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लिंग की समानता की शिक्षा में परिवार की भूमिका का वर्णन करें।
लिंग की समानता की शिक्षा में परिवार की भूमिका – बच्चा जैसा है या भविष्य में कैसा होगा, इस पर उसके परिवार के सदस्यों तथा पारिवारिक परिवेश का प्रभाव पड़ता है। बालक में अनुकरण की सहज प्रवृत्ति पायी जाती है जिसके कारण वह अपने से बड़ों का अनुकरण करता है। यदि पारिवारिक वातावरण में बालक-बालिकाओं के मध्य भेद-भावपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है तो बालक भी ऐसा ही करना सीखता है। परिवार में चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता हेतु कुछ कारक उत्तरदायी हैं-
1. पारिवारिक पृष्ठभूमि- परिवार में चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता हेतु उत्तरदायी तत्त्व पारिवारिक पृष्ठभूमि है। पिछड़ी तथा ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले परिवारों में लिंगीय असमानता अधिक देखने को मिलती है।
2. अशिक्षा एवं जागरूकता का अभाव- चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता हेतु परिवार के सदस्यों तथा माता-पिता का अशिक्षित और जागरूक न होना प्रमुख उत्तरदायी कारक है।
3. रूढ़िवादिता – रूढ़िवादी परिवारों में लिंगीय असमानता अधिक पायी जाती है । इस प्रकार के परिवार स्त्री शिक्षा के महत्त्व और नवीन प्रतिमानों को रूढ़िवादी विचारों के कारण नहीं अपनाते हैं जिससे उनकी असमानता में वृद्धि होती है ।
4. पिछड़ापन एवं गरीबी- पिछड़ेपन एवं गरीबी के कारण परिवार चुनौतीपूर्ण लिंगों की समानता में प्रभावी भूमिका नहीं निभा पाते । गरीबी तथा पिछड़ेपन के कारण खान-पान, रहन-सहन और शिक्षा पर प्रथम अधिकार लड़कों का समझा जाता है जिस कारण लड़कियाँ पीछे रह जाती हैं ।
5. सन्तानों की अधिकता- लोगों की मानसिकता है कि सन्तान ईश्वर की देन है । अतः वे सन्तानोत्पत्ति करते जाते हैं और किसी भी प्रकार के परिवार नियोजन के साधनों को नहीं अपनाते हैं, परन्तु अधिक सन्तान हो जाने के कारण परिवार उनके वस्त्र और भोजन की सुविधा जुटाने की ही चुनौती रहती है। ऐसे में उनकी शिक्षा या समानता की बात करना भी बेमानी हो जाता है ।
6. सामाजिक स्थिति — सामाजिक रूप से स्तरीकरण में निम्न पायदान पर स्थित जातियों की स्थिति चिन्तनीय है और इनमें भी स्त्रियों की स्थिति तो और भी दीनतापूर्ण है । इस कारण से चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता पर कोई भी ध्यान नहीं दिया जाता है ।
इस प्रकार परिवार के समक्ष उपर्युक्त कारक बाधा के रूप में उपस्थित होते हैं, जिस कारण से परिवार चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता की शिक्षा में प्रभावी भूमिका का निर्वहन नहीं कर पाता है। परिवार के अनगिनत कार्य हैं और उन कार्यों के अनुरूप कभी वह सख्त तो कभी कोमल व्यवहार अपनाता है, परन्तु इतना तो सत्य है कि परिवार अपनी भावी पीढ़ियों को एक अच्छा भविष्य देना चाहता है। पारिवारिक संवेदनाएँ, उत्साह और सुरक्षा किसी व्यक्ति की सफलता और एक अच्छे व्यक्ति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है लिंगीय असमानता घर-बाहर चारों ओर व्याप्त है तो प्रश्न उठता है कि जब परिवार अपनी सन्तानों के हितों के प्रति इतना उत्तरदायी है तो वह बालिकाओं के हितों की उपेक्षा क्यों करता. है ? इन असमानता और उपेक्षा के कारणों की पड़ताल निम्न बिन्दुओं में की जा रही है-
1. सामाजिक दृष्टिकोण – लिंगीय असमानता का प्रमुख कारण समाज का दृष्टिकोण है। समाज में बालिकाओं को बालकों से निम्नतर समझा जाता है। जन्म के पश्चात् ही किये जाने वाले रस्मों-रिवाज से बालक-बालिका के भेद-भावों का प्रारम्भ हो जाता है। सामाजिक कार्यों में भी बालकों को ही प्रमुखता प्रदान की जाती है, इसीलिए प्रत्येक परिवार में पुत्र जन्म की इच्छा की जाती है और पुत्री के जन्म होने के पश्चात् उसे भार समझा जाता हैं तथा येन-केन-प्रकारेण उसके विवाह के उत्तरदायित्व को पूर्ण करना ही माता-पिता अपना कर्त्तव्य समझते हैं। समाज का ऐसा मानना है कि सामाजिक कार्यों में पुरुष ही अग्रणी भूमिका निभाते हैं । अतः ऐसे में बालिकाओं के साथ असमानतापूर्ण व्यवहार किया जाता है ।
2. सांस्कृतिक कारण- भारतीय संस्कृति ऐसी है कि यहाँ संस्कृति तथा सांस्कृतिक क्रिया-कलापों के नाम पर स्त्रियों के साथ असमानतापूर्ण व्यवहार किया जाता है । स्त्री को बचपन में पिता, युवावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन माना गया है और ऐसा करने वाली स्त्री आदर्श स्त्री के मानकों पर खरी उतरती है। कन्या जन्म से लेकर आजीवन परिवार के लिए अभिशाप मानी जाती है, क्योंकि जन्म के समय वह माता को कष्ट देती है, युवावस्था में उसकी देख-रेख से पिता परेशान होते हैं तथा विवाह के समय भी पुत्री पिता के द्वारा कमाया गया धन समेटकर दहेज के रूप में लेकर जाती है । अतः इस प्रकार की अवधारणा के कारण भी चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता चली आ रही है।
3. अशिक्षा – हमारे समाज में अभी भी अधिकांश लोग अशिक्षित हैं और ये प्राचीन काल से चली आ रही बातों को बिना बुद्धि-विवेक और देश, काल आदि के सन्दर्भ में अपनाये बिना ही पालन करते चले आ रहे हैं। अशिक्षित माता-पिता पुत्रों की शिक्षा की व्यवस्था तो कर देते हैं जिससे वे शिक्षित होकर चार पैसे कमा सकें, परन्तु बालिकाओं के लिए चूल्हा-चौका ही उपयुक्त समझा जाता है और उनकी शिक्षा की किसी भी प्रकार की व्यवस्था नहीं की जा सकती हैं। यदि चुनौतीपूर्ण लिंग ही नहीं किसी भी जाति, धर्म इत्यादि के लोगों को मुख्य धारा में लाना है तो शिक्षा ही एक ऐसा हथियार है जिससे वे सभी समान धारा में आ सकते हैं, परन्तु यह हथियार ही स्त्रियों के हाथों से छीन लिया गया जिससे वे आज भी उपेक्षित और असमानतापूर्ण व्यवहार झेल रही हैं।
4. जागरूकता का अभाव — जागरूकता की कमी के कारण लड़के-लड़की में भेद-भाव किया, जाता है, क्योंकि पुत्र ही मोक्ष दिलाता है, पुन्न नामक नरक से पुत्र ही तारता है, वंश-परम्परा पुत्र ही चलाता है, पुत्री तो पराया धन होती है। अतः उसकी शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था करने से क्या लाभ होगा ? जागरूकता की कमी के कारण अभी भी पर्दा प्रथा, बाल-विवाह, दहेज प्रथा इत्यादि का प्रचलन है, जिसके दुष्परिणाम हम कन्या भ्रूण हत्या और कन्या शिशु हत्या के रूप में भी देख सकते हैं। जागरूकता के अभाव का ही परिणाम है कि बालिकाओं के लिए जो कार्य हेय दृष्टि से देखे जाते हैं वही कार्य बालकों के लिए शान बढ़ाने वाले होते हैं। इस प्रकार जागरूकता के अभाव के कारण घर-बाहर दोनों ही स्थलों पर बालिकाओं के समक्ष अनेक चुनौतियाँ आती हैं। फिर भी यदि उन्हें थोड़ा-सा अवसर मिलता है तो वे अपनी प्रतिभा के बल पर प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं।
5. असुरक्षात्मक वातावरण- स्त्रियों को घर की चारदीवारी में कैद कर विलास और सज्जा की वस्तु मात्र माने जाने के विचारों के परिणामस्वरूप समाज में तथा घर में भी उनके लिए असुरक्षात्मक वातावरण का सृजन हो गया है दहेज प्रताड़ना, घरेलू हिंसा, उनकी शिक्षा तथा अन्य अधिकारों का हनन तथा शारीरिक, मानसिक एवं शाब्दिक शोषण घर के बाहर अनजान लोगों के ही द्वारा नहीं होता, अपितु घर में सगे-सम्बन्धियों तथा परिवारीजनों की संलिप्तता भी आँकड़े व्यक्त करती है। स्त्री को एक वस्तु और भोग्या मानने के कारण ही उसके लिए चारों ओर असुरक्षात्मक वातावरण बन गया है जिस कारण उनको पर्दे के पीछे या घर में ही कैद रहना पड़ता है। सामाजिक सम्पर्क और गतिशीलता के बिना चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता भी ज्यों-की-त्यों रह जाती है।
6. सरकारी प्रोत्साहन की कमी― चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता को कम करने के लिए तमाम सरकारी योजनाएँ संचालित की जा रही हैं, परन्तु इन योजनाओं की हकीकत देखने से ज्ञात होता है कि वे कागज की शोभा में जितनी वृद्धि कर रही हैं उतनी जमीनी स्तर पर नहीं । बालिकाओं की शिक्षा के लिए धन तो आबंटित कर दिया जाता है, परन्तु वे पढ़ने कितने दिन जाती हैं, इसका निरीक्षण अत्यन्त असावधानी और अगम्भीरता से किया जाता है। इसी प्रकार सरकार बालिकाओं की शिक्षा के लिए जो राशि देती है उस राशि का प्रयोग शिक्षा पर न होकर माता-पिता द्वारा अन्य कार्यों में कर दिया जाता है। योजनाओं के समुचित क्रियान्वयन तथा लाभार्थी तक उसका लाभ पहुँचाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने और जागरूक करने की आवश्यकता अत्यधिक है ।
7. बालिका विद्यालयों तथा आवश्यक संसाधनों का अभाव – सामाजिक कुरीतियों तथा जागरूकता की कमी के कारण 21वीं सदी में भी भारत में ‘सह-शिक्षा’ के प्रति समुचित दृष्टिकोण का विकास जनसामान्य में नहीं हो पाया है। स्वतन्त्रता के पश्चात् से ही भारत के समक्ष अनेक चुनौतियाँ स्थित हैं जिनमें बालिकाओं की असमानताओं तथा ‘निर्विद्यालयीकरण’ (De-schooling) की चुनौती भी है, परन्तु वित्तीय समस्याओं और अन्य कारणों से आज भी बालिका विद्यालयों, महाविद्यालयों का उचित अनुपात में निर्माण नहीं हो सका है
विद्यालयों में शिक्षकों की भारी कमी हैं। ऐसे में महिला शिक्षिकाओं की कमी का होना कोई बड़ी बात नहीं है। बालिका विद्यालयों में मूलभूत संसाधनों, जैसे—कक्ष, पेयजल, शौचालय तथा बैठने की समुचित व्यवस्था और शिक्षक नहीं है, पुस्तकालय तथा प्रयोगशाला आदि की बात तो दूर है। ऐसे में पठन-पाठन के वातावरण के स्थान पर हुड़दंग का माहौल रहता है और माता-पिता अपनी बालिकाओं को विद्यालय नहीं भेजते हैं। बालिका विद्यालयों में मानवीय तथा भौतिक संसाधनों का अभाव उनकी असमानता के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी तत्त्व हैं।
8. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली- शिक्षा प्रणाली में कई प्रकार के दोष व्याप्त हैं, जैसे-
- शिक्षा के अपूर्ण उद्देश्य ।
- शिक्षा का सैद्धान्तिक होना और जीवन से असम्बद्ध होना ।
- अनुचित पाठ्यक्रम ।
- प्रवेश प्रक्रिया ।
- दोषपूर्ण मूल्यांकन ।
- दोषपूर्ण शिक्षण विधियाँ ।
- अनुशासनहीनता ।
- व्यावसायोन्मुखी शिक्षा का अभाव
- जीवन दक्षता की शिक्षा का अभाव ।
- व्यापकता का अभाव ।
इन दोषों के कारण शिक्षा व्यवस्था बालिकाओं को अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर पाती और अनुपयोगी समझकर माता-पिता भी शिक्षा पर बल नहीं देते हैं। विद्यालयी पाठ्यक्रम तथा किताबों में भी स्त्रियों को झाडू लगाते, खाना बनाते, बर्तन माँजते या कपड़े धोते हुए ही दिखाया जाता है, जबकि बालकों को ऑफिस में कार्य करते, गाड़ी चलाते इत्यादि । वर्तमान में महिलाएँ सभी क्षेत्रों में अवसर मिलने पर आगे बढ़ रही हैं, परन्तु इससे बचपन से ही उनके प्रति भेद-भाव आने लगता है और जब वे घर से बाहर निकलती हैं तो ऐसा लगता है कि वे मर्यादाओं को तोड़ रही हैं। स्त्री शिक्षा में अब तमाम प्रयासों के पश्चात् गति आ रही है, फिर भी उनके लिए निर्मित पाठ्यक्रम दोषपूर्ण है, उसमें उनकी रुचियों तथा आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रखा गया है। स्त्री शिक्षा को व्यवसायोन्मुखी बनाकर उन्हें स्वावलम्बी बनाया जा सकता है, परन्तु इस दिशा में प्रयासों का अभाव है। स्त्रियों को जीवन दक्षता की शिक्षा दी जानी आवश्यक है, क्योंकि उनके ऊपर उत्तरदायित्व अधिक होते हैं। विद्यालय से लेकर उच्च शिक्षा तक में जो शिक्षक आते हैं उनके अपने व्यक्तिगत विचार और धारणाएँ होती हैं या यूँ कहें कि वे समाज के संकुचित दृष्टिकोण के ही मतावलम्बी होते हैं और विद्यालयी वातावरण में भी बालक-बालिका के मध्य असमानतापूर्ण व्यवहार करते हैं। इस प्रकार दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली भी बालिकाओं की असमानता के लिए उत्तरदायी हैं।
9. आर्थिक समस्याएँ — कई वर्षों तक गुलाम रहने के कारण भारत की आर्थिक गति मन्द हो गयी और अभी भी आर्थिक समस्याएँ हैं । बढ़ती आबादी के कारण रोजगार के अवसर उस अनुपात में नहीं बढ़ पा रहे हैं। ऐसे में एक कमाने वाले व्यक्ति पर उसके पूरे परिवार का उत्तरदायित्व होता है। ऐसे में उनके लिए मूलभूत आवश्यकताओं का प्रबन्ध ही मुश्किल से हो पाता है, शिक्षा की बात तो बहुत दूर है। यद्यपि प्राथमिक स्तर तक की अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था सरकार द्वारा कर दी गयी है। किताबें, गणवेश, दोपहर का भोजन मुफ्त है, फिर भी पढ़ाई की अपेक्षा अभिभावक उनको ऐसे किसी कार्य में लगाना उचित समझते हैं, जिससे वे परिवार के लिए चार पैसे कमाने में योगदान दे सकें । इस प्रकार आर्थिक समस्या के कारण बालिकाओं के प्रति असमानतापूर्ण व्यवहार किया जाता है। सहज रही इस बात की कल्पना की जा सकती है कि जो परिवार दो समय के भोजन का भी समुचित प्रबन्ध नहीं कर सकता है वह किस प्रकार बालिकाओं की शिक्षा की व्यवस्था करेगा और किस प्रकार उनके विवाह आदि के व्यय का प्रबन्ध करेगा । अतः माता-पिता का ध्यान बालिकाओं की शिक्षा की ओर न होकर उनके विवाह के लिए चार पैसे बचाने की ओर अधिक होता है।
10. स्त्रियों का मनोविज्ञान — वर्षों से पुरुषों के संरक्षण में रहते आने से स्त्रियों की मनोवैज्ञानिक धारणा हो गयी है कि वे पुरुषों को अधिक सक्षम, श्रेष्ठ तथा स्वयं को दीन-हीन मानती हैं। स्त्रियों के इस मनोविज्ञान के कारण उसे और भी असमानता का सामना करना पड़ता है। स्त्रियाँ स्वयं ही बालिकाओं की असमानता और अधिकारों के हनन का पक्ष लेती हैं और यदि उन्हें आगे बढ़ने को अवसर प्रदान किये भी जाते हैं तो वे घर की सुरक्षात्मक चारदीवारी से आगे बढ़ना नहीं चाहती हैं जिस कारण वे पिछड़ी तथा असमानतापूर्ण स्थ में जीवन व्यतीत करती रहती हैं।
परिवार की भूमिका (Role of Family)
चुनौतीपूर्ण लिंगों के समक्ष अनेक चुनौतियाँ हैं और इन चुनौतियों में से अधिकांश की नींव पारिवारिक वातावरण से ही पड़ जाती है। ऐसे में इस लिंग की समानता हेतु शिक्षा में ‘प्रथम पाठशाला’ के रूप में जाने वाले परिवार की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। परिवार एकाकी हो या संयुक्त, सभी परिवारीजन जब तक चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता की विचारधारा को नहीं अपनायेंगे, यह कार्य प्रभावी नहीं हो सकता। फिर भी परिवार में माता और जो भी परिवार का अभिभावक और संरक्षक है, उन्हें अन्य परिवारीजनों के सहयोग द्वारा चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता की शिक्षा के लिए प्रयास इस प्रकार किये जाने चाहिए-
1. परिवार को गर्भावस्था में कभी भी भ्रूण का लिंग जानने या गर्भवती पर पुत्र जन्म को लेकर दबाव नहीं बनाना चाजिए।
2. कुछ सिर्फ परम्परा और मान्यताओं का रोना रोते हुए पुत्र जन्म की आस रखते हैं, जिससे भी लड़कियाँ उपेक्षित और असमान व्यवहार की शिकार हो जाती हैं।
3. परिवार में लड़का हो या लड़की, दोनों को समान अधिकार तथा सभी प्रकार के उत्तरदायित्व प्रदान किये जाने चाहिए ।
4. परिवार में लिंगीय अपमानसूचक शब्दावली तथा व्यवहार का प्रयोग नहीं होना चाहिए अन्यथा बच्चे भी उनका अनुकरण करेंगे।
5. परिवार को चाहिए कि वह उपलब्ध संसाधनों में बिना किसी भेद-भाव के लड़कियों और लड़कों के पोषण, खान-पान, रहन-सहन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर व्यय करें ।
6. पारिवारिक कार्यक्रमों में बालिकाओं की भागीदारी सुनिश्चित कर परिवार रूढ़िवादी लिंगीय धारणा को तोड़ने में सहायता प्रदान कर समाज के सामने आदर्श स्थापित कर सकते हैं।
7. परिवार को चाहिए कि वह बालिकाओं के विद्यालयीकरण तथा समाजीकरण को प्रोत्साहित करे।
8. परिवार को चाहिए कि वह सामाजिक कुरीतियों, जैसे-पर्दा प्रथा, बाल-विवाह, दहेज प्रथा, विधवाओं के पुनर्विवाह का निषेध, पैतृक सम्पत्ति पर स्त्री का अधिकार न होना, पितृ कर्मों में बालिकाओं के सम्मिलित होने का निषेध, मुखाग्नि देने का निषेध इत्यादि का बहिष्कार करे इस प्रकार यदि प्रत्येक परिवार हम बदलेंगे जग बदलेगा की नीति का पालन करे तो चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता में कमी आ सकती है ।
9. प्रौढ़ शिक्षा में परिवार के लोगों को सहयोग प्रदान करना चाहिए और आगे बढ़कर इसे ग्रहण करना चाहिए जिससे वे जागरूक हो सकें ।
10. परिवार को आपसी सहयोग के भाव का विकास करना चाहिए, इससे स्त्रियों की असमानता कम होगी ।
11. प्रत्येक परिवार को चाहिए कि वह लिंग की संस्कृति की अपेक्षा श्रम की संस्कृति और महत्त्व की स्थापना करें, जिससे स्त्री-पुरुष में असमानताओं का भाव कम हो सके ।
12. परिवार के कुछ पुश्तैनी उद्योग-धन्धे, व्यापार और सांस्कृतिक कलाएँ इत्यादि होती हैं। जिनको बालिकाओं को सिखाना चाहिए। इससे चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता में कमी आएगी।
13. चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता में कमी करने के लिए परिवार को बालिकाओं को भी व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए ।
14. चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता के लिए परिवारीजनों के घर में महिलाओं के निर्णय और इच्छाओं को पर्याप्त सम्मान प्रदान किया जाना चाहिए ।
15. परिवार को चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता में कमी लाने के लिए जनसंचार के साधनों, जैसे—-अखबार, रेडियो, टेलीविजन इत्यादि की व्यवस्था घर पर करनी चाहिए ताकि इनमें प्रसारित समाचारों और कार्यक्रमों से जागरूकता आये ।
16. परिवार को चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता में कमी करने के लिए अपनी प्रभावी भूमिका के निर्वहन हेतु सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं की सफलता में सहयोग प्रदान करना चाहिए।
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