लिंग विभेद सिद्धान्त | Gender difference theory
समाजीकरण सिद्धांतकार लड़कियों के लड़कों से अन्तर या अलग होने को समस्या मानते हैं तथा समझते हैं कि इसे खत्म किया जाना आवश्यक है जबकि जेण्डर-अन्तर सिद्धांतकार विश्वास करते हैं कि स्त्रीत्व के गुणों को पहचाना जाना चाहिए तथा महत्व प्रदान किया जाना चाहिए। लड़कियों को लड़की की तरह से समाजीकरण करने के बजाय लड़कियों से सम्बन्धित गुणों को पुनर्प्रतिष्ठि करने पर अन्तर सिद्धांतकार जोर देते हैं। वे देखते हैं कि लड़कियों की शिक्षा से सम्बन्धित समस्याएँ अधिकतर स्कूल की संस्कृति तथा स्त्रीत्व की संस्कृति के मध्य असामंजस्य होने से होती है। इन सम्बन्धित मूल्यों को सार्वजनिक क्षेत्र से जुड़ी प्रवृत्तियों जैसे तार्किकता, प्रतिस्पर्धा, विजय, उपभोक्तावाद तथा रेडिकल व्यक्तिवाद के द्वारा ठोस पहुँची जाती है। क्योंकि ये सिद्धांतकार मानते हैं कि लड़कियों से सम्बन्धित ज्ञान उनकी स्वास्थ्य तथा मानसिक कुशलता के लिए बहुत जरूरी है तथा उनके अनुसार ‘स्कूल’ ऐसा स्थान होना चाहिए जहाँ लड़कियाँ अपने तरीके से दुनियाँ को जान सके । उनका तर्क है लड़कियों को ‘जेन्डर-निरपेक्ष’ नहीं ‘बल्कि’ ‘जेन्डर-संवेदी’ शिक्षा की आवश्यकता है।
जेन्डर-संवेदी शिक्षा क्या है व कैसे दी जाए ? इस पर जेन्डर अन्तर सिद्धान्तकारों में मतैक्य नहीं है।
कुछ के अनुसार ‘महिलाओं के ज्ञान हासिल करने के तरीके’ (Women’s way of knowing) पुरुषों के ज्ञान हासिल करने के तरीकों से न तो निम्न है और न ही उच्च । अक्सर स्त्री व पुरुष समान निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए भिन्न-भिन्न तरीके अपनाते हैं। इन अलग-अलग अधिगम के तरीकों (approaches) को कक्षा में शामिल किया जाना चाहिए।
दूसरे सिद्धान्तकार जिनमें गिलिगन तथा उनके साथी सम्मिलित हैं वे मानते हैं कि मुख्य बिन्दु, लड़कियों के सीखने के तरीके (learning styles) से सम्बन्धित न होकर, वे स्वयं के बारे में तथा जो ज्ञान वे निर्मित करती है, उसके बारे में उनके विश्वास से सम्बन्धित है। अर्थात् लड़कियाँ जब भी कुछ अभिव्यक्त करती हैं या सीखती है जतो वे दूसरों की नाराजगी, नापसंदगी या पसंदगी से प्रभावित करती हैं तथा इस प्रकार वे दूसरों की नजरों से ‘अच्छी’ बने रहने का दबाव झेलती हैं तथा आत्मविश्वास खोज बैठती हैं। इस प्रकार यह सिद्धान्तकार महसूस करते हैं कि लड़कियों की समस्या पाठ्यक्रमीय न होकर अन्तर सम्बन्धित अधिक होती है। अतः लड़कियों में स्वर्ग के बारे में आत्मविश्वास भरने के लिए महिला रोड मॉडल का होना बहुत जरूरी हो जाता है। कैरोल गिलिंगन ने अपनी पुस्तक ‘इन ए डिफरेंट वॉयस ‘ में उन्होंने उल्लेख किया है कि चूँकि महिलाएँ प्रकृति के नजदीक होती हैं तथा दुलार, पालन-पोषण और संवेदनशीलता के संदर्भ में प्रकृति के गुणों की वाहक हैं अतः नारीवादियों को इन गुणों को स्वीकार करके इन्हें प्रतिष्ठा देनी चाहिए। उन्होंने एक मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण का प्रयोग करते हुए तर्क दिया कि प्रारंभिक दुलार देने वाली इकाई एक स्त्री (माँ) ही होती हैं इसलिए स्त्री व पुरुष जिस प्रक्रिया से होकर व्यस्कता तक पहुँचते हैं। वह भिन्न होती है। लड़के वयस्कता की तरफ बढ़ते हुए अपनी माँ से भिन्नता की दिशा में विकसित होते हैं, जबकि लड़कियाँ अपनी पहचान, अपनी माँ के संदर्भ में ही देखती हैं। गिलिगिन का तर्क है, इसका नतीजा यह होता है कि दुनिया के साथ स्त्रियों का जुड़ने का तरीका ज्यादा मनोगत, भावनात्मक तथा सम्बन्धपरक होता है जबकि पुरुषों का तरीका ज्यादा वस्तुपरक या भौतिक होता है क्योंकि वयस्क होते हुए लड़के महसूस करते हैं कि वे माँ से ‘भन्न’ हैं जबकि लड़कियाँ महसूस करती हैं कि वे ‘वैसी’ ही हैं जैसी माँ। स्त्रियाँ दूसरों के साथ संबंधों में स्वयं को देखती हैं जबकि पुरुष स्वयं को अलग देखते हैं। उदाहरण स्वरूप, पुरुष व स्त्री मित्रताओं के स्वरूप में भिन्नता को इस तथ्य के आधार पर समझा जा सकता है।
वे आगे कहती हैं कि स्त्रियों व पुरुषों द्वारा नैतिक निर्णय लेने के तरीकों में भी इसलिए फर्क होता है। उसका निष्कर्ष है कि महिलाएँ सही व गलत के तार्किक कारणों से उतना प्रभावित नहीं होती जितना वह प्यार, सहानुभूति, चिंता या संवेदनशीलता जैसे कारकों से होती हैं। दूसरी तरफ, पुरुषों का नैतिक निर्णय लेने का तरीका इस बात पर आधारित होता है कि समाज किसे सही और किसे गलत मानता है। इसी आधार पर गिलिगिन कहती हैं कि तार्किकता, स्वायत व न्याय में पुरुष दृष्टि से प्राप्त किए गए अनुभवों से ही निकले हुए मूल्य हैं तथा वहाँ नारी के अनुभव अदृश्य हैं तथा इस फर्क को यदि कोई नहीं चिह्नित करता है, या मानता है तो इसका अर्थ है पितृसत्ता का मान्यताओं को मान लेना कि स्त्रीत्व मूल्यहीन है ।
नेल नडिंग्स तथा जेन रोलान्ड मार्टिन का मानना है कि लड़के तथा लड़कियों की स्कूलिंग में हमें अधिक संवेदनाओं, अभिवृत्तियों तथा संबंधों को महत्त्व देना चाहिए जिससे देखभाल की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है तथा इस प्रवृत्ति को केवल लड़कियों तक सीमित न रखकर पूरे समाज की आवश्यकता के रूप में देखते हैं। वे कहते हैं कि यदि दोनों लिंग के बच्चों को स्वयं को संबंधपरक दृष्टिकोण से बड़ा किया जाए तो ऐसे में पारिवारिक पाठ्यक्रम जिसमें वस्तुपरकता तथा सूक्ष्म ज्ञान पर बल दिया जाता है का स्थान एक कहने को स्त्रीत्व आधारित पाठ्यक्रम से लेगा जो समाज के भले के लिए ही होगा इस प्रकार स्कूलों को एक ‘तर्क-आधारित, अनुशासित पाठ्यक्रम’ के स्थान पर देखभाल के केन्द्र के रूप में संगठित होना चाहिए जो ‘शरीर, मन तथा आत्मा’ को एकीकरण कर पाए ।
कई प्रकार से अन्तर सिद्धान्तकारों के मतों में अन्तर देखने को मिलता है। बात पर सभी एकमत हैं कि लड़कियों की स्कूलिंग की सफलता लड़कों के अनुकरण से परन्तु इस ही संभव हो सकती है । पुरुषत्व के गुणों को सार्वभौमिक मूल्यों के रूप में अपनाने के बजाय, स्कूलों को महिलाओं के संबंधपरक मूल्यों को अपनाना चाहिए तथा इन्हें भी उतना ही महत्व देना चाहिए जितना की पुरुषों से जुड़ी तार्किक मूल्यों को ।
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