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लिंग की समानता की शिक्षा में जाति की भूमिका का वर्णन कीजिए ।
चुनौतीपूर्ण लिंग की शिक्षा में जाति की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे सामाजिक ताने-बाने में जातियों का प्रभाव अत्यधिक है । जातिगत नियमों तथा विशेषताओं के अनुरूप ही उसके समस्त नागरिक कार्य करते हैं । यदि जातियाँ चाह लें तो वे चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता की शिक्षा को एक नवीन आयाम प्रदान कर सकती है। जाति की चुनौतीपूर्ण लिंग की शिक्षा तथा समानता में भूमिका का आकलन निम्न प्रकार किया जा सकता है-
1. जातियों को उदार दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जिससे वे स्त्रियों को आगे बढ़ने में सहायता प्रदान कर सकें।
2. जातियाँ अपने व्यापक दृष्टिकोण तथा गतिशीलता के द्वारा आधुनिकीकरण तथा खुलेपन को अपना रही हैं जिससे स्त्री शिक्षा में वृद्धि हो रही हैं।
3. जातियों द्वारा समय-समय पर आरक्षण तथा महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की माँग की जाती है जिससे भी चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता को सुनिश्चित किया जा रहा है।
4. जातियों के अपने विशिष्ट संस्कार और मान्यताएँ होती हैं, जिनमें वे किसी भी प्रकार का अतिक्रमण स्वीकार नहीं करती हैं, परन्तु इसका एक लाभ चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता के लिए यह है कि इससे इनमें परस्पर स्त्रियों के प्रति आदर का भाव विकसित होता है।
5. जातियाँ स्वयं सहायता समूहों तथा महिला मण्डलों को अपनी स्थिति सुधारने के लिए अपना रही हैं, जिससे चुनौतीपूर्ण लिंगों की समानता सुनिश्चित हो रही है
6. कुछ जातियों में मातृ-प्रधानता है। ऐसे में ये जातियाँ अन्य जातियों के समक्ष स्त्रियों की सशक्त छवि को प्रस्तुत कर चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं
7. प्रौढ़ शिक्षा को सफल बनाने में योगदान देकर ।
8. जातियाँ संगठित होकर सामाजिक कुप्रथाओं, जैसे— नशा, बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, कन्या शिशु हत्या इत्यादि कुरीतियों का विरोध करती हैं जिससे चुनौतीपूर्ण लिंग की स्थिति में सुधार होता है ।
9. प्रत्येक जाति वर्तमान में सशक्त बनना चाहती है और ऐसे में वह नारियों को भी सशक्त बनाने हेतु प्रयासरत है, क्योंकि सशक्त नारियाँ किसी जाति की प्रगतिशीलता और उन्नति की बोधक हैं ।
10. जातियाँ आपस में बातचीत और तमाम अवसरों पर मेल-मिलाप के द्वारा जागरूकता का प्रसार करती हैं। सरकारी योजनाओं जो महिलाओं की शिक्षा और सशक्तीकरण के लिए चलायी जा रही हैं, इन सूचनाओं से जागरूक कराते हैं तथा व्यक्तिगत तौर पर चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता के लिए क्या प्रयास किये जा सकते हैं, इनसे अवगत कराने का कार्य जातियों के द्वारा किया जाता है ।
11. चुनौतीपूर्ण लिंग की शिक्षा हेतु सरकार तभी समुचित योजना निर्माण और क्रियान्वयन कर सकेगी जब जातियाँ सही सूचनाएँ प्रदान करेंगी। इस कार्य में विभिन्न जातियों द्वारा प्रदान की गयी सही सूचनाएँ चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता के लिए वरदान स्वरूप हैं।
12. विभिन्न जातियों में शिक्षित वर्ग संवैधानिक प्रावधानों और आर्थिक इत्यादि विषयों में पुरुषों के ही समान महिलाओं के अधिकारों से अन्यों को अवगत कराते हैं तो उनका भी दृष्टिकोण परिवर्तित होता है ।
13. शिक्षित तथा अनुभवी व्यक्ति महिलाओं की अशिक्षा के कुप्रभावों और हानियों को जानते हैं, अतः वे अपनी जाति को जागरूक करते हैं।
14. जाति विशेष के व्यक्ति तथा शिक्षक और उच्च पदों पर आसीन होने वालों में जब स्त्रियाँ होती हैं तो ही जातियों में चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता का कार्य प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सम्पन्न होता है ।
15. जाति को एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखना चाहिए न कि ऊँच-नीच के भाव के रूप में ग्रहण करना चाहिए। वर्तमान में शिक्षित लोग अपनी जातियों से इस भावना का प्रसार कर रहे हैं जिससे जातियों में व्याप्त संकीर्णता और लैंगिक असमानता दूर हो रही है।
16. वर्तमान भौतिकवादी युग में प्रत्येक जाति का यही उद्देश्य होता है कि वह कैसे उन्नति करे और उन्नति की इस दौड़ में स्त्रियाँ भी पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं।
17. जातियों के द्वारा सार्वजनिक सम्मेलनों, समारोहों तथा धार्मिक, सांस्कृतिक इत्यादि कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है जहाँ स्त्रियों को अवसर प्रदान किये जाने से लोगों के रूढ़िवादी विचारों में परिवर्तन आता है।
18. अपनी सांस्कृतिक, शैक्षणिक तथा आर्थिक उन्नति के लिए विभिन्न जातियाँ संगठित होकर कार्य कर रही हैं जिससे चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता सुनिश्चित होती है ।
19. वर्तमान में प्राय: सभी जातियों के अपने संगठन हैं और इन संगठनों में पुरुषों के ही समान महिलाओं की भी भागीदारी है जिससे अन्य महिलाओं के उत्थान के प्रति जातियों को प्रेरणा प्राप्त होती है ।
20. कुछ जातियाँ ऐसी हैं जो महिलाओं को विलास और भोग की सामग्री मात्र नहीं समझती हैं। अतः ऐसी जातियों की महिलाएँ अन्य जातियों और उनकी महिलाओं को प्रेरित करती हैं।
21. महिलाओं में हीन भावना और जो मनोवैज्ञानिक भय व्याप्त है, बाहर की दुनिया के प्रति, बाहरी कार्यों के प्रति, उसे दूर करने में जातियाँ प्रभावी भूमिका निभाती हैं।
22. जातियाँ प्रशासन, कानून और सरकार पर महिलाओं की उन्नत दशा के प्रति दबाव का वातावरण सृजित करती हैं।
23. जातियों के गणमान्य व्यक्तियों द्वारा अन्य जातियों से स्त्रियों से सम्बन्धित विषयों पर वार्तालाप करके सहयोग स्थापित कर चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता की शिक्षा हेतु प्रयास किये जाते हैं।
24. जातियाँ पुरुष प्रधानता, पितृ सत्तात्मकता इत्यादि के मिथकों को तोड़ रही हैं, जिससे चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता हेतु शिक्षा को प्रभावी उपकरण के रूप में देखा जा रहा है ।
25. जातियों द्वारा उनकी जातीय व्यवस्था में व्याप्त दोषों पर विचार-विमर्श कर उसे गतिशील बनाया जा रहा है जिसके कारण चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता सुनिश्चित हो रही है ।
चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता की शिक्षा में जाति की प्रभाविता हेतु सुझाव
जाति को चुनौतीपूर्ण लिंग की शिक्षा का और सशक्त तथा प्रभावी अभिकरण बनाने हेतु निम्नलिखित सुझाव हैं-
1. समानता — जातियों को चाहिए कि वह इस बात को हृदय से अनुभूत करें कि जब उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है तो उन्हें कैसा महसूस होता है और यदि वे स्वयं ही अपनी जाति की या अन्य जातियों की स्त्रियों के साथ समानता का व्यवहार नहीं करेंगे तो उन्हें कैसा अनुभूत होगा और इस प्रकार तो वे कुण्ठा की शिकार हो जायेंगी, क्योंकि इन असमानतापूर्ण परिस्थतियों में कोई भी जाति अपने अस्तित्व की रक्षा अधिक दिनों तक नहीं कर पायेगी। संविधान निर्माताओं ने इस विषय में दूर-दृष्टि का परिचय देते हुए जाति, धर्म, लिंग, स्थान आदि किसी भी आधार पर किये जाने वाले भेद-भाव को असंवैधानिक करार दिया है । इतना ही नहीं, संविधान स्त्रियों को चाहे वे किसी भी जाति की हों, समानता प्रदान करता है। ऐसे में जातियों को चाहिए कि वे संविधान के इस प्रावधान को मूर्त रूप प्रदान करने में सहायता प्रदान करें।
2. न्याय— स्त्रियों की शोषण से रक्षा करने हेतु उन्हें न्याय पाने का अधिकार प्रदान किया गया है। अतः ऐसी जातियाँ जो मिथ्याभिमान और दिखावे के कारण स्त्रियों का शोषण करते हैं, वे न्याय की प्रणाली को अंगीकार करें जिससे चुनौतीपूर्ण लिंग को सामाजिक-आर्थिक ही नहीं, शैक्षिक न्याय भी प्राप्त हो सके ।
3. स्वतन्त्रता – चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता की शिक्षा हेतु संविधान में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में इन्हें पुरुषों की ही भाँति स्वतन्त्रता प्रदान की गई है तथा कुछ विषयों में तो संविधान स्त्रियों के अधिकारों के लिए अधिक कटिवद्ध तथा नमनीयता अपनाता है। संविधान निर्माताओं का मानना था कि सभी प्रकार की स्वतन्त्रता का उपभोग करने से स्त्रियाँ ही नहीं, समाज भी आगे बढ़ेगा। अतः वर्तमान में जातियों को यह समझना चाहिए कि यदि वे स्वयं को वर्तमान में भी प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण बनाना चाहती हैं तो उन्हें स्त्रियों की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करनी होगी। शैक्षिक स्वतन्त्रता के द्वारा स्त्रियाँ न तो किसी परिवार, समाज और जाति पर बोझ रहेंगी, अपितु वे उनकी उन्नति में योगदान देंगी।
4. उदारता- जातियों को वर्तमान में संकीर्ण भावना छोड़कर उदारता और व्यापकता का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए क्योंकि हम जाति, लिंग, स्थान और धर्म के नाम पर जब भी अनुदार और कट्टर हुए हैं तो उसका लाभ किसी बाह्य ताकत ने उठाया है जिसका दुष्परिणाम हम लम्बी दासता झेलकर चुका चुके हैं। उदारता जब जातियों में होगी तो वे स्त्रियों के हितों के लिए भी उदार होंगे जिससे चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता के लिए शिक्षा में गति आयेगी ।
5. कर्म का महात्म्य – पिछड़ी जातियों में अगड़ी जातियों की अपेक्षा श्रमजनित कार्यों और कर्म का माहात्म्य है, परन्तु उच्च जातियों में स्त्रियाँ और पुरुष शारीरिक श्रम करना अच्छा नहीं समझते हैं, जिस कारण उनकी दिखावे भरी जिन्दगी भीतर से खोखली होती जा रही । कर्म की अप्रधानता के कारण स्त्रियों को अनुपयोगी तथा बोझ समझा जाने लगता है और उनकी स्थिति में गिरावट आ रही है। जिन जातियों में स्त्री-पुरुष दोनों मिल-जुलकर कार्य करते हैं वहाँ असमानता का भाव न्यून है।
6. आर्थिक विकास एवं गतिशीलता पर बल — सभी जातियों को परस्पर विद्वेष फैलाने तथा असहयोग करने की अपेक्षा अपनी जातिगत उन्नति, आर्थिक विकास और गतिशीलता पर देना चाहिए। प्रत्येक यदि आर्थिक रूप से सक्षम हो जायेगी तो लैंगिक भेद-भावों में कमी आयेगी, गरीबी तथा बेरोजगारी घटेगी। आर्थिक गतिशीलता के कारण जातियाँ पुरातन, अन्ध-विश्वासों और रूढ़ियों को त्यागकर नवीन प्रतिमानों को आत्मसात् करेंगी जिसमें पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाते हुए स्त्रियाँ खड़ी होंगी। इस प्रकार चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता के लिए शिक्षा हेतु जातियों को आर्थिक विकास तथा गतिशीलता पर बल देना चाहिए।
7. सामाजिक सुव्यवस्था — सामाजिक व्यवस्था तभी है जब उसमें स्त्रियाँ हैं । यदि स्त्रियाँ न हों तो परिवार, जाति इत्यादि की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । अतः यह यक्ष प्रश्न है कि स्त्रियों की अनुपस्थिति में क्या सृष्टिक्रम चल पायेगा ? स्त्रीविहीन समाज का संचालन किस प्रकार होगा ? निश्चित ही स्त्रियाँ समाज और सृष्टि की धुरी हैं । अतः उनको समुचित स्थान और सम्मान प्रदान करना प्रत्येक जाति का प्राथमिक कर्तव्य और नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। जातिगत व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए स्त्रियों की समानता हेतु शिक्षा की अत्यधिक आवश्यकता है ।
8. रीति-रिवाज तथा अन्ध – विश्वासों में संशोधन-जातियों में प्रचलित ऐसे रीति-रिवाज जिनसे स्त्रियों की गरिमा और आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचती है, उनका प्रबल विरोध करना चाहिए। कुछ रीति-रिवाजों ने अन्ध-विश्वासों का रूप धारण कर लिया है। अतः जातियों को चाहिए कि वे मिल-बैठकर उन अन्ध-विश्वासों से बाहर निकलने का रास्ता जिससे स्त्रियाँ ही नहीं, अपितु ये जातियाँ भी विकास की मुख्य धारा से जुड़ सकेंगे।
9. शिक्षा और जागरूकता का प्रसार- जातियों को चाहिए कि वे स्त्रियों की समानता सुनिश्चित करने के लिए ग्रामीण तथा शहरी दोनों ही स्तरों पर शिक्षा और जागरूकता का व्यापक प्रचार-प्रसार करें। शिक्षा के प्रसार हेतु प्रौढ़ शिक्षा तथा अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक स्तर की शिक्षा न केवल बालकों, अपितु बालिकाओं के लिए भी उपलब्ध कराना । जागरूकता के अन्तर्गत स्त्रियों तथा उनसे सम्बन्धित मुद्दों के प्रति जागरूकता का प्रसार जातियों को करना चाहिए, जिसके लिए जनसंचार के साधनों का सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार शिक्षा तथा जागरूकता के प्रसार द्वारा जातियाँ चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता में प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं।
10. मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक सुरक्षात्मक वातावरण- स्त्रियाँ दबी मानसिकता तथा असुरक्षा की शिकार हो गयी हैं जिसके कारण वे प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के बिना स्वयं को असहाय करती हैं। स्त्रियों को इस मनोविज्ञान से निकालकर सामाजिक सुरक्षा का वातावरण बनाना जातियों के लिए चुनौतीपूर्ण कार्य है। परन्तु चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता हेतु शिक्षा तब तक साकार नहीं हो पायेगी जब तक उन्हें मनोवैज्ञानिक सुरक्षा, आत्म-विश्वास और सामाजिक सुरक्षा आश्वस्त न कर दी जाये।
11. सहयोग तथा समझदारी की नीति- वर्तमान में कोई भी देश, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, उसे अन्य देशों से सम्बन्ध बनाकर रखना पड़ता है, क्योंकि भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के युग में प्रत्येक देश परस्पर आश्रित हैं। इस प्रकार वर्तमान में विश्व एकता, शान्ति तथा अवबोध की स्थापना पर बल दिया जा रहा है। ऐसी परिस्थितियों में जातियों को भी आपसी भेद-भाव को भुलाकर परस्पर सहयोग तथा समझदारी की नीति का पालन करना चाहिए। सहयोग तथा समझदारी के द्वारा सभी जातियाँ ही नहीं, उनकी समस्याएँ और अभाव भी एक-दूसरे से साझा होंगे, जिनका हल निकालना सम्भव हो सकेगा । सहयोग और समझदारी जब अन्य जातियों के व्यक्तियों के मध्य स्थापित होगी तो जातियों मैं स्त्री-पुरुषों के मध्य सहयोगात्मक भावना का विकास होने से उनकी समानता और समानता के लिए शिक्षा की डगर आसान होगी ।
12. कानून तथा व्यवस्था का सम्मान — भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में सभी की स्वतन्त्रता तथा न्याय की व्यवस्था सुनिश्चित की गयी है, परन्तु कुछ जातियाँ संविधान कृत प्रावधानों की अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अनदेखी करती है जिसके परिणामस्वरूप कानून तथा व्यवस्था बाधित होती है और लोगों का इससे विश्वास उठता है। ऐसा करने वाली जातियाँ कभी भी उन्नति के पथ पर अग्रसर नहीं हो पाती हैं। अतः सभी जातियों को चाहिए कि वे कानून तथा व्यवस्था का सम्मान और उसकी स्थापना में सहयोग करें। कानून ने स्त्रियों को सभी क्षेत्रों में जो स्वतन्त्रता प्रदान की है उसमें जातियों को सहयोग करके उनकी शैक्षिक तथा सामाजिक आदि समानताओं की स्थापना में योगदान प्रदान करना चाहिए।
इस प्रकार जाति जो भारतीय सामाजिक व्यवस्था का मुख्य अंग है वह समाज पर नियंत्रण स्थापित करने का कार्य करती है। यदि जातियाँ सशक्त भूमिका का निर्वहन करें तो चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता की शिक्षा में तीव्रता आयेगी तथा जातियों के मध्य अन्तर्द्वन्द्व की समाप्ति होकर सहयोग तथा उन्नति का वातावरण बनेगा।
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