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आत्म-विकास की दिशा में मूल्यों एवं योग की भूमिका

आत्म-विकास की दिशा में मूल्यों एवं योग की भूमिका
आत्म-विकास की दिशा में मूल्यों एवं योग की भूमिका
आत्म-विकास की दिशा में मूल्यों एवं योग की भूमिका का वर्णन कीजिये ।

आत्म-विकास आत्म-विकास किशोर मन में वांछित मानवीय गुणों जैसे ईमानदारी, सहनशीलता, न्याय, क्षमा, धैर्य, भागीदारी, मानवता, आत्म ‘नियंत्रण, संतुष्टि, पर्यावरण के प्रति प्रेम व अच्छे नागरिक बनने जैसे मूल्यों की शिक्षा देना व उनके प्रति सुग्राही बनाना है। स्वामी विवेकानंद, एक देशभक्त ईश्वर दूत, ने कहा था कि शिक्षा जानकारी की वह मात्रा नहीं है जो मस्तिष्क में ठूंस दी जाए, और जो निष्क्रिय रूप से वहां पड़ी रहे। अपितु यह विचारों का आत्मसात्क रण है। उन्होंने यह भी कहा था कि शिक्षा से हमें वह चरित्र मिलना चाहिए जो हमें प्रेम, आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता, निर्भयता, करुणा व बुद्ध, ईसा मसीह या रामकृष्ण की भांति सेवा की भावना से युक्त  एक सर्वश्रेष्ठ मानव के रूप में विकसित कर सके। स्वामीजी के लिए शिक्षा का अर्थ मूल प्रवृत्ति अवस्था से बौद्धिक स्तर तक का रूपांतरण है। इस प्रकार वह हमारी शिक्षा वैदिक मूल्यों के सार का पक्ष ले रहे थे जो आत्मविकास की ओर ले जाती है। किसी व्यक्ति की पहचान उसके चरित्र से होती है। इस विश्व में जीवधारी के रूप में मनुष्य की एक अलग पहचान उसके अपने चरित्र के आधार पर ही होती है। अपनी जिन चारित्रिक विषेशताओं का वह प्रतिनिधित्व करता है उसके आधार पर प्रत्येक व्यक्ति अनोखा होता है। एक प्रकार से चरित्र को उसकी ‘आत्मा’ कहा जा सकता है।

आत्मा अनेक रूपों में प्रकट हो सकती है। कोई व्यक्ति सौम्य व संकोची हो सकता है या कोई अहंकारी व रौबदार हो सकता है। कोई अच्छे कामों के प्रति समर्पित हो सकता है या कोई संकीर्ण स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों की धुन में लगा हो सकता है। हम जैसे भी चरित्र के धनी हैं, उसके प्रेरकतत्व केवल मानवीय गुणों या मानवीय सीमाओं तक ही सीमित नहीं होने चाहिए। अपितु इन सभी से परे हमारे चरित्र का लक्ष्य उस देवत्व की अभिव्यक्ति या अनुभूति होना चाहिए, जो वस्तुतः हम सब में प्रच्छन्न रूप से पहले से ही विद्यमान है। जीवन का लक्ष्य इस दैवीय गुण को पोषित करना, अपने सामान्य मानवीय अस्तित्व को ईश्वरीय बनाना है, जिसका हम प्रतिनिधित्व करते हैं।

इस देवत्व को प्राप्त करने के लिए हम प्रयास कैसे करें?

मनुष्य तीन भिन्न तत्वो का सम्मिश्रण है- पार्रिवकता, मानवीयता व देवत्व। इस श्रृंखला में मानवीयता की कड़ी को देवत्व के अधिकाधिक समीप ले जाने के लिए दोषहीन बनाना होगा। इसके लिए प्राथमिक उपाय व्यक्ति की पाशविक प्रवृत्तियों को रोकने की दिशा में होना चाहिए। परिणाम होगा सच्चे मानवीय चरित्र की उपलब्धि। इस स्थिति से फिर देवत्व की ओर जाने का प्रारंभ हो सकता है। प्राचीन ऋषियों ने देवत्व प्राप्त करने के अनेक मार्ग बताए हैं:-

  1. सच्चाई, जिसकी अग्नि-परीक्षा हमें सत्यकाम की कथा में मिलती है।
  2. विलासिताओं के प्राचुर्य के विपरीत साधारण जीवन का आदर्श
  3. प्रसन्नता व परोपकार की भावना।
  4. बड़े व विशिष्ट व्यक्तियों के लिए सहज सम्मान।
  5. ईमानदारी, सत्यनिष्ठा व नैतिक संकोच ।
  6. स्वयं को दुर्भावना, लोभ, ईर्ष्या, शत्रुता व हिंसा से बचाए रखने की योग्यता ।
  7. स्वयं को अनावश्यक अतिमानिता से बचाए रखने की शालीनता ।

व्यक्ति के अंदर यह समझने की परम बुद्धि होनी चाहिए कि उसके पास जो कुछ है वह सब नष्ट हो सकता है। वह निर्धन निराश्रय भी हो सकता है किंतु बहुत कुछ पुनः प्राप्त भी कर सकता है। किंतु यह बात उसके चरित्र के बारे में नहीं कही जा सकती। जब किसी व्यक्ति का चरित्र नष्ट हो जाता है, उसे कभी भी पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता।

राजा विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि ने तीन असाधारण पुस्तकें लिखी हैं-नीतिशतकम्, वैराग्यशतकम् व श्रृंगारशतकम्। नीतिशतकम् में उन्होनें मानव चरित्र पर मर्मांतक टिप्पणियां की हैं। लगभग 64 श्लोकों में उन्होंने मानव चरित्र के सभी आयामों का वर्णन किया है व मुख्यतः मनुष्य को तीन श्रेणियों में बांटा है, वे हैं अच्छे व भले जो ईमानदारीपूर्ण व नियमित जीवन जीते हैं व अधिकतर समय परोपकार में लगे रहते हैं, दूसरे समूह में वे व्यक्ति हैं जो आत्मकेन्द्रित, अपना सुख चाहने वाले, बाध्य होने पर ही दूसरों की भलाई करने वाले, जो कानून का पालन स्वभाव से नहीं अपितु दंड के भय से करते हैं, तीसरे वर्ग सर्वाधिक घातक है जिन्हें मनुष्य के रूप में राक्षस कहते हैं अत्यंत स्वार्थी, समस्त मूल्यों से पूर्णतः रहित, दुष्ट व असहनशील, दूसरों की कीमत पर भी अपने लिए हर वस्तु हड़पने के लिए तैयार होते है।

आत्म-विकास में मूल्यों की भूमिका व कार्य

प्रत्येक नागरिक का व्यवहार इतना अनुकूलित व समंजित होना चाहए कि उसके परिणामस्वरूप अधिकतम सामूहिक हित उनका ध्येय हो। राज्य व समाज के बारे में प्राचीन भारतीय चिंतन का यह केन्द्रीय विषय रहा है। स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि समाज का प्रत्येक सदस्य दुर्बल मानसिकता का त्याग करे, मानसिक व नैतिक शक्ति प्राप्त करे, देश की एकता के लिए काम करे, क्षुद्र स्वार्थो से ऊपर उठे, अंधविश्वासों को समाप्त करे व सर्वोपरि महिलाओं का अत्यधिक सम्मान करे। आत्म-विकास में मूल्यों की भूमिका तथा इसके प्रकार्य निम्नलिखित हैं।

1. राष्ट्रीय भावना का विकास- हम भारतीयों को पता होना चाहिए कि इस देश में जन्म लेना कितने सौभाग्य की बात है। इंडिया, जो भारत है, का विशिष्ट व्युत्पत्ति जन्य अर्थ है, मन व बुद्धि के प्रकाश की भूमि ।

2. अपने स्वार्थ के लिए किए जाने वाले कार्य आत्मबोध के अनुरूप होने चाहिए। इनका संतुलन सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ भी होना चाहिए।

3. एक उत्तरदायी व्यक्ति को हर प्रकार के काम को सम्मान देना सीखना चाहिए। भले ही वह कितना ही दुष्कर अथवा निम्न आय का हो। किया गया कोई भी कार्य दूसरो की सेवा के समान ही है। अतः किसी भी कार्य को हेय दृष्टि से नहीं देखना चाहिए व अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध मानकर उससे बचना नहीं चाहिए।

4. किसी भी समाज का विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक उसके सदस्य गंभीरतापूर्वक धन-संपत्ति कमाने में न लगा हो- यह संपत्ति ठोस भी हो सकती है और सूक्ष्म भी, यह भौतिक भी हो सकती और सांस्कृतिक भी। साथ ही, उन्हें वेतन अथवा लाभ के रूप में जो प्राप्त हो उसका एक भाग सामाजिक कार्यों में लगाया जाना चाहिए। करों का भुगतान वैधानिक उत्तरदायित्व है। किंतु इसके अतिरिक्त समस्त जीवधारियों के प्रति करुणा के साथ पर्यावरण व जैविक विविधता का संरक्षण भी आवश्यक है।

5. व्यक्ति को अपनी अनिवार्य भौतिक आवश्यकताओं व अनावश्यक संपन्नता में अंतर करना सीखना चाहिए। इस अनुचित संचय से किसी का पेट नहीं भरता बल्कि उसके लोभ की सीमा अवश्य बढ़ जाती है। साथ ही, अन्य व्यक्तियों की सम्पन्नता के प्रति ईर्ष्या रखने से कुछ अच्छा नहीं होता, इससे केवल दुःख ही बढ़ते हैं।

6. सर्वोपरि, एक अच्छे नागरिक को एक अच्छा मनुष्य होना चाहिए। अच्छाई की विशिष्टताएं मनुष्य में अंतर्निहित हैं। उन्हें बाहर लाने की आवश्यकता है व जितना उन्हें उभारा जाएगा, मनुष्य में देवत्व के लक्षण उतने ही अधिक परिलक्षित होने लगेंगे। ऐसे गुणों से युक्त समाज जिसके नागरिक ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ हो, जिसमें सामाजिक मूल्यों जैसे बुजुर्गों व महिलाओं का सम्मान, हिंसा का परित्याग, और प्रत्येक के लिए न्याय की मांग करना, इत्यादि का पालन किया जाता है, एक आदर्श समाज होने का दावा कर सकता है। अन्य व्यक्तियों द्वारा किए गए बुरे काम, विशेषकर जब वे हमारे हितों को चोट पहुंचाते हों, के प्रति क्रोध की स्वाभाविक अभिव्यक्ति से ज्यादा हमें और कुछ नहीं चाहिए। किंतु सच्ची नैतिकता की अपेक्षा है कि हम अन्य व्यक्तियों व स्वयं में स्वार्थपूर्ण भेदन करें। हमें अपने अंदर व बाहर की बुराइयों के प्रति समान रूप से सजग रहना चाहिए। यह हमारी पार्रिवक प्रकृति से नहीं अपितु उच्चतर प्रकृति से आता है। इस उच्चतर प्रकृति का निर्माण करना ही मूल्य आधारित शिक्षा का उद्देश्य है।

7. हमें अपने बाह्य व्यवहार को समंजित करने वाले कानूनों व उन नियमों में अंतर करना सीखना चाहिए जो हमारी आत्मा की शुद्धि के लिए बने हैं। यहां मन व बुद्धि एवं इच्छा व तर्क के बीच हमारा सत्त संपर्क सामने आता है। इससे एक उच्चतर तर्कवृत्ति उत्पन्न होती है जो मनुष्य को आत्म-परिपूर्णता की ओर ले जाती है।

आत्म-विकास की दिशा में योग की भूमिका

वस्तुतः योग का अंतिम लक्ष्य हमारी आत्मा का विकास है। देवत्व के सभी गुण बीज रूप में हम सभी में विद्यमान हैं और योग (विषेशत: अष्टांग योग वह सीढ़ी है जिस के द्वारा हम आत्मानुभूति की अपनी यात्रा के अंतिम छोर तक पहुंच सकते है। अष्टांग योग के माध्यम से महर्षि पतंजलि का उद्देश्य व्यक्ति को अपनी आत्मा को प्राप्त करने के लिए तैयार करना है। सर्वप्रथम इसके लिए पंतजलि ने ‘यम’ और ‘नियम’ का प्रतिपादन किया जो क्रमश: “सामाजिक अनुपालन” व “वैयक्तिक निग्रह” कहलाते है और जो स्वानुशासन प्राप्ति के लिए अग्रसर रहते है। ये पांच यम है अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, तथा पांच नियम है: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर – प्रणिधान ।

आत्म-नियंत्रण दैवी-‘ प्रकृति संपन्न व्यक्तियों का गुण है, इसके फलस्वरूप अन्य ऐसे ही अनेक गुणों जैसे निर्भयता, निर्मल हृदय, दान, संयम, स्पष्टवादिता, अहिंसा, सत्य, क्रोध से मुक्ति, त्याग, प्रशांति, छिद्रान्वेषण से विरक्ति, करुणा, लोभ से मुक्ति, विनम्रता, दृढता, शक्ति, क्षमा, धैर्य, तथा दुर्भाव एवं अहम्मन्यता से मुक्ति आदि को विकसित करने में सहायक है। साथ ही हठ, गर्व, क्रोध, रूखापन व अज्ञान जैसी बुराइयों को; जो दानवीय प्रवृत्तियुक्त व्यक्तियों के लक्षण हैं; भी दूर करता है।

समाज में रहने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को एक सीमा तक आत्मानुशासन का अभ्यास करना ही होता है। व्यक्ति अपनी अनुभूतियों व मन को जितना नियंत्रित कर सकें, उतना अच्छा है। मनुष्य का जीवन परिपूर्णता की दिशा में एक यात्रा है। मनुष्य मूलत: एक पशु है और उसमें समस्त पार्रिवक प्रवृत्तियां हैं। किंतु वह एक बुद्धिमान् पशु भी है। अपनी तर्कशक्ति के माध्यम से वह स्वयं को सुधार कर मानव बन सकता है। इसके पश्चात् प्रयास होगा देवत्व तक उठने का व उस स्तर से परम चेतना अर्थात् अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने का।

सांसारिक क्षेत्रों से लेकर आध्यात्मिकता की प्राप्ति तक स्वानुशासन सफलता की कुंजी है। इससे व्यक्ति में वह शक्ति आ जाती है जो हमें हमारे कर्तव्यों के निर्वहन में सभी बाधाओं पर काबू पाने के लिए हमें सक्षम बनाती है और हम अपने मनोवर्गों, आवेशों, भावनाओं से विचलित नहीं होते और अपने उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकते है। ये बाधाएं प्रायः हमारे क्रोध, लोभ, सत्ता, स्थिति के रूप में हो सकती है। स्वानुशासन हम में वह शक्ति और सक्षमता उत्पन्न करता है जिससे हम करणीय और अकरणीय में भेद कर सकें और करणीय का ही पालन करें। व्यक्ति का यह गुण योग मनोविज्ञान में विज्ञानमय कोष कहलाता है, जिसमें उच्च स्तर की बुद्धि और विवेक निहित है।

अनुभूति-संयम का अर्थ है अनुभूतियों व ज्ञानेन्द्रियों पर उनके विषयों के संदर्भ में संयम। हमारी इंद्रियां संसारोन्मुख भोग की वस्तुओं की ओर जाती हैं। हमारी इंद्रियों के पांच विषय हैं – दृष्टि, स्वाद, ध्वनि, गंध व स्पर्श व्यक्ति को अपनी अनुभूतियों व ज्ञानेन्द्रियों को नियंत्रित करना चाहिए। अशांत इंद्रियां बुद्धिमान् व्यक्तियों तक को भटका देती हैं। केवल वही व्यक्ति, जिनकी इंद्रिया नियंत्रण में हैं, स्थाई बुद्धि प्राप्त कर पाते हैं (वशे हि यस्येद्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता, गीता 11,61 ) ।

इंद्रिय-विषयों का सत्त चिंतन मोह, वस्तु के प्रति एक विशेष प्रकार का लगाव, उत्पन्न करता है। इस लगाव से उन वस्तुओं के लिए लालसा जन्म लेती है। किंतु ये सभी लालसाएं पूरी नहीं होती। जब कोई विघ्न आता है तो लालसा से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध के कारण मनुष्य अनुचित व क्रूर कृत्य करता है। क्रोध मोह का अनुगमन करता है। व्यक्ति विवेक अर्थात् अंतर करने की शक्ति भूल जाता है व मानवीय लक्ष्य के अनुपयुक्त हो जाता है। गीता मानसिक संयम के दो उपाय बताती है अभ्यास एवं वैराग्य।

अभ्यास कुशल बनाता है। प्रत्येक क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए नियमित अभ्यास आवश्यक है। अभ्यास दीर्घावधि तक होना चाहिए, अविच्छिन्न होना चाहिए, ध्यानपूर्वक होना चाहिए, पूर्ण विश्वास के साथ होना चाहिए। आसन व प्राणायाम जैसे यौगिक अभ्यास मन पर नियंत्रण के लिए हैं। ऐसी कई मुद्राएं हैं जिनमें व्यक्ति लंबे समय तक निश्चल बैठ सकता है।

प्राणशक्ति की गति पर नियंत्रण प्राणायाम, नियमित एवं व्यवस्थित श्वास से, प्राप्त किया जा सकता है। अपनी श्वासों पर नियंत्रण के सरल मार्ग से प्राणशक्ति पर नियंत्रण का आरंभ किया जा सकता है।

योग के लिए एक संतुलित व अनुशासित जीवन पद्धति आवश्यक है। बहुत अधिक भोजन या बिल्कुल भोजन न करना, अथवा अत्यधिक निद्रा जैसी अतियां योगाभ्यासों में बाधक हैं। व्यावहारिक व व्यावसायिक जीवन में व आध्यात्मिक जीवन में तो और भी, संयम आवश्यक है – भोजन व मनोरंजन में संयम, सुषुप्ति व जाग्रति में संयम, कार्यों में संतुलित दृष्टिकोण, आदि।

योग के तीन चरण हैं :

  1. प्रथम, किसी वस्तु पर अपने मन को एकाग्र करना,
  2. जब मन सशक्त हो जाए व अधिक चंचल न रहे, तो यह ध्यान है,
  3. उच्चतर स्थिति है संपूर्ण तल्लीनता की स्थिति जो अंतिम सत्य के साक्षात्कार की ओर ले जाती है।

मन को किसी वस्तु पर केन्द्रित करने के बाद यदि वह स्वेच्छा से वहां से न हटे, इस खतरे से बचने के लिए श्री कृष्ण गीता में अभ्यास व अनासक्ति के सम्मिश्रण की बात करते हैं (6,35)। यही पातंजल योगसूत्र भी कहता है (1,12)। व्यक्ति जितना संयमशील होगा उसके लिए मन एकाग्र करना उतना ही सरल होगा कम भावावेश होगा तो हम अधिक अच्छा कार्य कर सकेंगे। हम जितना शांत होंगे हमारे लिए उतना ही अच्छा होगा। जब हम अपनी भावनाओं को उच्छृंखल हो जाने देते हैं तो शक्ति का अधिक अपव्यय होता है, हमारी तत्रिकाएं अधिक थकती हैं व हम बहुत कम कार्य कर पाते हैं। यह तो शांत, क्षमाशील, स्थिरचित्त, अच्छी तरह से संतुलित मन ही है जो अधिकतम कार्य कर पाता है।

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Anjali Yadav

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