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लिंग पहचान पर प्रकाश डालें ।
लिंग की पहचान निर्माण में घर एवं समाज की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । समाज के सशक्तीकरण के लिए पुरुष तथा महिला दोनों ही लिंगों की महत्ता होती है क्योंकि दोनों के सहयोग से ही परिवार का निर्माण होता है तथा परिवारों से ही समाज का निर्माण होता है। क्योंकि पुरुष तथा महिला दोनों ही जीवन रूपी गाड़ी के पहिए हैं, दोनों का ही जीवन को सही रूप में चलाने के लिए महत्त्व है। जीवन की सकारात्मक उन्नति तथा परिवार जैसी संस्था की स्थापना के लिए दोनों का केवल शिक्षित होना ही आवश्यक नहीं है बल्कि एक-दूसरे के साथ अनुकूलन करना भी आवश्यक है क्योंकि व्यक्ति की आवश्यकताएँ अनन्त होती हैं। सभ्य समाज में रहने के लिए वैवाहिक जीवन एवं मर्यादापूर्ण जीवन आवश्यक होता है और सुखमय पारिवारिक जीवन तथा पारिवारिक दायित्वों को निभाने के लिए एक-दूसरे के साथ अनुकूलन करना भी आवश्यक होता है। पारिवारिक जीवन ऐसा हो जिसमें महिला एवं पुरुष दोनों ही समाज का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनकर वे बिना किसी तनाव के स्नेह के बंधन को दिल से स्वीकार करके अपने कर्त्तव्यों तथा दायित्वों से बँधे रहें और जीवन के अनुभवों की सीख लेकर आगे बढ़ें। पारिवारिक जीवन की सुख-शान्ति के लिए यह अहं किसी में न हो कि मैं इसलिए दूसरे से उच्च हूँ क्योंकि मैं अमुक लिंग का हूँ। अपने लिंग में समानता का भाव निहित होना चाहिए और एक-दूसरे से उच्चता तथा निम्नता का भाव नहीं होना चाहिए। वैवाहिक जीवन को एक आवश्यकता के रूप में देखना चाहिए जिसकी आवश्यकता परिवार, समाज तथा राष्ट्र निर्माण के लिए दोनों ही लिंगों को होती है। वास्तविकता यही है कि स्त्री एवं पुरुष में से किसी भी एक लिंग का अभाव परिवार का निर्माण नहीं होने देता तथा सामाजिक व्यवस्था चरमरा जाएगी। स्त्री के अभाव में पुरुष परिवार के दायित्वों को पूरा करने के लिए तथा सन्तति निर्माण के लिए दोनों का एक-दूसरे से अनुकूलन करना आवश्यक है। यह तभी सम्भव हो सकता है जब दोनों समानता के रूप में जीवन व्यतीत करें तथा समाज भी उनमें असमानता व्याप्त न करे। जब स्त्री एवं पुरुषों में लिंग सम्बन्धी भिन्नता व्याप्त हो जाती है तो उनके मध्य स्नेह का बंधन ढीला पड़ जाता है अहं का भाव केन्द्रीय स्तर पर आ जाता है। स्वयं की उच्चता प्रदर्शित करने के लिए तथा दूसरे के जीवन को नियंत्रित करने का प्रयास शुरू हो जाता है जिससे दोनों के मध्य स्नेह का बंधन ढीला पड़ जाता है। इससे उनके मध्य सम्प्रेषण तथा अन्तःक्रिया में भी कमी आ जाती है जिससे धीरे-धीरे उनके मध्य उत्तम सम्बन्ध नहीं रहते हैं। स्वाभाविक अन्तःक्रिया आपसी उत्तम सम्बन्धों के लिए अत्यन्त आवश्यक मानी जाती है परंतु जहाँ अही का भाव विकसित हो जाता है, बालिकाओं को गर्भ में ही मार दिया जाता है, दो या तीन बच्चियों की माता को पति तथा ससुराल वालों की इतनी उपेक्षा सहनी पड़ती है कि वह स्वयं अपराध बोध से ग्रस्त हो जाती है, हीनता की भावना उसमें इस कदर भर जाती है कि वह अपने ही लिंग की बेटी से बेजान हो जाती है। इस प्रकार की स्थितियों में आपसी स्नेह के सम्बन्ध उतने सुदृढ़ नहीं रहते हैं। स्त्रियों की आर्थिक निर्भरता उनकी स्थिति को अधिक खराब कर देती है। अतः लिंग पहचान का निर्माण किस प्रकार का है और उसका घर एवं समाज पर क्या प्रभाव है, इसे जानना आवश्यक है।
लिंग पहचान से आशय (Meaning to Gender Identification)
लिंग पहचान से आशय है कि लिंग को किस भूमिका के आधार पर पहचाना जाता है परम्परागत रूप से देखा जाए होती ‘पुरुष एवं महिला दोनों ही लिंगों की पहचान उनके कार्यों के आधार पर होती है।
महिला लिंग को एक घर चलाने तथा सँभालने वाली, ममतामयी माता एवं सभी का ध्यान रखने वाली, अपने बच्चों को जन्म देने वाली तथा उनका लालन-पालन करने वाली एक माता के रूप में तथा पत्नी के रूप में अपने पति की अर्द्धांगिनी बनकर उसकी समस्याओं तथा जिम्मेदारियों में सहयोग प्रदान करने वाली स्त्री के रूप में मानी जाती है।
पुरुष लिंग की पहचान घर के दायित्वों को पूरा करने वाला, अपनी पत्नी का सम्मान करने वाला, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान देने वाला, उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने वाला तथा पारिवार को अधिक-से-अधिक सुख-सुविधा प्रदान करने वाला, पत्नी का घरेलू कार्यों में सहयोग प्रदान करने वाला और एक पुत्र के रूप में अपने माता-पिता का वृद्धावस्था मैं ध्यान रखने वाला, भाई के रूप में बहन की हर बुरे समय में मदद करने वाले के रूप में पहचान मिलती है ।
पहचान निर्माण की आवश्यकता (Need of Gender Identity Construction)
घर तथा समाज में अपने लिंग की पहचान, निर्माण की आवश्यकता इस कारण होती है ताकि दोनों ही लिंग के व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों को अच्छी तरह से समझ सकें, परंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वे घरेलू दायित्वों को पूर्ण विभाजन कर लें। उन्हें सहयोग पूर्ण मानसिकता के साथ सभी दायित्वों को पूरा करना चाहिए। परम्परागत रूप से पुरुष को आर्थिक शक्ति की केन्द्र बिन्दु के रूप में ही पहचान प्राप्त है और महिला को घर एवं गृहस्थी को सँभालने एवं बच्चों के लालन-पालन का दायित्व दिया गया है। आज अधिकांश घरेलू कार्य विभिन्न व्यावसायिक एजेन्सियों ने सँभाल लिये हैं और घरेलू कार्यों को कोई कार्य नहीं समझा जाता है, महिलाएँ भी शिक्षित हो रही हैं, वे भी समाज में अपनी पहचान एक आर्थिक शक्ति के रूप में बनाना चाहती हैं तथा आत्म-निर्भर बनना चाहती । आज समाज में तेजी से बढ़ती महंगाई के कारण भी एक व्यक्ति की कमाई से घर खर्च चलाना मुश्किल हो जाता है। ऐसी स्थिति में फिर प्रश्न यही उठता है कि लिंग पहचान का निर्माण कैसे हो, वास्तविकता यही है कि महिला यदि कामकाजी होती है तो भी उसे घरेलू दायित्वों को पूरा करना उसकी प्राथमिकता समझी जाती है और उसे घर को प्राथमिकता के साथ सँभालना पड़ता है, अपनी इस भूमिका को तो उन्हें निभाना ही होगा । हाँ पुरुषों की भूमिका में कुछ परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है, उन्हें महिला के साथ एक सहयोगी के रूप में उसकी सहायता करनी चाहिए और कुछ कार्य बाहरी एजेंसियों को सौंपकर सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए।
लिंग पहचान निर्माण की आवश्यकता इस कारण भी है क्योंकि पुरुष लिंग को सदैव उच्च स्थिति प्राप्त है। महिलाओं ने भी पुरुष को अपने से उच्च मान ही लिया है परंतु इससे पुरुष शासक बन बैठा और महिला को भोग्य मान लिया। सम्पूर्ण आर्थिक शक्ति पुरुष के हाथों में निहित हो गयी और महिला की पहचान एक सेविका के रूप में बन गयी है।
पुरुष को एक सहयोगी के रूप में अपनी पहचान निर्मित करने की आवश्यकता है, जहाँ वह अपनी पत्नी का सहयोग कर उसका सम्मान करे । वह एक आदर्शवादी पिता के समान अपने बच्चों को निर्देशित करे परंतु साथ ही परिवार में प्रजातांत्रिक व्यवस्था निर्मित करे जिसमें परिवार के अन्य सदस्यों की इच्छा का भी सम्मान हो सके। पुरुष को एक शासक के रूप में नहीं बल्कि एक सहयोगी के रूप में परिवार में अपनी पहचान निर्मित करनी चाहिए।
पुरुष लिंग को एक बेटे के रूप में अपने माता-पिता का सम्मान करने वाले रूप में अपनी पहचान निर्मित करने की आवश्यकता है।
एक राष्ट्र के नागरिक के रूप में उसे नैतिक, नीतिशास्त्र का ज्ञान रखने वाला, आदर्शवादी, चरित्रवान, ईमानदार होने की आवश्यकता है।
महिला लिंग की पहचान एक माता के रूप में, एक अच्छी पत्नी के रूप में होने की आवश्यकता तो है ही, परंतु साथ ही उसे एक आर्थिक शक्ति के रूप में अपने को स्थापित करने की भी आवश्यकता है। उसे शिक्षा में समानता प्राप्त होनी चाहिए। उसे आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर बनाने की तथा साथ ही विपरीत परिस्थितियों में स्वयं की रक्षा करने में सक्षम होने की आवश्यकता है ।
पुरुष लिंग की पहचान (Identification of Masculine)
पुरुष लिंग की पहचान मुखिया या कर्त्ता के रूप में मानी गयी है। भारतीय समाज में पुरुषों को सदियों से उच्च स्थान दिया जाता है। धार्मिक परम्पराओं में भी पुरुषों को महिलाओं से आगे रखा गया. है। यह अंतर समय के साथ कभी घटा है और कभी बढ़ा है। प्राचीन काल में यदि पुरुष की स्थिति देखी जाए तो यह कहा जा सकता है कि पुरुष लिंग का कार्य परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धन कमाना तथा पूरे परिवार को संरक्षण प्रदान करना रहा है। प्राचीन काल में जब सभ्यता का इतना विकास नहीं हुआ था तब भी पुरुष जंगलों में जाकर शिकार करते थे और परिवार का भरण-पोषण करते थे, शायद इसका कारण पुरुष का अधिक शक्तिशाली होना रहा हो। इस प्रकार परिवार का केन्द्र बिन्दु पुरुष ही रहा है। विरासत में धन-सम्पत्ति प्राप्त होने से तथा व्यावसायिक शिक्षा पिता से पुत्र को प्राप्त होने से और एक ही स्थान पर सदैव निवास (जो कि महिलाओं का नहीं हो पाता है क्योंकि विवाह के बाद उन्हें सुसराल में जाकर रहना पड़ता है) के कारण उन्हें एक आर्थिक शक्ति बनने में किसी भी प्रकार की बाधा का सामना नहीं करना पड़ता है।
पुरुष प्रधान समाज में पुरुष ही सर्वेसर्वा माना जाता है। वह परिवार में विभिन्न प्रकार की अन्तःक्रियाएँ करता है। परिवार में पुरुष का पिता के रूप में सबसे अधिक महत्त्व माना जाता है। वह परिवार की दृढ़ता को बनाये रखता है। वह अपने बच्चों से अन्तःक्रिया करता है, पुत्र यही प्रयास करता है कि उसमें वे सभी गुण हों जो उसके पिता में हैं। पिता को परिवार का सूत्रधार माना जाता है वह अपने व्यक्तित्व के अनुरूप अपनी संतानों पर अपनी छाप छोड़ता है। परिवार में सभी बच्चों को एक दृष्टि से देखना, लिंग-भेद न करना, सभी को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराना, उनकी अधिकतम आवश्यकताओं को पूर्ति की एक अच्छे पिता के रूप में उसकी पहचान बनाता है। घर तथा समाज में पति के रूप में भी पुरुष को विशेष प्रभुता दी गई है। भारतीय समाज में पति एक शासक के रूप में पत्नियों के साथ व्यवहार करते हैं। वे पलियों पर ऑर्डर चलाते हैं, उन्हें मारना, पीटना, धमकाना उनके लिए साधारण-सी बात है। पति के रूप में पुरुष को समाज में काफी महत्त्व दिया गया है। महिलाओं ने अपने पतियों को ईश्वर तुल्य माना है ।
एक अच्छे पति की यही पहचान मानी जाती है कि वह अपनी पत्नी को अपनी दासी न समझे बल्कि अर्द्धांगिनी समझे। उसके साथ समानता का व्यवहार करे। पति के रूप में वह पत्नी के साथ सहयोगी बनकर कार्य करे न कि शासक के रूप में। उसे पत्नी के साथ स्नेहपूर्ण सम्बन्ध विकसित करने चाहिए तथा पत्नी को मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए। समाज में पुरुष को एक पुत्र के रूप में भी पहचान मिली है। समाज को पिता से को सम्पत्ति हस्तान्तरित होती है। समाज द्वारा उससे सदैव यह अपेक्षा की जाती है। पुत्र कि वह अपने माता-पिता का आदर करेगा तथा वृद्धावस्था में उनकी देखभाल करेगा तथा बड़ों का आदर करेगा तथा आवश्यकता पड़ने पर परिवार की आर्थिक सहायता भी करेगा।
महिला लिंग की पहचान (Identification of Feminine)
भारतीय समाज में महिला लिंग की पहचान उनके घरेलू दायित्वों, बच्चों को जन्म देना, पालन-पोषण करना, भोजन पकाना, घर की साफ-सफाई करना तथा घर को सुव्यवस्थित रखना और पुरुषों के निर्णयों को क्रियान्वित करने में उन्हें सहयोग प्रदान करने के रूप में होती है। जो महिलाएँ आवश्यकता पड़ने पर घर के बाहर एक आर्थिक केन्द्र-बिन्दु के रूप में कभी नहीं होती हैं, जो महिलाएँ आवश्यकता पड़ने पर घर के बाहर जाकर धनोपार्जन करती हैं उन्हें भी समाज एक आर्थिक शक्ति के रूप में नहीं देखता है बल्कि उनसे यही आशा की जाती है कि पहले वे अपने घरेलू दायित्वों को पूरा करें, तत्पश्चात् कार्य करें। महिला चाहे अपने द्वारा अर्जित धन का एक-एक पैसा घरेलू दायित्वों को पूरा करने में लगा दे, परंतु उनका पहला कार्य घरेलू जिम्मेदारियों को पूरा करना ही माना जाता है। उसकी पहचान एक आर्थिक आत्म-निर्भर शक्ति के रूप में कभी भी नहीं होती है। इसी कारण घरेलू कार्यों को ‘पूरा करने में उन्हें परिवार से कोई सहयोग प्राप्त नहीं होता है। उन्हें समाज में स्वयं को सिद्ध करने के लिए दोहरी भूमिका निभानी पड़ती है। बाहर कार्य करने के साथ-साथ घरेलू दायित्वों को भी प्राथमिकता के साथ पूरा करना पड़ता है और इस पर भी परिवार के सदस्य उनसे सन्तुष्ट नहीं रहते हैं ।
परिवार में महिला लिंग की पहचान भिन्न-भिन्न रूपों में होती है, जैसे-माता, पत्नी, पुत्री तथा पुत्र-वधू, आदि एक नारी से घर एवं समाज इन सभी भूमिकाओं को भली प्रकार के विकास पर केन्द्रित करती है। वह माता के रूप में अपनी संतान में विभिन्न सामाजिक निभाने की आशा रखता है। माता के रूप में महिला परिवार में अपना सम्पूर्ण ध्यान बच्चे गुण, जैसे-ईमानदारी, आत्म-विश्वास, आत्म-शासन, सद्व्यवहार आदि आदतों को विकसित करती है। माता ही बच्चे के अंदर नैतिक एवं चारित्रिक गुणों का विकास करती है। बच्चे के पालन-पोषण की सम्पूर्ण जिम्मेदारी माता पर समाज द्वारा डाल दी जाती है। पत्नी के रूप में महिला की पहचान समाज में उसके पति के नाम के साथ की जाती है। उसका यह दायित्व माना जाता है कि वह अपने पति की देखभाल करे तथा उसकी सभी आवश्यकताओं का ध्यान रखे और उसके व्यवसाय में रुचि ले तथा उसका विकास करने के लिए पति को प्रेरणा दें। पत्नी के रूप में महिला का यह भी दायित्व माना जाता है कि वह अपने पति के वंश को आगे बढ़ाकर उसके नाम को पीढ़ियों तक जीवित रखे । पति की सहयोगिनी होने के कारण ही पत्नी अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए घर के बाहर निकलकर धनोपार्जन करती है तथा घर एवं बाहर दोनों कार्य-क्षेत्र होने पर भी उनमें सामंजस्य बनाये रखती है। इस प्रकार समाज एक पत्नी के रूप में महिला लिंग से यह अपेक्षा करता है कि परिस्थितियाँ चाहे कैसी भी हो, वह अपने पति तथा परिवार के अन्य सदस्यों को प्रसन्न रखने का पूरा प्रयास करती है। एक महिला माता एवं पत्नी के अतिरिक्त एक पुत्री के रूप में भी समाज में अपने लिंग की पहचान बनाए रखती है। पुत्री के रूप में समाज महिला से परिवार एवं समाज के द्वारा बनाये गये नियमों तथा पारिवारिक मर्यादाओं के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा रखता है । पुत्री के रूप में महिला लिंग माता-पिता से भावनात्मक लगाव रखे तथा भाई-बहनों से स्नेह सम्बन्ध बनाये रखे । घरेलू कार्यों में माता-पिता की मदद करे तथा ज्ञानार्जन करे । पुत्री विवाह के बाद किसी की पुत्र वधू बनकर दूसरे के घर चली जाती है और वहाँ पर उससे एक परिपक्व गृहिणी की आशा की जाती है, इसलिए उसे अपने भावी जीवन की तैयारी करनी चाहिए। महिला लिंग की पहचान एक पुत्र-वधू के रूप में भी मानी जाती है। पुत्र-वधू के रूप में उस पर काफी जिम्मेदारियाँ डाल दी जाती हैं। उसे अपने पति के घर आकर उनकी मान्यताओं के अनुसार स्वयं को ढालना चाहिए, ऐसी घर एवं समाज उनसे अपेक्षा रखता है। परिवार में सामंजस्य बनाए रखने के लिए दो पक्षों में से किसी एक पक्ष को अपने आपको दूसरे के अनुरूप ढालना पड़ता है। इस कारण प्रत्येक परिवार पुत्र वधू से यह आशा करता है कि वह ही अपने आपको परिवर्तित करे तथा परिवार के सभी सदस्यों के साथ समायोजन स्थापित करे। घर एवं समाज की अधिकांश अपेक्षाएँ महिला लिंग से ही होती हैं, इससे उसे अपने विकास तथा व्यक्तित्व निर्माण का अवसर प्राप्त नहीं हो पाता है।
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