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समाज, समाजीकरण में लिंग की भूमिका हेतु परिवार के कार्य एवं उत्तरदायित्व का वर्णन करें ।
समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका हेतु परिवार के कार्य एवं उत्तरदायित्व- समाज तथा समाजीकरण में लिंगीय आधार पर क्या कोई भेद-भाव पाया जाता है तो इसका एक ही उत्तर है— हाँ। समाज में प्रायः बालकों की अपेक्षा बालिकाओं के साथ भेद-भावपूर्ण व्यवहार किया जाता है जिसके कारण उन्हें बाह्य क्रिया-कलापों, लोगों से मिलने-जुलने के कम ही अवसर प्रदान किये जाते हैं, जिससे उनकी समाजीकरण की गति मन्द होती है । समाज, समाजीकरण में लिंग की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि समाज और उसका ताना-बाना स्त्री-पुरुषों के इर्द-गिर्द ही बना हुआ है । लिंग की भूमिका को परिवार चाहे तो समाज और समाजीकरण की प्रक्रिया में सशक्त बना सकता है। प्रत्येक प्रकार के भेद-भाव और असमानता की नींव परिवार से ही प्रारम्भ होती है। परिवार में यदि लिंगीय भेद-भाव के आधार पर बालिकाओं को बाहर निकलने, सामाजिक क्रिया-कलापों में भाग लेने की मनाही, शिक्षा ग्रहण करने इत्यादि से यदि रोका जायेगा तो उसकी समाजीकरण की प्रक्रिया बालकों से कम होगी। समाज और समाजीकरण का आधार परिवार ही है परिवार की मान्यतायें, आदर्श और मूल्य जैसे होंगे वैसा ही समाज का स्वरूप और उसके सदस्यों का समाजीकरण होगा। परिवार ऐसा क्या करे कि समाज और समाजीकरण की प्रक्रिया में लैंगिक भेद-भाव न्यून हो जाये। इस समस्या का समाधान निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत दिया जा सकता है-
1. सर्वांगीण विकास का कार्य- परिवार में बालक-बालिकाओं के सर्वांगीण विकास का कार्य सम्पन्न किया जाता है। सर्वांगीण विकास के अन्तर्गत सामाजिक, शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, आध्यात्मिक इत्यादि का समन्वयकारी विकास आता परिवारों । कुछ में बालकों के सर्वांगीण विकास का कार्य तो सम्पन्न किया जाता है, परन्तु बालिकाओं के विकास की अवहेलना कर दी जाती है। ऐसी परिस्थितियों में लैंगिक विभेदों का जन्म होता है और बालिकाओं का समाजीकरण बालकों की अपेक्षा कम हो जाता है, जिसका दुष्परिणाम उन्हें आजीवन भुगतान पड़ता है और हमारे समाज को भी ।
2. समानतापूर्ण व्यवहार — सामाजिकता की प्रथम पाठशाला परिवार ही है। यदि परिवार में लिंग के आधार पर भेद-भाव कर बालकों की अपेक्षा बालिकाओं को उपेक्षित किया जाता रहे तो समाज में उनको कभी भी समान स्थान की प्राप्ति नहीं हो पाती है। बालिकाओं को परिवार में बालकों के समान भोजन, वस्त्र, खेलने, पढ़ने के लिए तथा सोने के लिए उपयुक्त स्थान, सामाजिक कार्यों में भाग लेने तथा समान रूप से शैक्षिक अवसरों की प्राप्ति करानी चाहिए । इस पर यदि भेद-भाव किया गया तो असमानता का जो अंकुर परिवार अपने बच्चों में डालता है वह भविष्य में विष-वृक्ष के रूप में समाज को नुकसान पहुँचाता है ।
3. शिक्षा के समान अवसर – यदि भोजन और वस्त्र थोड़ा कम ही मिले पर शिक्षा में बालिकाओं की समानता परिवार सुनिश्चित कर दे तो निकट भविष्य में लैंगिक भेद-भाव समाप्तप्राय हो जायेंगे । परन्तु हमारे यहाँ बालकों को अच्छे-से-अच्छे विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करायी जाती है और बालिकाओं की शिक्षा का या तो प्रबन्ध नहीं किया जाता है या किया जाता है तो निम्न स्तर की। ऐसी परिस्थितियों में उनका समाजीकरण भली प्रकार से नहीं हो पाता है और उनकी समाज में स्थिति उन्नत नहीं हो पाती है। परिवार बालिकाओं की रुचियों इत्यादि की शिक्षा में अवहेलना करते हैं जिससे उनकी शैक्षणिक उपलब्धि न्यून हो जाती है तथा समाज में उनका स्तर ऊँचा नहीं हो पाता है।
4. व्यापक तथा उदार दृष्टिकोण- पारिवारिक सदस्यों का दृष्टिकोण लिंगीय विषयों के प्रति उदार होना चाहिए। संकीर्ण तथा अनुदार दृष्टिकोण वाले परिवारों में बालिकायें अपने घर वालों का दृष्टिकोण जानकर सदैव दबी-सहमी रहती हैं तथा भय के कारण उनका बाहर आना-जाना तथा किसी से मिलना-जुलना नहीं हो पाता है, जिससे वे समाज में निवास करते हुए भी समाजीकरण की प्रक्रिया से अछूती ही रह जाती हैं। परिवार में माँ, चाची, दादी इत्यादि के द्वारा भी बालिकाओं को सदैव उनके बालिका होने की हद में रहने की चेतावनी दी जाती है। बालिकायें स्वयं देखती हैं कि पारिवारिक मामलों में पिता, चाचा, दादा और भाई आपस में सलाह कर लेते हैं, पर औरतों की राय लेना कोई तनिक भी आवश्यक नहीं समझता है, परन्तु यदि इसके विपरीत पारिवारिक सदस्यों का दृष्टिकोण यदि व्यापक होगा, घर में महिलाओं की इच्छा-अनिच्छा और निर्णयों को महत्व दिया जायेगा तो लिंगीय भेद-भावों में कमी आयेगी तथा बालिकाओं की समाज में स्थान तथा समाजीकरण की गति में तीव्रता आयेगी ।
5. लिंगीय महत्त्व से अवगतीकरण – पारिवारिक सदस्यों को प्रारम्भ से ही बालक तथा बालिकाओं को परस्पर लिंगों के महत्त्व से अवगत कराना चाहिए। लिंगीय आधार पर भेद-भाव हो, इसलिए बालकों को बालिकाओं की विभिन्न भूमिकाओं में माता, बहिन, पत्नी इत्यादि तथा बालिकाओं को बालकों की विभिन्न भूमिकाओं, भाई, पति, पुत्र, पिता आदि से अवगत कराना चाहिए। लड़कों तथा लड़कियों में लिंगीय भेद-भाव तब आते हैं जब वे स्वयं को लड़का और लड़की समझते हैं। यदि वे पिता, भाई, पति तथा पुत्र समझें तो शायद कभी किसी स्त्री को समाज में अपमानित नहीं होना पड़ेगा। इस प्रकार लिंगीय महत्त्व से परिचित कराकर समाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार योगदान देता है
6. साथ-साथ रहने, कार्य करने की प्रवृत्ति का विकास— परिवार की नींव आपसी सहयोग तथा समझदारी पर टिकी होती है, परन्तु बालकों को कार्य का उत्तरदायित्व न देकर सारे घरेलू कार्य बालिकाओं को सौंप दिये जाते हैं जिससे बचपन से ही बालक स्वयं को बालिकाओं का मालिक समझने लगते हैं। परन्तु परिवार का समाज की सांस्कृतिक, आर्थिक इत्यादि वृद्धि, सांस्कृतिक गतिशीलता के लिए यह उत्तरदायित्व बनता है कि वह बालक तथा बालिकाओं को प्रारम्भ से ही उनकी आयु के अनुरूप कार्य तथा पक्षपात रहित होकर प्रोत्साहन भी प्रदान करे। इस प्रकार साथ-साथ रहने तथा कार्य करने की प्रवृत्ति के विकास के कारण समाजीकरण तथा समाज में गति आयेगी।
7. पारिवारिक कार्यों एवं उत्तरदायित्वों में समान सहभागिता- परिवार को सभी प्रकार के घरेलू तथा बाह्य उत्तरदायित्वों का वितरण समान सहभागिता के आधार पर करना चाहिए, न कि लिंगीय आधार पर। अधिकांश परिवारों में बालिकाओं के लिए एक लक्ष्मण रेखा खींच दी जाती है जिससे उनका समाजीकरण अवरुद्ध हो जाता है । अतः पारिवारिक कार्यों तथा उत्तरदायित्वों का जब समान रूप से विभाजन होगा तो आगे चलकर अभिभावकों को अपने बालकों से यह शिकायत नहीं होगी कि लड़का काम नहीं करना चाहता है । अतः प्रारम्भ से ही उत्तरदायित्व और कार्य के प्रति समुचित दृष्टिकोण विकसित किया जाना चाहिए ।
8. हीनतायुक्त व्यवहार निषिद्ध- परिवार में अपने बड़ों का अनुकरण करके बालक-बालिकाओं तथा स्त्रियों के प्रति अपमान तथा हीनता का व्यवहार करते हैं और टोका-टोकी न होने के कारण उनके मनोबल में वृद्धि होती रहती है, जिससे वे आगे चलकर घर के बाहर भी लड़कियों से अमर्यादित व्यवहार, अभद्र भाषा का प्रयोग, स्वयं को श्रेष्ठ मानना, पुरुषत्व दिखाना, गाली-गलौज इत्यादि कर्म करते हैं, जिस कारण बालिकायें स्वयं को असहज और असुरक्षित महसूस कर रही हैं। इन दुर्व्यवहारों के परिणामस्वरूप बालिकाओं का घर से बाहर निकलना दुष्कर हो गया है और न वे अपनी क्षमताओं का प्रयोग कर पा रही हैं, न समाज को कुछ दे पा रही हैं। अतः परिवार को प्रारम्भ से ही बालकों के भाषायी विकास तथा स्वयं की श्रेष्ठता के झूठे विश्वास से अवगत कराने के साथ-साथ बालिकाओं को हीन मानसिकता से बाहर निकालना चाहिए।
9. सामाजिक वातावरण में बदलाव – यदि कोई परिवार सुशिक्षित और जागरूक है और वह लिंगीय भेद-भाव न करके बालिकाओं को बालकों के ही समान अवसर प्रदान करता है तो ऐसे परिवार को सामाजिक वातावरण से जूझना पड़ता है, जिससे लोग बेटियों को आगे बढ़ाने के पहले ही सामाजिक असहयोगात्मक वातावरण के विषय में सोचकर भयभीत हो जाते हैं। परन्तु हिम्मत न हारते हुए परिवार को यह पहल करनी चाहिए तभी हमारा सामाजिक वातावरण बदलेगा। वैसे भी आज हम खुद को यदि सभ्य समाज के निवासी कहकर गर्व करते हैं तो इस बात पर विचार और कार्य करना आवश्यक है कि इस सभ्य समाज में महिलायें कहाँ पर स्थित हैं।
10. अन्ध-विश्वासों, रूढ़ियों तथा जड़ परम्पराओं का बहिष्कार – समाज में समय-समय पर परिवर्तन होता आया है। परिस्थितियों के अनुसार परन्तु यह विडम्बना ही है कि वर्षों पहले की परिस्थितियों में जो परम्परायें प्रासंगिक थीं वे आज अप्रासंगिक होने के पश्चात् भी हमारे समाज द्वारा रीति-रिवाजों, परम्पराओं और अन्ध-विश्वासों के कारण कि ऐसा न करने से देव, पितृ कुपित हो जायेंगे, अकाल तथा अनावृष्टि हो जायेगी तथा सृष्टि का विनाश हो जायेगा इत्यादि । इसी क्रम में बालिकाओं से जुड़े तमाम अन्ध-विश्वास तथा परम्परायें रूढ़ और अतार्किक होने के पश्चात् भी हमारे समाज में चली आ रही हैं, जैसे-
- बाल-विवाह,
- दहेज प्रथा,
- स्त्री शिक्षा,
- विधवा विवाह निषेध,
- लड़की पराया धन,
- पितृकर्म तथा अन्तिम संस्कार,
- सन्तान के लिंग के लिए स्त्री को उत्तरदायी मानना,
- स्त्री को बाँझ और डायन बताकर प्रताड़ित करना,
- विधवापन को अभिशाप मानना,
- पर्दा प्रथा आदि ।
आवश्यकता इस बात की है कि परिवार के द्वारा इन रूढ़ियों का बहिष्कार कर समाज में बालिकाओं और स्त्रियों को उनका स्थान दिलाने के लिए एकजुट होकर बहिष्कार करना चाहिए। इस प्रकार बालिकाओं को बिना किसी लिंगीय भेद-भाव के समाज के सम्पर्क में आने और समाजीकरण के अवसर प्रदान करने चाहिए।
11. उत्तम चरित्र तथा व्यक्तित्व निर्माण की शिक्षा- परिवार के द्वारा यह प्रयास किया जाना चाहिए कि वह अपने पाल्यों अर्थात् बालक और बालिकाओं में उत्तम चारित्रिक गुणों और व्यक्तित्व की सुदृढ़ता का प्रयास करें। जब बालक-बालिकाओं का चरित्र उत्तम तथा व्यक्तित्व सन्तुलित होगा तो सामाजिक परिवेश सुरक्षात्मक हो जायेगा जिससे बालिकाओं पर अनावश्यक रोक-टोक कर समाज से अन्तर्सम्बन्धों को बनाने में जो हस्तक्षेप किया जाता है वह न्यूनतम हो जायेगा और समाजीकरण में वृद्धि होगी।
12. व्यावसायिक कुशलता की शिक्षा– व्यावसायिक कुशलता प्रदान करने का कार्य दो प्रकार से सम्पन्न कर सकता है। प्रथम- बालक-बालिकाओं में घरेलू कार्यों, परम्परागत व्यापार आदि कार्यों का प्रशिक्षण देकर, व्यावसायिक कुशलता तथा श्रम के प्रति समुचित दृष्टिकोण का विकास करके और द्वितीय- बालक और बालिकाओं को बिना किसी भेद-भाव के उनकी रुचि के अनुरूप औपचारिक व्यावसायिक शिक्षा प्रदान कर प्रश्न यह उठता है कि परिवार के इस कार्य से लिंगीय भेद-भावों में कमी कैसे आयेगी और बालिकाओं को समाज में उनका स्थान तथा समाजीकरण किस प्रकार सम्पन्न होगा ? यह स्पष्ट ही हैं कि वर्तमान युग भौतिकता का युग है तथा अर्थ की संस्कृति है। ऐसे में सक्षम व्यक्ति ही समाज के लिए उपयोगी है चाहे वह बालक हो या बालिका । व्यावसायिक दक्षता के कारण लोगों से मिलने-जुलने तथा सम्पर्क स्थापित करने में गति आती है जिसके परिणाम स्वरूप बालिकाओं की सामाजिकता का दायरा भी बढ़ता है।
13. आर्थिक संसाधनों पर एकाधिकार की प्रवृत्ति की समाप्ति – पुरुष-प्रधान भारतीय समाज में पारिवारिक जमीन-जायदाद तथा समस्त आर्थिक संसाधनों के उत्तराधिकारी पुत्र होते हैं, वहीं पुत्रियों को पैतृक सम्पत्ति में कोई अधिकार नहीं मिलता है। यद्यपि 2005 में कानून द्वारा पुत्रियों को पैतृक सम्पत्ति में अधिकार प्रदान किया गया है, परन्तु इसके प्रति समाज में अभी इस दृष्टिकोण का विकास नहीं हो पाया है। पुत्र प्रारम्भ से इसी कारण अकर्मण्य तथा मनमाना व्यवहार करने लगते हैं और अधिकारविहीन स्त्रियाँ आजीवन पिता, पति, पुत्र की तिकड़ी तले दब जाती हैं। कभी आदर्श बेटी, कभी पत्नी और माता बनकर जिससे वे पुरुषों द्वारा खींची गयी लक्ष्मण रेखा से बाहर निकलने की हिम्मत भी नहीं कर पाती हैं । अतः परिवार को कानून ने जो नियम बनाया है, उसके तहत भी और बालिकाओं के स्वावलम्बन हेतु सभी आर्थिक संसाधनों का वितरण समानता के आधार पर करना चाहिए जिससे समाज में उनको समुचित स्थान और सम्मान प्राप्त हो सके ।
14. आत्म-प्रकाशन के अवसरों की उपलब्धता- परिवार में बालकों को उनकी योग्यताओं तथा रुचियों के प्रदर्शन के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान किये जाते हैं, परन्तु बालिकाओं को नहीं, जिससे उनमें हीनता की भावना बैठ जाती है। अतः परिवार को लिंगीय भेद-भावों के बिना आत्म-प्रकाशन के अवसर प्रदान कर समाज में उनके विचारों की प्रतिष्ठा और समाजीकरण की दिशा में कार्य करना चाहिए।
15. महिला सशक्तीकरण का आदर्श प्रस्तुत करना – पारिवारिक सदस्यों द्वारा महिला सशक्तीकरण की मिशाल तथा आदर्श का प्रस्तुतीकरण अपने परिवार की महिलाओं के सशक्तीकरण के द्वारा सम्पन्न करना चाहिए। यदि प्रत्येक परिवार महिलाओं के सशक्तीकरण के मिशाल बन जाये तो फिर लैंगिक भेद-भाव का प्रभाव जो बालिकाओं की समाज में प्रभाविता और सामाजिकता पर पड़ता है, उसका नामोनिशान मिट जायेगा।
समाज द्वारा समाजीकरण में लिंग की भूमिका के सशक्तीकरण के साधन के रूप में परिवार की प्रभाविता हेतु सुझाव :
समाज में समाजीकरण की प्रक्रिया में लिंगीय अभेदपूर्ण तथा सशक्तीकरण के कार्य में परिवार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अनौपचारिक अभिकरण है। इसको बालिकाओं की सामाजिक स्थिति तथा सामाजिकता में प्रभावी बनाने हेतु कुछ सुझाव निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-
1. परिवार में लैंगिक भेद-भावों और असमानता तथा उपेक्षा के व्यवहार को समाप्त करना
2. महिलाओं को समुचित मान-सम्मान प्रदान कर परिवार द्वारा बच्चों के समक्ष आदर्शों का प्रस्तुतीकरण करना ।
3. परिवार को सामाजिक परिवेश को सुरक्षित बनाकर बालिकाओं की सामाजिकता में वृद्धि की जानी चाहिए ।
4. बालिकाओं की शिक्षा की समुचित व्यवस्था द्वारा ।
5. परिवार को लचीला तथा उदारीकृत दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जिससे स्त्रियों को समुचित स्थान प्राप्त हो सके।
6. सामाजिक क्रिया-कलापों में महिलाओं को सहभागी बनाकर ।
7. परिवार को राज्य पर तथा प्रशासन पर बालिका सुरक्षा और शिक्षा आदि की समुचित व्यवस्था का प्रबन्ध करना चाहिए ।
8. जड़ सामाजिक परम्पराओं और रीति-रिवाजों को समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
9. परिवार को विद्यालयी वातावरण में लैंगिक भेद-भावों की समाप्ति हेतु आगे आकर सहयोग करना चाहिए ।
10. परिवार द्वारा महिलाओं की व्यावसायिक शिक्षा तथा आर्थिक सुरक्षा हेतु प्रयास करने चाहिए।
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