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शिक्षा के अभिकरणों की विवचेना करें।
बालक के जीवन में विद्यालय का महत्त्व अत्यधिक है। जिस प्रकार मनुष्य रोटी, कपड़ा और मकान की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना जीवित नहीं रह सकता है, उसी प्रकार शिक्षा के बिना वह सभ्य समाज का अंग नहीं बन सकता है। शिक्षा प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक कई प्रकार से प्रदान की जाती रही है, जिसको हम तालिका द्वारा स्पष्ट रूप से देख और समझ सकते हैं। दृष्टव्य है-
शिक्षा का अभिकरण (Agencies of Education)
- औपचारिक अभिकरण
- अनौपचारिक अभिकरण
- अंशौपचारिक अभिकरण
- व्यावसायिक अभिकरण
- अव्यावसायिक अभिकरण
1. औपचारिक अभिकरण- औपचारिक अभिकरण की कुछ विशेषताएँ निम्न प्रकार होती हैं-
विशेषताएँ
- नियन्त्रित वातावरण
- शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से ही स्थापित
- समय-सीमा का निर्धारण पाठ्यक्रम समाप्ति हेतु
- निश्चित पाठ्यक्रम तथा पूर्व-निश्चित उद्देश्य
- कृत्रिम वातावरण
- अनुशासित वातावरण
- कार्य के द्वारा सीखने हेतु वातावरण का सृजन
- सामाजिक तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर बल
- समानता की भावना पर आधारित
इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, पुस्तकालयों इत्यादि को हम औपचारिक अभिकरण (साधन) के अन्तर्गत सम्मिलित कर सकते हैं।
2. अनौचारिक अभिकरण— शिक्षा के अनौपचारिक अभिकरणों का अस्तित्व आदिकाल से है तथा रेमॉण्ट के अनुसार “शिक्षा आजीवन विकास की प्रक्रिया है” अक्षरशः सत्य प्रतीत होती है क्योंकि अनौपचारिक रूप से व्यक्ति प्रकृति, परिस्थिति तथा किसी भी व्यक्ति द्वारा शिक्षा प्राप्त करते रहते हैं। इनकी कुछ विशेषताएँ अग्र प्रकार हैं-
विशेषताएँ
- स्वाभाविक वातावरण
- कोई पाठ्यक्रम का न होना
- सीखने के लिए किसी समय तथा दिनचर्या का निश्चित न होना
- सिखाने वाले व्यक्ति का निश्चित न होना
- समयावधि का निर्धारण न होना
- दण्ड तथा शुल्क की व्यवस्था न होना
अनौपचारिक शिक्षा के अभिकरणों में परिवार, समाज तथा समुदाय आदि आते हैं, जहाँ बालक बिना किसी दिनचर्या, पाठ्यक्रम, , कॉपी-किताब के स्वयं देखता है, अनुभव करता है, अवलोकन करता है और सीखता है। विद्यालयी का बालक के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान हैं, परन्तु परिवार, समाज तथा समुदाय की वास्तविक परिस्थितियों में बालक जो शिक्षा प्राप्त करता है वह व्यावहारिक और जीवनोपयोगी होती है इसी कारण परिवार को प्रथम पाठशाला तथा माता को प्रथम शिक्षिका कहा गया है।
3. अंशौपचारिक अभिकरण- अंशौपचारिक अभिकरण वे अभिकरण होते हैं, जो औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों ही प्रकार के गुणों से सम्पन्न होते हैं,
जैसे-
औपचारिक अभिकरण + अनौपचारिक अभिकरण = अंशौपचारिक अभिकरण
अंशौपचारिक अभिकरणों की विशेषताएँ निम्नवत् हैं-
विशेषताएँ
- पूर्णतः न तो कृत्रिम वातावरण होता है और न ही मुक्त ।
- पाठ्यक्रम होता है, परन्तु उसकी समाप्ति और परीक्षा आदि के नियमों में शिथिलता होती है ।
- अंशौपचारिक शिक्षा में औपचारिक वातावरण की तरह पूर्णतः न तो अनुशासन होता है और न ही मुक्त वातावरण ।
- मनोरंजनात्मक ढंग से ज्ञान का प्रस्तुतीकरण किया जाता है।
अंशौपचारिक अभिकरणों की वर्तमान शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका है ।
4. व्यावसायिक अभिकरण – ब्राउन महोदय ने शिक्षा के व्यावसायिक अभिकरणों के अन्तर्गत नृत्य-गृह, टेलीविजन, चलचित्र, नाट्यशाला, समाचार-पत्र तथा प्रेस इत्यादि को सम्मिलित किया है, क्योंकि ये अभिकरण व्यवसाय की दृष्टि से स्थापित किये जाते हैं, परन्तु इनसे प्रसारित शिक्षाप्रद बातों, कार्यक्रमों से जनसमूह शिक्षित तथा जागरूक होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में रेडियो, समाचार पत्रों द्वारा जागरूकता लायी जाती है तथा शहरी क्षेत्रों में तो इन अभिकरणों की पहुँच घर-घर तक है जिससे विस्तृत जनसमुदाय शिक्षित और जागरूक हो रहा है।
5. अव्यावसायिक अभिकरण— ब्राउन महोदय इन अभिकरणों के अन्तर्गत उनको सम्मिलित करते हैं, जिनका उद्देश्य व्यावसायिक न होकर समाज की भलाई, कल्याण तथा जागरूकता का प्रसार करना है। ऐसे अभिकरणों के अन्तर्गत रेडक्रॉस, स्काउटिंग एवं गर्ल्स गाइडिंग, एन. एस. एस. इत्यादि आते हैं ।
इस प्रकार हमने देखा है कि शिक्षा में प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सभी प्रकार के अभिकरणों का योगदान है। इन अभिकरणों के द्वारा कहीं, नियमित वातावरण में निश्चित आयु वर्ग तो कहीं समाज के प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्रदान की जाती है। इनके द्वारा मुख्य रूप से प्रदान की जाने वाली शिक्षा के अन्तर्गत निम्न शिक्षाएँ आती हैं-
(i) सामाजिक जागरूकता ।
(ii) स्वास्थ्य जागरूकता ।
(iii) शिक्षा के प्रति जागरूकता ।
(iv) बालक तथा बालिकाओं में भेदपूर्ण व्यवहारों को नियन्त्रित करना ।
(v) व्यावहारिक तथा जीवनोपयोगी ज्ञान ।
(vi) प्रेम तथा ऐक्य की भावना का विकास ।
(vii) सांस्कृतिक संक्रमण तथा आदान-प्रदान ।
(viii) प्रत्येक स्तर पर असमानता तथा भेद-भाव की समाप्ति करना ।
(ix) अच्छे नागरिक के अधिकारों तथा कर्त्तव्यों से अवगत कराना ।
(x) राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों से परिचय ।
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में विद्यालयों की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण है, यह हम सभी जानते हैं। विद्यालय में नियन्त्रित कक्षीय वातावरण के सृजन द्वारा जो शिक्षा बालकों को प्रदान की जाती है वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनका मार्ग-निर्देशन करती है। वर्तमान में संयुक्त परिवारों का स्थान एकाकी परिवारों ने ग्रहण कर लिया है, जिस कारण से परिवार की भूमिका बालकों की शिक्षा में कमजोर हुई है। फिर भी इतना तो अवश्य ही है कि परिवार में आज भी बालक व्यवहार ज्ञान सीखते हैं। विद्यालयी स्तर पर पहले जहाँ बच्चों को आठ वर्ष के उपरान्त उपनयन संस्कार के द्वारा विद्यार्जन हेतु भेजा जाता था वहीं आज भौतिकीकरण के युग में तीन वर्ष से ही बच्चों की पूर्व-प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है तथा प्राथमिक शिक्षा पाँच वर्ष की आयु पूर्ण कर लेने के पश्चात् । प्राचीन काल में पठन-पाठन का कार्य प्राकृतिक वातावरण में होता था जिन्हें गुरुकुल कहा जाता था । गुरुकुल की विशेषताएँ निम्न प्रकार की होती थी—
(i) प्राकृतिक तथा सुरम्य वातावरण ।
(ii) सादा जीवन, उच्च विचार पर आधारित ।
(iii) गुरु-शिष्य प्रगाढ़ सम्बन्ध ।
(iv) शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ दैनिक क्रियाओं का संचालन ।
(v) ज्ञान के आत्मसातीकरण पर बल ।
(vi) चारित्रिक तथा नैतिक उत्थान पर बल।
(vii) भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार का ज्ञान प्रदान किया जाता था, परन्तु अन्ततः आध्यात्मिक ज्ञान ही सर्वोपरि था ।
(viii) सांस्कृतिक संरक्षण तथा हस्तान्तरण की प्रवृत्ति का विकास ।
(ix) अनुशासन पर बल ।
(x) स्वाध्याय की प्रवृत्ति का विकास ।
(xi) सत्यान्वेषण तथा जिज्ञासा का विकास ।
इस प्रकार प्राचीन कालीन विद्यालयों में जिन्हें गुरुकुल, घटिका इत्यादि नामों से जाना जाता था, उनमें ज्ञान की धारा अबाध रूप से प्रवाहित होती रहती थी ।
“विधि सम्मत तथा शास्त्रोक्त विद्यालयों की दिनचर्या आदर्श जीवन की दिनचर्या होती थी, जिसमें वे अध्ययन के साथ-साथ दैनिक क्रिया-कलापों और गुरु की आज्ञा का पालन भी करते थे। तत्कालीन अध्ययन पद्धति में सह-शिक्षा (Co-education) का प्रचलन था । बालक तथा बालिकाओं को क्रमशः ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी कड़ा जाता था और 25 वर्ष की आयु तक विद्याध्ययन किया जाता था, तत्पश्चात् गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट हुआ जाता था, परन्तु ज्ञान-पिपासु लोग आजीवन ज्ञान की खोज में लगे रहते थे। तत्कालीन विद्यालयी तथा कक्षीय वैचारिक आदान-प्रदान अर्थात् अन्तःक्रिया के केन्द्र में गुरु होते थे। उस समय छात्र- केन्द्रित शिक्षा नहीं थी, क्योंकि गुरु, शिष्य का आध्यात्मिक पिता होता था और समझा जाता था कि गुरु जो भी करेगा वह शिष्य के हित तथा उसके आत्मिक उन्नयन हेतु होगा । उस समय की विद्यालयी दिनचर्या तथा कक्षीय अन्तःक्रिया के मुख्य तत्त्व निम्न प्रकार हैं-
(i) बालक तथा बालिकाओं में अभेदपूर्ण व्यवहार ।
(ii) कक्षीय अन्तःक्रिया की स्थापना में गुरु सभी शिष्यों को समाविष्ट करता था ।
(iii) दिनचर्या (दैनिक कार्यक्रम — Routine) का प्रारम्भ प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त से होता था ।
(iv) प्रभावात्मक अनुशासन के द्वारा गुरु शिष्यों के हृदय पर अपना आदर्श स्थापित कर अनुशासन स्थापित करता था ।
(v) बालिकाओं को कुछ विशिष्ट कलाओं तथा भावी जीवन के कर्त्तव्यों के निर्वहन की शिक्षा भी प्रदान की जाती थी ।
(vi) चारित्रिक तथा नैतिक उत्थान सर्वोपरि था।
आधुनिक विद्यालयों में कक्षाओं का स्वरूप भी बदल गया है। वर्तमान में विद्यालयी तथा कक्षीय वातावरण की विशिष्टताएँ निम्न प्रकार हैं-
(i) बाल-केन्द्रित शिक्षा ।
(ii) शिक्षा तथा समाज के मध्य प्रगाढ़ सम्बन्ध ।
(iii) स्वानुशासन तथा सामाजिक अनुशासन पर बल ।
(iv) बालक तथा बालिकाओं के मध्य भेद-भाव नहीं ।
(v) स्वतन्त्रता, समानता तथा न्याय पर आधारित ।
(vi) वास्तविक परिस्थितियों में सीखने पर प्रोत्साहन ।
(vii) स्वानुभवों के अर्जन पर बल ।
(viii) आध्यात्मिक विषयों की अपेक्षा भौतिक विषयों की प्रधानता ।
(ix) आधुनिक तकनीकी से लैस कक्षाएँ ।
(x) सर्वांगीण विकास पर बल ।
वर्तमान विद्यालयों की दिनचर्या तथा कक्षीय अन्तःक्रिया में बालक तथा बालिकाओं की अनुशासनात्मक प्रक्रिया में विशिष्टता के परिणामस्वरूप कुछ समस्याएँ भी उत्पन्न हो रही हैं, जो निम्न प्रकार हैं-
1. कक्षीय अन्तःक्रिया में बाधा।
2. अनुशासनहीनता ।
3. विद्यालयी दिनचर्या का नीरस होना ।
4. दिनचर्या में असमान वितरण की समस्या ।
5. मनोवैज्ञानिक कारकों की अवहेलना ।
6. सामूहिक क्रिया-कलापों की अनदेखी ।
1. कक्षीय अन्तःक्रिया में बाधा- बालक तथा बालिकाओं की शारीरिक संरचना और बनावट में अन्तर होने के साथ-साथ उनकी सोच तथा रुचियों में भी अन्तर होता है और जब शिक्षक शिक्षण करता है तो उसके सम्मुख कक्षीय अन्तःक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है
2. अनुशासनहीनता- अनुशासनहीनता की समस्या वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में चरम पर है और ऐसे में बालकों द्वारा बालिकाओं से अभद्र व्यवहार, छींटाकशी, शाब्दिक दुर्व्यवहार की घटनाएँ नित्य-प्रतिदिन हो रही हैं। बालक-बालिकाओं की कुछ विशिष्टताएँ और उनके अनुरूप सोच होती है जो कक्षीय अन्तःक्रिया तथा दैनिक दिनचर्या को प्रभावित करती है।
3. विद्यालयी दिनचर्या का नीरस होना—विद्यालयी दिनचर्या पर समुचित ध्यान न देने से यह नीरस हो जाती है कभी-कभी बालक तथा बालिकाओं की विशिष्टताओं को दृष्टिगत रखते हुए दिनचर्या का निर्माण और उसका सुरुचिपूर्ण क्रियान्वयन करना दुष्कर हो जाता है।
4. दिनचर्या में असमान वितरण की समस्या — विद्यालयी परिवेश कुछ निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम को नित्य-दिनचर्या के द्वारा क्रियान्वित करता है, परन्तु बालक तथा बालिकाओं की विशिष्टता और विषयों को दृष्टिगत रखते हुए असमान वितरण हो जाता है जिससे कक्षीय अन्तःक्रिया की प्रभाविता में कमी आ जाती है तथा विद्यालय अपने निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति नहीं कर पाता ।
5. मनोवैज्ञानिक कारकों की अवहेलना – वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में बाल मनोविज्ञान का महत्त्व शिक्षा के प्रायः सभी क्षेत्रों में देखा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप-
(i) शिक्षण विधियाँ
(ii) अनुशासन
(iii) पाठ्यक्रम
(iv) दिनचर्या
(v) मूल्यांकन एवं मापन
(vi) पाठ्य सहगामी क्रियाएँ
(vii) व्यक्तिगत विभिन्नता
(viii) निर्देशन एवं परामर्श
इस प्रकार विद्यालयी परिवेश और विशेषतः कक्षा में शिक्षक जब छात्रों से अन्तःक्रिया स्थापित करना तो प्रत्येक बालक की रुचियों तथा मनोविज्ञान को दृष्टिगत रखकर शिक्षा प्रदान किया जाना सम्भव नहीं है। ऐसे में बालक और बालिकाओं की विशिष्ट रुचियों का ध्यान रखना समस्याजनक तथा कठिन होता है।
6. सामूहिक क्रिया-कलापों की अनदेखी – कक्षा में अन्तःक्रिया के अतिरिक्त बालक और बालिकाओं के मध्य परस्पर सहयोग की भावना का विकास करने के लिए समय-समय पर सामूहिक क्रिया-कलाप प्रदान करने चाहिए, जिससे उनमें आपसी समझ और सहयोग की प्रवृत्ति विकसित हो। इस कार्य से कक्षीय अन्तःक्रिया में वृद्धि होकर सहायता मिलेगी, परन्तु प्रायः यह देखा जाता है कि इस प्रकार के कार्यों को कराने में रुचि नहीं दिखती और यदि ऐसे कार्यों का आयोजन किया भी जाता है तो केवल खाना पूर्ति ही की जाती है, जिससे बालक तथा बालिकाएँ एक-दूसरे के विशिष्ट गुणों से परिचय नहीं प्राप्त कर पाते हैं और कक्षीय अन्तःक्रिया तथा अनुशासनात्मक कार्यवाही पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
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