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राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों का अर्थ (Meaning of the Directive Principles of State Policy)
भारत के संविधान द्वारा जो मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) नागरिक को प्राप्त हुए हैं वे बहुत कम हैं और वे पर्याप्त विस्तृत भी नहीं हैं। उनमें कुछ और अधिकार सम्मिलित किये जाने चाहिये थे। इसी अभाव की पूर्ति के लिये भारत के संविधान में राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों का समावेश किया गया जो भारत के संविधान की एक विशेषता है। भारत के संविधान के निर्माताओं ने इसका समावेश स्पेन और आयरलैण्ड के संविधान के अनुकरण पर किया। राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत उन आदेशों तथा निर्देशों का समावेश है जो संविधान ने भारत राज्य तथा विभिन्न राज्यों को अपनी सामाजिक तथा आर्थिक नीति निर्धारण करने के लिये दिये हैं। वे उनको मौलिक रूप प्रदान नहीं कर सके। वे केवल व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका के निर्देश मात्र हैं। प्रजातान्त्रिक शासन में यह सम्भव है कि समय-समय पर शासन की सत्ता पर विभिन्न राजनीतिक दलों का अधिकार होगा, जिससे यह भय उत्पन्न होने की सम्भावना हो सकती है कि भारत की समस्त शासन व्यवस्था में उथल-पुथल मच जाये और समस्त भारत का विकास समान रूप से नहीं हो पाये। अतः इनके द्वारा भारत संघ तथा विभिन्न राज्यों के सामने आदर्श प्रस्तुत किया गया हैं जिनको लक्ष्य मानकर प्रत्येक को उसके प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील होना होगा। इस दृष्टि से इनका महत्त्व अधिक है और देश की समान नीति के लिये ये आवश्यक रूप से सहायक सिद्ध होंगे। इनके द्वारा राज्य उस ढंग की नीति को अपनायेगा जिस प्रकार की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना की संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी। डॉ. आंबेडकर के अनुसार, “मेरे विचार में निर्देशक सिद्धान्तों का मूल्य बहुत अधिक है; क्योंकि वे इस तथ्य का प्रतिपादन करते हैं कि हमारा आदर्श आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है।”
एल. जी. खेडकर के शब्दों में “ये सिद्धान्त वे आदर्श हैं, जिनकी पूर्ति का सरकार प्रयत्न करेगी।” संक्षेप में ये सिद्धान्त राज्य के नैतिक आदर्श हैं। इन सिद्धान्तों के पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं होती है। यह राज्य की इच्छा पर है कि वह इसका पालन करे या न करे, परन्तु फिर भी इनका पालन करना प्रत्येक राज्य का नैतिक कर्त्तव्य है। डॉ. आंबेडकर इनके प्रयोग के औचित्य पर बल देते हुए कहा था, “संविधान निर्माताओं की यह इच्छा थी कि परिस्थिति अथवा समय कितना भी प्रतिकूल क्यों न हो, इन तत्वों की पूर्ति के लिए सदैव प्रयास करते रहना चाहिए।”
भारतीय संविधान के 38वें अनुच्छेद के अनुसार- “राज्य अधिक से अधिक प्रभावपूर्ण तरीके से एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना तथा सुरक्षा द्वारा, जिसमें आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक न्याय की प्राप्ति हो, जनता के हित के विकास का प्रयास करेगा और राष्ट्रीय जीवन की प्रत्येक संस्था को इस सम्बन्ध में सूचित करेगा।”
इस प्रकार राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों का अर्थ है कि संविधान में ऐसे आदेश तथा निर्देश दिये जायें, जिन पर चलकर केन्द्र और विभिन्न राज्य अपने नागरिकों का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास कर सकें।
पी. एन. जोशी के मतानुसार, “राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत उन आदेशों तथा निर्देशों का समावेश है, जो संविधान ने केन्द्रीय तथा विभिन्न राज्यों की सरकारों को अपनी सामाजिक तथा आर्थिक नीति निर्धारण करने के लिये दिये हैं। वे उनको कानूनी रूप प्रदान नहीं कर सके। वे केवल व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका के लिये आदेश मात्र हैं।”
नीति निर्देशक सिद्धान्तों का वर्गीकरण (Classification of the Directive Principles)
संविधान के 36वें अनुच्छेद से लेकर 51वें अनुच्छेद तक, सोलह अनुच्छेदों में राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन है। इन्हें तीन भागों में विभाजित करके सरलता से देखा जा सकता है-
(1) लोक-कल्याणकारी तथा समाजवादी राज्य की स्थापना करने वाले सिद्धान्त- भारतीय संविधान के निर्माताओं का उद्देश्य भारत में लोक कल्याणकारी एवं समाजवादी राज्य की स्थापना करना था। इस दृष्टि से अधिकांश निर्देशक सिद्धान्तों द्वारा आर्थिक और सामाजिक न्याय के सम्बन्ध में व्यवस्था की गयी है।
निर्देशक सिद्धान्तों में कहा गया है कि-(i) राज्य लोगों के जीवन स्तर को सुधारने और स्वास्थ्य सुधार के लिये प्रयास करेगा। (ii) राज्य जनता में दुर्बलतर अंगों में मुख्यतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों के शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से रक्षा करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा। (iii) राज्य प्रत्येक स्त्री-पुरुष को समान रूप से जीविका के साधन प्रदान करने का प्रयत्न करेगा। (iv) राज्य देश के भौतिक साधनों के स्वामित्व और नियन्त्रण की ऐसी व्यवस्था करेगा कि अधिक से अधिक सार्वजनिक हित हो सके। (v) राज्य इस बात का ध्यान रखेगा कि सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों का केन्द्रीयकरण न हो। (vi) राज्य प्रत्येक नागरिक को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, समान कार्य करने के लिये समान वेतन प्रदान करेगा। (vii) राज्य श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न होने देगा। (viii) राज्य प्रयास करेगा कि सभी नागरिक अपनी योग्यता के अनुसार रोजगार पा सकें, शिक्षा पा सकें एवं बेकारी, बीमारी और अंगहीनता आदि दशाओं में सार्वजनिक सहायता प्राप्त कर सकें। (ix) वैज्ञानिक आधार पर कृषि का संचालन करना भी राज्य का कर्त्तव्य होगा। (x) राज्य संविधान के प्रारम्भ होने से दस वर्ष से लेकर चौदह वर्ष तक की आयु के बालकों के लिये मुफ्त और अनिवार्य शिक्ष का प्रबन्ध करेगा।
(2) गाँधीवादी विचारधारा से सम्बन्धित निर्देशक तत्त्व- गाँधी जी ने हमें सामाजिक उत्तरदायित्व के सार तत्त्व की शिक्षा प्रदान की है। उनकी विचारधारा का प्रभाव भी इन सिद्धान्तों में कई स्थानों पर देखा जा सकता है, जैसे—-(i) संविधान के अनुच्छेद 43 के अनुसार, राज्य कुटीर उद्योगों बढ़ावा देगा। (ii) अनुच्छेद 40 के अनुसार, राज्य पंचायतों का संगठन करेगा। राज्य पिछड़ी हुई और निर्बल जातियों की विशेष रूप से शिक्षा तथा आर्थिक हितों की उन्नति करेगा। (iii) अनुच्छेद 47 के अनुसार, राज्य नशीली वस्तुओं के प्रयोग को औषधियों के अतिरिक्त विशेष उद्देश्यों के लिये मना करेगा। (iv) अनुच्छेद 46 के अनुसार, राज्य कृषि और पशुपालन को आधुनिक ढंग से संगठित करेगा। (v) अनुच्छेद 49 के अनुसार, राज्य राष्ट्रीय और ऐतिहासिक महत्त्व वाले उद्योगों को और स्थानों की सुरक्षा करेगा। (vi) अनुच्छेद 50 के अनुसार, राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिये कदम उठायेगा। (vii) अनुच्छेद 44 के अनुसार, राज्य सारे देश के लिये एक समान दीवानी तथा फौजदारी कानून बनाने का यत्न करेगा। इस प्रकार उपर्युक्त अंश राष्ट्रपिता बापू के दृष्टिकोण से मिलते-जुलते हैं।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को बढ़ावा देने वाले निर्देशक तत्व- संविधान के अनुच्छेद 51 के अनुसार, राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देगा। राज्य राष्ट्रों के मध्य न्याय और सम्मानपूर्वक सम्बन्धों को बनाये रखने का प्रयास करेगा। राज्य अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों तथा सन्धियों की तरफ हाथ बढ़ायेगा। राज्य अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को पंच- फैसलों द्वारा निपटाने की रीति को बढ़ावा देगा।
नीति-निर्देशक सिद्धान्तों की आलोचना (Criticism of Directive Principles)
आलोचकों ने राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों की कटु आलोचना की है। उनका मत है-
(1) इन सिद्धान्तों के पीछे कोई वैधानिक शक्ति नहीं है और नागरिक राज्य को इनके अनुसार, व्यवहार करने के लिये बाध्य नहीं कर सकता है। अतः यह ‘पवित्र इच्छायें’ केवल दिखावटी हैं और इनको संविधान में स्थान देना सर्वथा व्यर्थ है।
(2) इन सिद्धान्तों में बहुत अधिक बातों का समावेश किया गया है, जिनमें कुछ तो बिल्कुल निरर्थक हैं, उनका कोई महत्त्व नहीं है।
(3) संविधान निर्माताओं ने इन्हें संविधान में स्थान देकर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का प्रयत्न किया है। यह बात भी संदिग्ध है कि इनके अन्तर्गत जिन बातों का समावेश किया गया है वे समस्त परिस्थितियों में उचित ही होंगी।
(4) एक सम्प्रभुता सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य के लिये यह एक अस्वाभाविक बात है कि वह इन नीति-निर्देशक सिद्धान्तों का पालन करे ही क्योंकि जब वह पूर्ण सम्प्रभुता सम्पन्न है तो उनको इनकी क्या आवश्यकता है ? ये सिद्धान्त उस स्थिति में ही उचित हैं जबकि कोई उच्च सरकार किसी निम्न सरकार को इस प्रकार के आदेश दे ।
(5) आलोचकों का कहना है कि ये सिद्धान्त केवल उद्देश्य तथा महत्त्वाकांक्षाओं की घोषणा मात्र हैं।
आलोचकों ने इन सिद्धान्तों की आलोचना करने के लिये आलंकारिक शब्दावली का प्रयोग किया है। संविधान सभा के सदस्य ‘श्री नसीरुद्दीन’ ने इन्हें नये वर्ष के कुछ प्रस्तावों का समूह मात्र कहा है। कुछ आलोचकों ने इन्हें शृंगार की मेज की संज्ञा दी है और इन्हें अर्थहीन, प्राणहीन, दिखावटी बताया है। कुछ ने
प्रो. के. टी. शाह का कथन है, “ये सिद्धान्त एक ऐसे बैंक का चैक है जिसका भुगतान उस समय होगा जबकि बैंक के पास इतने साधन हो जायेंगे।”
नीति निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्व (Importance of Directive Principles)
निर्देशक सिद्धान्तों की आलोचना में आंशिक सत्यता है। यह भी एक वास्तविकता है कि केन्द्र व राज्य सरकारों ने इन सिद्धान्तों के विपरीत कार्य किया है, परन्तु ये सिद्धान्त न तो कोरी भावुकता है और न संविधान के अलंकार हैं। निर्देशक सिद्धान्त एक वास्तविकता हैं और राज्य को एक न एक दिन इनको व्यावहारिक रूप देना होगा। इनका निम्नलिखित महत्त्व है-
(1) लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना करता है- निर्देशक सिद्धान्त लोक कल्याणकारी राज्य के आदर्श हैं। श्री. एम. सी. छागला के अनुसार, “यदि इन निर्देशक सिद्धान्तों का भली-भाँति पालन किया जाये तो हमारा देश पृथ्वी पर स्वर्ग बन जायेगा। भारत केवल राजनीतिक दृष्टि से ही लोकतन्त्र नहीं होगा, अपितु एक कल्याणकारी राज्य होगा, जिसके नागरिकों में आर्थिक समानता होगी और प्रत्येक व्यक्ति को कार्य करने, शिक्षा प्राप्त करने और अपने परिश्रम का फल प्राप्त करने का समान अवसर मिलेगा।”
(2) विधानपालिका और कार्यपालिका के पथ-निर्देशक हैं- विधानपालिका और कार्यपालिका सदा निर्देशक सिद्धान्तों के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करेगी। ये सिद्धान्त उनका पथ निर्देशन व मार्ग निर्धारण करते रहते हैं। ये सिद्धान्त अथवा निर्देशक भारत सरकार रूपी नाविक के लिये ध्रुव तारे के समान हैं जिसे देखकर नाविक यह पता लगाता है कि उसका पोत किस तरफ जा रहा है।
(3) निर्देशक सिद्धान्त के पीछे जनमत का बल होता है- अनन्त शयनम् आयंगर महोदय ने संसद में कहा है कि “जनमत ही राज्य के निर्देशक सिद्धान्तों को सरकारों से पालन कराने का एकमात्र साधन है। प्रति पाँचवें वर्ष निर्वाचन में जनता उन्हीं सदस्यों का निर्वाचन करेगी जो इनका पालन करते हैं।” इस मत की पुष्टि श्री अल्लादि कृष्णास्वामी आयंगर ने की, “जनता के प्रति उत्तरदायी कोई भी मन्त्रिमण्डल सरलता से संविधान के चतुर्थ भाग के निर्देशक तत्वों के विरुद्ध जाने का साहस नहीं करेगा। “
(4) निर्देशक सिद्धान्त न्यायालयों के मार्ग-दर्शक हैं- न्यायालय निर्णय लेते समय निर्देशक सिद्धान्तों से प्रभावित होते हैं तथा मार्ग दर्शन प्राप्त करते हैं। । ए. के. गोपालन बनाम मद्रास सरकार केस में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश कानिया ने कहा कि “राज्य के निर्देशक सिद्धान्त संविधान का अंग हैं इसलिये ये केवल बहुमत की इच्छा मात्र नहीं हैं, वरन् ये समस्त राष्ट्र की बुद्धि के प्रतीक हैं जिनको उप संविधान सभा द्वारा प्रगट किया गया जिनको समस्त देश के लिये उचित सर्वोच्च कानून होना चाहिये। “
राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का क्रियान्वयन (Implementation of Directive Principles of State Policy)
विगत 56 वर्षों में केन्द्र व राज्य सरकारों ने निर्देशक सिद्धान्तों के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अनेक कानून बनाये हैं-
(1) कल्याणकारी योजनाओं का विस्तार- केन्द्र व राज्य सरकारों ने नियोजित विकास के लिये पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण तथा राष्ट्र के आर्थिक ढाँचे को सशक्त बनाया है। नियोजन के माध्यम से कृषि का विज्ञानीकरण व औद्योगीकरण किया गया है। पशुओं की नस्ल सुधारने के लिये पशु केन्द्र खोले गये हैं। रोजगार कार्यालयों (Employment Exchange) द्वारा बेरोजगारी की समस्या को राज्य स्तर पर हल करने का प्रयास जारी है। मातृ शिशु कल्याण केन्द्र स्थान-स्थान पर खोले गये हैं। जन-स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिये सरकार ने अधिक से अधिक सुविधाएँ प्रदान की हैं।
(2) आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना- जमींदारी उन्मूलन अधिनियम, बैंकों, बीमा कम्पनी व अन्य महत्त्वपूर्ण उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करके सार्वजनिक हित में आर्थिक एकाधिकार को समाप्त किया जा रहा है। कुटीर उद्योग, गृह-उद्योग व लघु उद्योगों का विस्तार करके पूँजीवादी व्यवस्था के प्रभाव को क्षीण बनाया जा रहा है। सम्पत्ति के मूल अधिकार अनुच्छेद 31 में समय-समय पर संशोधन करके अन्त में समाप्त करके तथा संविधान के पच्चीसवें संशोधन (1971) के द्वारा आर्थिक लोकतन्त्र की जड़ें अधिक मजबूत हो गई हैं।
(3) राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना– सत्ता का विकेन्द्रीकरण करके वास्तविक लोकतन्त्र स्थापित किया जा सकता है। भारत सरकार ने ग्राम पंचायतों की स्थापना करके राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना की है। न्यायपालिका को कार्यपालिका से धीरे-धीरे अलग करके राजनीतिक लोकतन्त्र को वास्तविक बनाया जा सकता है।
(4) सामाजिक लोकतन्त्र की स्थापना- प्रत्येक जाति, वर्ग लिंग की समानता को स्वीकार किया गया है। आर्थिक व राजनीतिक रूप से पिछड़े अशक्त वर्गों, जनजातियों व आदिम जातियों के विकास के लिये विशेष कानूनों का निर्माण किया गया है ताकि उन्हें समाज में विकसित व सशक्त वर्गों के समान स्थिति प्रदान की जा सके।
(5) शिक्षा व संस्कृति के विकास की व्यवस्था– केन्द्र व राज्यों की सरकारों ने निःशुल्क शिक्षा का प्रबन्ध किया है। राष्ट्रीय स्मारकों की रक्षा हेतु विधान निर्माण किया है।
(6) अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शान्ति की स्थापना- भारतीय विदेश नीति का आधार राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्त का अनुच्छेद 51 है। भारत ने अपनी नीतियों के माध्यम से सदैव उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद व शोषण का विरोध किया है।
राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्त एवं मौलिक अधिकारों में अन्तर (Distinction between the Directive Principles and the Fundamental Rights)
राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों व मौलिक अधिकारों में निम्नलिखित अन्तर हैं-
(1) बाध्यता की दृष्टि से- मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की राज्य द्वारा गारण्टी दी गई है। सरकार यदि इनका अतिक्रमण करती है तो नागरिक इनकी रक्षा के लिये उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले सकते हैं परन्तु नीति-निर्देशक सिद्धान्तों की सुरक्षा की हैं ऐसी कोई गारण्टी नहीं है। यदि राज्य इन पर अमल न करे तो उसे बाध्य नहीं किया जा सकता। इन पर अमल करना राज्य का नैतिक कर्त्तव्य है।
(2) क्षेत्र की दृष्टि से- नीति-निर्देशक सिद्धान्तों का क्षेत्र मूल अधिकारों की तुलना में अधिक व्यापक है। इनमें अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में नीति-निर्देशक तत्वों का उल्लेख है।
(3) वैधानिकता की दृष्टि से- मौलिक अधिकार नागरिकों की वैधानिक माँग है, परन्तु नीति-निर्देशक सिद्धान्त वैधानिक माँग नहीं हैं।
(4) राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि से- मौलिक अधिकारों के माध्यम से देश में राजनीतिक स्वतन्त्रता स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है, परन्तु नीति-निर्देशक सिद्धान्तों के द्वारा आर्थिक स्वतन्त्रता स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है।
(5) नकारात्मक व सकारात्मक दृष्टि से- प्रो. ग्लेडहिल ने दोनों का अन्तर बताते हुए लिखा है कि, “मौलिक अधिकार वे निषेध आज्ञाएँ हैं जो राज्य को कुछ कार्य करने से रोकती हैं, नीति-निर्देशक सिद्धान्त राज्य को कुछ निश्चित कार्य करने के लिये निश्चित आदेश हैं। “
निष्कर्ष- संक्षेप में हम कह सकते हैं कि, निर्देशक तत्वों के पीछे यद्यपि न्यायिक शक्ति नहीं है तथापि उनका महत्त्व कम नहीं है। ये सिद्धान्त राजनीतिक और सामाजिक लोकतन्त्र की स्थापना के साथ ही आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से एक आदेश व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। ये तत्व एक रचनात्मक व सृजनात्मक आन्दोलन के प्रतीक हैं। संक्षेप में, निर्देशक तत्वों की क्रियान्वित की दिशा में अब तक जो कुछ किया गया, उसकी तुलना में अभी बहुत अधिक किया जाना शेष है और भारतीय लोकतन्त्र के हित में अब यह कार्य, विशेषतया सामाजिक आर्थिक-न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने का कार्य, सच्चे मन से और शीघ्रातिशीघ्र किया जाना चाहिए।
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