स्त्रियों की स्थिति में सुधार के उपायों का वर्णन करें।
स्त्रियों को उनकी दयनीय होती स्थिति से उबारने के प्रयास ब्रिटिश काल से ही समाज सेवियों, समाज-सुधारकों तथा मिशनरियों द्वारा प्रारम्भ कर दिये गये थे, जिसके परिणाम स्वरूप स्त्रियाँ पर्दे की ओर से और घर-गृहस्थी के कार्यों से निकलीं तथा कार्य-क्षेत्र में उन्होंने पुरुषों को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा दिया। अब आँचल में दूध और आँखों में पानी की उसकी भूमिका धूमिल होने लगी तथा पुरुषों की सफलता के पीछे भी स्त्रियों का हाथ स्वीकार किया जाने लगा। स्वतन्त्र भारत की पंचवर्षीय योजनाओं, नीतियों तथा कार्यक्रमों, आयोगों और संविधान में भी स्त्रियों की समता की बात स्वीकार कर उनको समान धारा में लाने हेतु उपलब्ध किये गये। स्त्रियों की स्थिति में उन्नति करने के लिए उन्हें कुछ विशिष्ट सहायतायें भी प्रदान किये जाने का प्रावधान किया गया। स्त्रियों की स्थिति में सुधार हेतु उपायों की चर्चा पूर्व में प्रस्तुत की जा चुकी है। अतः संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में उनकी स्थिति के उन्नयन के प्रयास किये गये, वे निम्न प्रकार हैं-
भारतीय संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। संविधान की उद्देशिका का अवलोकन करने के पश्चात् ज्ञात होता है कि इसमें स्त्रियों की समानता तथा अधिकारों का प्रबल पक्ष लिया गया है-“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विकास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीक्ष 26/11/1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छः विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते हैं।”
संविधान की उद्देशिका में प्रयुक्त न्याय, स्वतन्त्रता तथा समता शब्द अपने में व्यापक अर्थ समेटे हुए है। न्याय के अन्तर्गत निम्नांकित न्याय आते हैं- 1. सामाजिक न्याय, 2. आर्थिक न्याय, 3. राजनैतिक न्याय ।
अर्थात् सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक स्तर पर सभी के लिए न्याय की व्यवस्था होगी । स्त्री तथा पुरुषों में जो लैंगिक विभेद किये जाते हैं, इसके द्वारा उस भेद-भावपूर्ण व्यवहार की समाप्ति की जायेगी। स्त्रियों को पुरुषों की भाँति मत देने का अधिकार (अनुच्छेद 326) तथा राजनैतिक व्यवस्था में भाग लेने का अधिकार प्राप्त है। निर्वाचन का अधिकार चाहे वह स्त्री वयस्क हो या पुरुष, सभी को प्राप्त है और निर्वाचन का सिद्धान्त है-” एक व्यक्ति एक मत ।” इस प्रकार संविधान स्त्रियों की स्थिति उन्नत करने हेतु उन्हें पुरुषों के समकक्ष राजनैतिक न्याय प्रदान करता है।
आर्थिक न्याय के अन्तर्गत अवसरों की समता, सम्पत्तियों का साम्यपूर्ण वितरण, निर्धनता का उन्मूलन, जिससे आर्थिक प्रजातन्त्र की स्थापना की जा सके। स्त्रियों को इसके द्वारा पुरुषों के समान अवसरों की प्राप्ति होगी, समान कार्य हेतु समान वेतन (अनुच्छेद 39), पुरुषों की भाँति ही आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने की स्वतन्त्रता प्रदान की जायेगी, जिससे उनकी स्थिति में सुधार आयेगा ।
सामाजिक न्याय के अन्तर्गत स्त्री-पुरुष सभी को तथा समाज के ढाँचे को विभिन्न समूहों, वर्गों तथा व्यक्तियों के मध्य सामंजस्य तथा सन्तुलन की स्थापना आती है । संविधान की उद्देशिका में दिये गये राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक न्याय की परिकल्पना से स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि भारतीय प्रजातन्त्र में महिलाओं की स्थिति को उन्नत दशा में पहुँचाने हेतु पर्याप्त प्रावधान किये गये हैं, जिससे लैंगिक विभेदों को कम किया जा सके।
स्त्री तथा पुरुषों के मध्य व्याप्त असमानता और लैंगिक भेद-भाव को समाप्त करने के लिए संविधान द्वारा उद्देशिका में ‘स्वतन्त्रता’ की बात कहीं गयी, जिसे ‘विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म तथा उपासना’ की स्वतन्त्रता के रूप में उल्लिखित किया गया। पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म तथा उपासनादि की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है।
उद्देशिका में उल्लिखित ‘समता’ द्वारा व्यक्ति के सर्वोत्तम विकास हेतु समता का वर्णन किया गया है। समता के अन्तर्गत एक नागरिक किसी अन्य नागरिक से यदि विभेदपूर्ण व्यवहार करता है तो वह अवैध होगा। अनुच्छेद 15 के द्वारा ऐसा विभेद जो धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर अनुच्छेद 15(2) के द्वारा अस्पृश्यता का अन्त, अनुच्छेद 17 के द्वारा उपाधियों का अन्त, अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत राज्य के अधीन नियोजन से सम्बन्धित विषयों हेतु अवसर की समानता प्रदान की गयी तथा अनुच्छेद 14 के द्वारा विधि के समक्ष समता या विधि के समान संरक्षण को ऐसा अधिकार बनाया गया है, जिस पर निर्णय ले सकता है। संविधान की उद्देशिका अपने प्रत्येक नागरिक को गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत करने हेतु संकल्पबद्ध है, जिससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि संविधान निर्माताओं की दृष्टि से समाज में फैली बुराइयों, ऊँच-नीच, जाति, धार्मिक भेद-भाव तथा स्त्री-पुरुषों के मध्य भेद-भावपूर्ण व्यवहार के प्रति अत्यधिक संवेदनशील थी। इसीलिए उन्होंने उद्देशिका के द्वारा भारतीय प्रजातन्त्र की मंशा प्रकट कर दी ।
स्त्री तथा पुरुषों में शारीरिक विभिन्नता है, परन्तु स्त्रियाँ पुरुषों से किसी भी कार्य में पीछे न होकर समान अधिकार प्राप्त करने की अधिकारिणी हैं । वस्तुतः लोकतन्त्र में अगर स्त्री-पुरुष के मध्य भेद-भाव को समाप्त न किया जाता तो लोकतन्त्र की कल्पना अपूर्ण ही रह जाती अतः हमारा संविधान लैंगिकता के आधार पर किये जा रहे भेद-भावपूर्ण व्यवहार के प्रति कठोर उपबन्ध करता है। स्त्रियों की गरिमामयी जीवन उन्हें शिक्षा, स्वतन्त्रता तथा पुरुषों के समान अधिकार प्रदान कर ही दिया जा सकता है और संविधान ने उनके गरिमामयी जीवन हेतु प्रावधान भी किये हैं।
संविधान के भाग 4 में निर्देश सम्मिलित किये गये हैं जिसके अन्तर्गत राज्य को दिशा-निर्देश दिया गया है कि वह अपनी आर्थिक तथा सामाजिक नीतियों की इस प्रकार रचना करे कि “पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो।” (अनुच्छेद 39), “काम की न्याय संगत और मानवोचित दशायें हों” (अनुच्छेद 42) तथा ‘शिष्ट जीवन स्तर’ और अवकाश का सम्पूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशायें तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त हों। (अनुच्छेद 43)।
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