्मुख उपस्थित है लैंगिक भेद-भावों के कुछ कारण निम्न प्रकार हैं-:

  1. अशिक्षा,
  2. रूढ़ियाँ,
  3. सामाजिक कुप्रथायें एवं रीति-रिवाज,
  4. जागरूकता का अभाव,
  5. व्यावसायिक शिक्षा की कमी,
  6. अपव्यय तथा अवरोधन,
  7. निर्विद्यालयीकरण,
  8. सामाजिक असुरक्षा,
  9. वंश-परम्परा का पालन,
  10. पितृसत्तात्मकता एवं पुरुष प्रधान समाज ।

लैंगिक भेद-भावों के कारण समाज, राष्ट्र तथा विश्व को इसका खामियाजा निम्न प्रकार भुगतना पड़ रहा है—

1. अर्थव्यवस्था की क्षति द्वारा ।

2. मानवीय संसाधनों का उपयोग न हो पाना ।

3. सभ्य समाज तथा सुयोग्य संततियों का निर्माण न हो पाना ।

4. अशिक्षा का फैलाव ।

5. बेरोजगारी की स्थिति ।

6. सार्वभौमिक शिक्षा के मार्ग में अवरोध ।

7. सांस्कृतिक हस्तान्तरण में बाधा ।

8. राजनैतिक क्षेत्र में महिलाओं की अनदेखी के कारण महिलायें आगे नहीं आ पा रही हैं और महिलाओं की उन्नति के लिए कार्यक्रमों का निर्माण नहीं हो पा रहा है।

9. लैंगिक भेद-भावों के कारण स्वास्थ्य इत्यादि के क्षेत्र में भी नई-नई चुनौतियाँ उभर रही हैं।

10. लैंगिक भेद-भावों के कारण असन्तोष का जन्म हो रहा है जिससे सामाजिक व्यवस्था को भय है ।

11. लैंगिक भेद-भावों के कारण प्रजातान्त्रिक मूल्यों की स्थापना नहीं हो रही है

12. लैंगिक भेद-भावों के कारण राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता पर खतरा उत्पन्न हो रहा है।

13. लिंग भेद के कारण स्त्री-पुरुष अनुपात में भारी अन्तर हो रहा है जिससे भविष्य में गम्भीर दुष्परिणाम प्राप्त होंगे।

14. लिंग-भेद के कारण समाज में स्त्रियों के प्रति अनादर और असुरक्षा का वातावरण सृजित हो रहा है ।

15. नैतिक तथा चारित्रिक मूल्यों का ह्रास।

16. लिंग भेद के कारण ही कन्या भ्रूण हत्या, कन्या शिशु तथा बाल विवाह, दहेज कुप्रथा इत्यादि हमारे समाज को कलंकित करने वाली कुप्रथायें चल रही हैं ।

17. कानून तथा व्यवस्था को चुनौती लिंग भेद के कारण मिल रही है और इन घटनाओं पर अंकुश लगाने में सरकारें अपनी शक्ति और समय का उपयोग करती हैं, जिससे विकास के कार्य बाधित होते हैं।

18. लिंग भेद के कारण स्त्री को लेकर राजनैतिक दल राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति करते हैं।

19. लिंग भेद के कारण ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ की हमारी संस्कृति पर खतरा मंडरा रहा है।

20. लिंग भेद के कारण समाजीकरण की प्रक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

लिंग भेद के द्वारा हमारे समाज को जो क्षति हो रही है वह शीघ्र ही इसकी समाप्ति पर करनी चाहिए। लिंग भेद की रोक-थाम के लिए भारतीय समाज में जागरूकता आ रही है। सरकारें भी इस विषय के प्रति गम्भीर हैं। लिंग भेद की रोक-थाम हेतु किये गये कार्य निम्न प्रकार हैं-

  1. सम्पत्ति, समानता, स्वतन्त्रता इत्यादि अधिकार प्रदान कर ।
  2. न्याय तथा कानून की दृष्टि में समान ।
  3. शिक्षा के अवसरों में समानता प्रदान कर ।
  4. शैक्षिक उन्नति तथा विद्यालयीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष योजनायें।
  5. पृथक् विद्यालयों की स्थापना ।
  6. लिंग भेद को कम करने के लिए सख्त कानून ।
  7. रुचियों तथा आवश्यकतानुरूप पाठ्यक्रम ।
  8. प्रौढ़ शिक्षा का प्रसारण ।
  9. छात्रवृत्तियों की व्यवस्था ।
  10. सामाजिक कुप्रथाओं की समाप्ति के प्रयास ।
  11. लिंग भेद की समाप्ति हेतु चुनौतीपूर्ण लिंग व्यवसाय तथा रोजगार के अवसरों का सृजन।
  12. जनसंचार के साधनों के द्वारा जागरूकता लाना ।
  13. चुनौतीपूर्ण लिंग की स्थिति में उन्नयन करने वालों को प्रोत्साहन प्रदान कर ।
  14. सामाजिक कुप्रथाओं तथा रूढ़ियों के मिथकों को तोड़ना ।
  15. लिंग भेद को कम करने के लिए बेटी के जन्म को प्रोत्साहित करना ।
  16. लिंग जाँच इत्यादि हेतु कानून ।

इस प्रकार लिंग भेद भारतीय समाज को दीमक की भाँति नुकसान पहुँचा रहा है घर, बाहर, विद्यालय, कार्य स्थल इत्यादि स्थलों पर इस प्रकार के भेद-भावों से मनोवैज्ञानिक तथा सांवेगिक असुरक्षा का भाव आ जाता है जो सर्वांगीण विकास से बाधक है। लिंग भेद के कारण चुनौतीपूर्ण लिंग के समाजीकरण की प्रक्रिया तथा इनकी शिक्षा की प्रक्रिया का सम्पादन सुचारु रूप से नहीं हो पाता है। ऐसे में समाज को इनकी योग्यताओं, प्रतिभा तथा शक्ति का लाभ नहीं मिल पाता है, जबकि मानवीय संसाधनों का किसी भी देश की उन्नति में अप्रतिम योगदान होता है। वर्तमान में शिक्षा एक ऐसा हथियार है जिससे लिंग भेद में कमी लाकर समाजीकरण की प्रक्रिया में वृद्धि की जा सकती है। वर्तमान शिक्षा में सह-सम्बन्ध (Co-relation) के सिद्धान्त पर बल दिया जा रहा है। अतः ठीक इसी प्रकार लिंगों में भी सह-सम्बन्ध स्थापित करने की आवश्यकता है।

3. निर्माणात्मक सिद्धान्त (Structural Theory) – लिंग तथा शिक्षा के निर्माणात्मक सिद्धान्त के अन्तर्गत लिंगीय अवधारणाओं का निर्माण, भारतीय समाज में उनकी उपयोगिता, शिक्षा की आवश्यकता तथा महत्त्व भारत में समाज, लिंग और शिक्षा की अवधारणा के निर्माण में क्या भूमिका निभाता है, यह आता है। समाज है तभी शिक्षा है और शिक्षा प्राप्त करने वाले लिंगों का अस्तित्व है। लिंग तथा शिक्षा-सिद्धान्तों का निर्माण समाज के क्रियान्वयन के लिए अत्यावश्यक है।

लिंग तथा शिक्षा के सिद्धान्त लिंग तथा शिक्षा का अस्तित्व मात्र से है। निर्माणात्मक सिद्धान्त लिंग तथा शिक्षा से सम्बन्धित अवधारणा है। इन सिद्धान्तों के निर्माण में योगदान देने वाले तत्त्वों आदि का अध्ययन किया जाता है। निर्माणात्मक सिद्धान्त की भारतीय सन्दर्भ में उपयोगिता निम्न प्रकार है-

  1. निर्माणात्मक सिद्धान्त के द्वारा किसी वस्तु का स्वरूप स्पष्ट होता है। अतः इसके द्वारा लिंग तथा शिक्षा से सम्बन्धित अवधारणा का स्पष्टीकरण होता है ।
  2. निर्माणात्मक सिद्धान्त के द्वारा ही लिंग तथा शिक्षा से सम्बन्धित समस्याओं को मूल में लाया जा सकता है।
  3. लिंग विभेदों के कारण और उनकी पहचान तथा रोकथाम के लिए निर्माणात्मक सिद्धान्तों की आवश्यकता होती है।
  4. निर्माणात्मक सिद्धान्तों का अध्ययन करने से समाज में लिंगीय मुद्दों का महत्त्व तथा शिक्षा के महत्त्व आदि से परिचय प्राप्त किया जा सकता है ।
  5. निर्माणात्मक सिद्धान्त लिंगीय समानता और शिक्षा के उद्देश्यों के विषय में ज्ञान प्रदान करते हैं।
  6. निर्माणात्मक सिद्धान्त लिंग तथा शिक्षा विषयी विचारों के आत्म-तत्व होते हैं।
  7. निर्माणात्मक सिद्धान्तों के द्वारा लिंग तथा शिक्षा का समाज में क्या स्थान है और इनके प्रति समाज का क्या दृष्टिकोण है, ज्ञात होता है ।

इस प्रकार निर्माणात्मक सिद्धान्तों के द्वारा हमें समाज और राष्ट्र की इच्छाओं, आकांक्षाओं और झुकावों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। लिंग का मुद्दा प्रमुख है और शिक्षा की उपयोगिता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, जिसके कारण सार्वभौमिक शिक्षा की अवधारणा का विकास किया जा रहा है। इससे ज्ञात होता है कि वर्तमान में भारतीय प्रजातन्त्र लिंग भेदों की समाप्ति के लिए और एक समग्र विकास को प्रदान करने वाली शिक्षा के निर्माण के लिए कितना कृत-संकल्पित है ।

4. विखण्डनात्मक सिद्धान्त (Deconstuctive Theory) – विखण्डनात्मक सिद्धान्त में विखण्डित करके अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है। जैसे भारतीय समाज को यदि हम विखण्डित रूप से अध्ययन करें तो यह व्यक्तियों, जातियों, धर्मों इत्यादि में बँटा हुआ हैं।

लिंग के आधार पर भी सम्पूर्ण विश्व बँटा है। स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिए भले ही समान अधिकार और स्वतन्त्रता की बात की जा रही हो, परन्तु प्रकृति ने भी स्त्री तथा पुरुष के मध्य भेद-भाव किया है। विखण्डनात्मक सिद्धान्त के द्वारा हमारा समाज कई प्रकार से बँटा हुआ है । विखण्डनात्मक सिद्धान्त का भारतीय सन्दर्भ में महत्त्व अग्र प्रकार है-

  1. विखण्डनात्मक सिद्धान्त के द्वारा भारतीय समाज स्तरीकृत किया गया है।
  2. इस सिद्धान्त के द्वारा ही विपरीत लिंग एक-दूसरे के पूरक होते हैं।
  3. विखण्डनात्मक सिद्धान्त के द्वारा शिक्षा की सूक्ष्मता का ज्ञान प्राप्त होता है।
  4. विखण्डनात्मक सिद्धान्त का महत्त्व एकता में अनेकता के लिए है।
  5. यह सिद्धान्त अपनी प्रकृति के विपरीत समन्वय पर बल देता है।
  6. विखण्डनात्मक सिद्धान्त के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत क्षमताओं का उपयोग किया जाता है।
  7. विखण्डनात्मक सिद्धान्त शिक्षा के लिए अत्यावश्यक है ।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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