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दल-बदल की राजनीति | दल-बदल के कारण | दल-बदल के राजनीतिक प्रभाव

दल-बदल की राजनीति
दल-बदल की राजनीति

दल-बदल की राजनीति (Politics of Defection)

दल-बदल का आशय (Meaning of Defection) — राजनीतिक दल-बदल का अर्थ राजनीतिक निष्ठा में परिवर्तन है। सुभाष कश्यप के अनुसार, “किसी विधायक का अपने दल अथवा निर्दलीय मंच का परित्याग कर किसी अन्य दल में जा मिलना, नया दल बना लेना या निर्दलीय स्थिति अपना लेना अथवा अपने दल की सदस्यता त्यागे बिना ही बुनियादी मामलों पर सदन में उसके विरुद्ध मतदान करना दल-बदल कहलाता है। “

दल-बदल राजनीतिक अस्थिरता को जन्म और प्रोत्साहन देता है। भारत में दल-बदल स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद ही शुरू हो गया था। सन् 1947 से सन् 1967 तक दल-बदल राष्ट्रीय कांग्रेस के पक्ष में रहा। सन् 1967 से सन् 1971 तक दल-बदल सत्ताधारी दल और विरोधी दलों के मध्य होता रहा। 1961 से 1971 तक दल-बदल कांग्रेस के पक्ष में अधिक रहा। सन् 1977 के बाद से आज तक जनता पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, जनता दल आदि के पक्ष में दल-बदल की प्रवृत्ति अधिक रही। वस्तुतः भारत में दल-बदल राजनीतिक निष्ठा में परिवर्तन के कारण न होकर राजनीतिक और नैतिक लाभों की प्राप्ति के लिए किया जाता रहा है।

दल-बदल के कारण (Causes of Defection)

राजनीतिक दल-बदल के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं-

(1) प्रभावशाली दलीय नेतृत्व का अभाव- स्वाधीनता संग्राम के प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले नेता सक्रिय राजनीति के क्षेत्र से लगभग विदा हो चुके थे और किसी भी राजनीतिक दल में ऐसा शिखर व्यक्तित्व नहीं रहा था जो उसके सदस्यों को बाँध कर रख सके। काँग्रेस और गैर-काँग्रेसी नेता एक ही स्तर के थे, अतः राष्ट्रीय व्यक्तित्व के अभाव में दलीय सदस्यों पर नियन्त्रण कम हो गया।

(2) प्रत्येक विधायक की निर्णायक स्थिति- चतुर्थ आम चुनाव के बाद काँग्रेस दल और कुल मिलाकर विरोधी दल के सदस्यों की संख्या लगभग सन्तुलित होने के कारण प्रत्येक विधायक की स्थिति इतनी महत्त्वपूर्ण हो गयी कि वह अपने को मन्त्रिमण्डल की ‘कुंजी’ समझने लगा।

(3) गैर-काँग्रेसी दलों की स्थिति में सुधार– चतुर्थ आम चुनाव में विरोधी दलों को आशातीत सफलता मिली और भारतीय संघ के लगभग आधे राज्यों में उनकी स्थिति इतनी सुदृढ़ हो गयी कि वे सब मिलकर मन्त्रिमण्डल का निर्माण कर सकते थे। इससे असन्तुष्ट और उपेक्षित काँग्रेसी विधायकों के मन में नयी आशायें और आकांक्षायें जागने लगीं।

(4) कांग्रेस की दल-बदल नीति में परिवर्तन- काँग्रेस के संसदीय बोर्ड ने दल-बदलुओं को कांग्रेस में शामिल करने के प्रश्न पर अपनी नीतियों में औपचारिक परिवर्तन किया। संसदीय बोर्ड ने यह निर्णय किया कि गैर-कांग्रेसी विधायकों को कांग्रेस में शामिल किये जाने के बारे में सभी प्रतिबन्ध हटा दिये जायें और इस मामले को दल के राज्य एककों के विवेकाधिकार पर छोड़ दिया जाये। इस नीति के फलस्वरूप बहुत से दल-बदलू विधायकों को कांग्रेस में शामिल कर लिया गया। कांग्रेस कार्य समिति ने हैदराबाद अधिवेशन में राज्यों के कांग्रेसी विधायकों को अन्य दल-बदलू विधायकों के साथ मिल-जुलकर सरकारें बनाने के लिए अधिकृत किया।

(5) पदलोलुपता- सत्ता प्रभुता का मोह और पद-लोलुपता ने देश के राजनीतिक वातावरण को इतना खराब और दूषित बना दिया कि विधायकों की दृष्टि से सिद्धान्त, आदर्श और नैतिकता का मूल्य और महत्त्व कम हो गया। विधायकों में अवसरवादिता की भावना अधिक हो गयी।

(6) व्यक्तिगत संघर्ष– अनेक बार विधायक और दल के नेताओं के बीच व्यक्तिगत संघर्ष और स्वभावों के न मिलने के कारण भी कई विधायक दल छोड़ने के लिए बाध्य हो जाते हैं।

(7) वरिष्ठ सदस्य की उपेक्षा– कई बार पार्टी में टिकटों का बँटवारा न्यायोचित नहीं होता। लगभग सभी प्रमुख दलों में दादागिरी की स्थिति है और जब दल को किन्हीं वरिष्ठ सदस्यों के दल के सर्वोच्च नेताओं के साथ अच्छे सम्बन्ध नहीं होते तब टिकटों के बँटवारे और अन्य अवसरों पर उन्हें निरन्तर उपेक्षा सहन करनी होती है और यह स्थिति उन्हें दल-बदल के लिए प्रेरित करती है।

(8) धन का प्रलोभन- अब तो पद का ही नहीं, धन का भी प्रलोभन दिया जाता है, जैसे चुनावों में वोट खरीदने की कोशिश की जाती है वैसे ही दल-बदल करने के लिए विधायकों को धनराशि दी जाने लगी है। केन्द्रीय गृह मन्त्री ने लोकसभा में एक बार बताया था कि दल-बदलू का भाव हरियाणा में बीस हजार रुपये से चालीस हजार रुपये तक आँका जा रहा है। अब यह राशि लाखों व करोड़ों में पहुँच चुकी है।

(9) जनता की उदासीनता- भारतीय मतदाता दल-बदल की घटना से उदासीन ही रहा। दल-बदल से न तो साधारण मतदाता को कोई धक्का लगा और न ही कोई चोट ही पहुँची ऐसे कितने उदाहरण सामने आये जब दल-बदल करने वाले विधायकों का सार्वजनिक रूप से स्वागत किया गया, फूलमालायें पहनायी गयीं और उनका जुलूस निकाला गया।

(10) विचारात्मक ध्रुवीकरण का अभाव- भारत में विभिन्न दलों में विचारात्मक ध्रुवीकरण का अभाव रहा है। कोई भी विधायक किसी भी दल में मिल जाये तो उसके सिद्धान्तों और विचारों पर कोई खास असर नहीं पड़ता। डॉ. सुभाष कश्यप लिखते हैं कि “जिस आसानी से वे एक दल का परित्याग कर दूसरे दल में सम्मिलित होते हैं उससे एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि वे किसी राजनीतिक सिद्धान्त अथवा किसी दल की राजनीतिक विचारधारा को अधिक महत्त्व नहीं देते। इसके साथ-साथ विभिन्न दलों में कोई वास्तविक विचारात्मक ध्रुवीकरण नहीं है।’

दल-बदल के राजनीतिक प्रभाव(Political Effects of Defections)

भारत में दल-बदल ने राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया है। उदाहरणार्थ, दल-बदल के कारण ही सन् 1967 के बाद बहुत-सी राज्य सरकारों का पतन हुआ। दल-बदल के कारण ही क्षेत्रीय दलों की शक्ति का अभ्युदय हुआ और अनेक राज्यों में संयुक्त सरकारें बनीं और बिगड़ीं। दल-बदलुओं को सन्तुष्ट करने के लिए मन्त्रिमण्डलों का अनावश्यक विस्तार किया गया और धन का अपव्यय किया गया। दल-बदल ने राजनीतिक भ्रष्टाचार को भी बढ़ाने में निर्णायक भूमिका अदा की है।

दल-बदल रोकने के उपाय (Measures to Control the Defections)

चतुर्थ आम चुनावों के बाद दल-बदल चिन्ता का विषय बन गया और दल-बदल को रोकने के लिए गम्भीरता से विचार मंथन प्रारम्भ हुआ। तत्कालीन केन्द्रीय गृहमन्त्री वाई. वी. चह्नाण की अध्यक्षता में भारत सरकार ने एक समिति नियुक्त की। इस समिति ने 18 फरवरी, 1969 को संसद के सामने दल-बदल को रोकने हेतु एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। समिति की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं-

(1) सभी राजनीतिक दल एक ऐसी व्यवहार संहिता अथवा परिपाटी समुच्चय को स्वीकार करें जिसमें लोकतान्त्रिक संस्थाओं के मूल औचित्य और आलोचनाओं का समावेश किया गया हो। ऐसी व्यवहार संहिता का पालन कराने के लिए समिति अथवा मण्डल का गठन किया जाये, जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता और विधिक पृष्ठभूमि वाले लोग हों।

(2) प्रतिनिधि को उस राजनीतिक दल से सम्बद्ध समझा जाना चाहिए जिसके तत्वावधान में उसने चुनाव जीता हो ।

(3) ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो निचले सदन का सदस्य न हो, प्रधानमन्त्री अथवा मुख्यमन्त्री नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।

(4) दल-बदल करने वाले विधायक को एक वर्ष के लिए अथवा जब तक वह अपने स्थान से पद त्यागकर पुनः निर्वाचित नहीं हो जाता, मन्त्रि पद, अध्यक्ष पद, उपाध्यक्ष पद अथवा किसी अन्य ऐसे पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए जिस पद के वेतन और भत्ते उन वेतन और भत्तों के अलावा जिसका दल-बदलू विधायक, विधायक के नाते हकदार है, भारत की अथवा राज्य की संचित निधि से अदा किये जाते हैं।

(5) अगर कोई राजनीतिक दल दल-बदल करने वाले विधायक को स्वीकार करता है तो उस दल को दी गयी मान्यता और उस दल के लिए सुरक्षित किया गया चुनाव चिह्न कम से कम दो वर्षों के लिए वापस ले लिया जाना चाहिए।

(6) मन्त्रिमण्डल सीमित आकार के होने चाहिए। मन्त्रिपरिषद् का आकार एकसदनी विधान-मण्डलों की स्थिति में विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या का दस प्रतिशत और द्विसदनी विधान-मण्डलों की स्थिति में निचले सदन के सदस्यों की कुल संख्या का ग्यारह प्रतिशत होना चाहिए।

(7) अगर कोई विधायक उस दल की सदस्यता छोड़ता है अथवा उसके प्रति निष्ठा का परित्याग करता है, जिसके चुनाव चिह्न पर वह चुना गया था तो वह संसद या राज्य विधानसभा का सदस्य रहन के अयोग्य होगा। अगर वह चाहे तो फिर चुनाव के लिए खड़ा हो सकता है।

सन् 1985 का 52वाँ संवैधानिक संशोधन- स्व. श्री राजीव गाँधी के नेतृत्व में सरकार ने भारतीय राजनीति को स्वच्छ बनाने के लक्ष्य से यह विधेयक जनवरी, 1985 में आठवीं लोकसभा में प्रस्तुत किया। सभी विरोधी दलों के नेताओं से आम राय लेने के बाद यह विधेयक संविधान का अधिनियम बना। वस्तुतः जिस शीघ्रता से यह विधेयक दोनों सदनों से पारित हुआ और जिस प्रकार की शर्तें इसमें सम्मिलित की गयीं, उससे लगता था कि स्व. श्री राजीव गाँधी ने अपने दल व नेतृत्व को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से इसे निर्मित किया था। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि हमारी शासन व्यवस्था में इसकी आवश्यकता वांछनीय थी। इसकी प्रमुख धाराएँ इस प्रकार थीं-

(1) इस अधिनियम के अनुसार, विधायक (विधान सभा या संसद का सदस्य) अपनी स्वेच्छा से दल से त्याग-पत्र देने पर या पार्टी से निष्कासित होने पर सदस्यता खो देगा। मनोनीत सदस्य भी अन्य दल की सदस्यता ग्रहण करने पर अयोग्य सिद्ध होंगे। यदि मनोनीत सदस्य किसी दल का सदस्य नहीं है और वह मनोनीत होने के छ: माह के बाद दूसरे दल की आस्था में विश्वास प्रकट करता है तो वह इस कानून के अन्तर्गत अयोग्य होगा।”

(2) उपर्युक्त अयोग्यता का प्रावधान ‘पार्टी की फूट’ या ‘विलय’ के मामले में लागू नहीं होगा अर्थात् दल की फूट के बाद 1/3 सदस्य छोड़कर नया दल बनाते हैं या उसके 2/3 सदस्य दूसरी पार्टी को स्वीकार करते हैं तो उपर्युक्त दल-बदल का प्रावधान लागू नहीं होगा।

(3) यदि सांसद या विधायक मतदान से बिना सूचित किये अनुपस्थित रहता है या दलीय संचेतक के निर्देश की अवज्ञा करता है तो वह भी सदन की सदस्यता खोयेगा। पार्टी से निष्कासित सदस्य भी सदन की सदस्यता खोयेंगे।

(4) दल-बदल के सभी मामलों का फैसला पीठासीन अधिकारी (सदन के अध्यक्ष) करेंगे जिनका निर्णय अन्तिम होगा। लेकिन इन अधिकारियों के लिए यह आवश्यक शर्तें बना दी गई हैं कि वे अपने दलीय सम्बन्धों को विच्छेद करेंगे। इससे इन अध्यक्षों की निष्पक्षता एवं साख पर आँच न आ सके।

(5) स्पीकर के सभी निर्णय न्यायिक पुनरावलोकन की सीमा से बाहर होंगे। विपक्षी दलों ने इस विधेयक की आलोचना की। निःसन्देह दल-बदल की परिपाटी भारतीय राजनीतिक की एक विशेष बुराई है।

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Anjali Yadav

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