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समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका जाति के संदर्भ में वर्णन कीजिए।
समाज के स्तरीकरण (Stratification) में जाति की भूमिका, अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है प्राचीन कालीन समाज में जाति न होकर वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन था जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के आधार पर वर्ण थे वर्ण-व्यवस्था के विषय में ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसका आधार काम था न कि जन्म। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था परिवर्तनीय तथा उदार थी। जाति जटिल प्रक्रिया तथा स्वरूप है। जाति के अर्थ के स्पष्टीकरण हेतु कुछ परिभाषायें दृष्टव्य हैं-
जाति अर्थात् जिसमें व्यक्ति उत्पन्न हो। इस प्रकार जाति वह है जिसमें व्यक्ति जन्म लेता है अर्थात् जाति का आधार कर्म न होकर जन्म होता है।
जाति के लिए आंग्ल भाषा में ‘कास्ट’ (Caste) शब्द प्रयुक्त किया जाता है, जिसका अर्थ होता है- ‘प्रजाति, जन्म या नस्ल’। ‘कास्ट’ शब्द लैटिन के ‘Casts’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है – विशिष्ट, अमिश्रित या प्रजाति । दृष्टव्य है-
हिन्दी लैटिन अंग्रेजी
जाति = Casts = Caste = प्रजाति, जन्म या नस्ल ।
विशिष्ट, अमिश्रित, प्रजाति
संक्षेप में जाति वंशानुक्रम पर आधारित एक विशेष सामाजिक समूह है जिसका सदस्य व्यक्ति जन्म से हो जाता है और यह अपरिवर्तनीय और वंश-परम्परा से चली आ रही होती है।
परिभाषीय अर्थ – जाति की अवधारणा को और अधिक स्पष्टीकरण हेतु विद्वानों द्वारा प्रदान की गयी कुछ परिभाषायें दृष्टव्य है-
सी. एच. कूले के अनुसार- “जब कोई वर्ग पूर्णतया वंशानुगत हो जाता है तो उसे जाति कहते हैं।”
“When a Class is same what strictly, heredity, we call it Caste.”
ब्लाण्ट महोदय के अनुसार ” जाति एक अन्तर्विवाहों वाले समूहों का संकलन है, जिसका एक सामान्य नाम है, जिसकी सदस्यता जन्मजात है और जो सामाजिक सम्बन्धों के लिए अपने सदस्यों के ऊपर कुछ नियन्त्रण लगाती है, एक सामान्य परम्परागत व्यवसाय का अनुकरण करती है, नियन्त्रणों की उत्पत्ति का दावा करती है और सामान्य रूप से एक सजातीय समूह का निर्माण करने वाली समझी जाती है।”
ई. ए. ग्रेट के अनुसार – ” जाति को एक अन्तर्विवाह वाले समूह अथवा ऐसे समूहों के संकलन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसका एक सामान्य नाम तथा समान परम्परागत व्यवसाय होता है जो एक ही स्रोत से उत्पन्न होने का दावा करते हैं और सजातीय समुदाय का निर्माण करने वाले समझे जाते हैं।”
“It may be defined an endogamous group of collection of such group’s bearing a common name, having the same traditional occupation, claiming descent from the same source and commonly regarded as forming’s single homogeneous community.”
जाति की विशेषताएँ (Characteristics of Caste )
उपर्युक्त परिभाषाओं तथा अर्थ के स्पष्टीकरण द्वारा जाति की सामान्य तथा विद्वानों द्वारा बतायी गयी विशेषतायें निम्न प्रकार दृष्टिगत होती हैं—
1. जाति की सामान्य विशेषताएँ:
(i) यह जन्मजात व्यवस्था होती है।
(ii) यह स्थायी होती है।
(iii) जाति वंशानुगत होती है।
(iv) सजातीय समूहों का निर्माण होता है।
(v) सभी जातियों द्वारा कुछ सामान्य परम्पराओं का अनुसरण किया जाता है।
(vi) जातियों के कुछ परम्परागत नाम एवं व्यवसाय होते हैं।
(vii) जातियाँ सामाजिक स्तरीकरण का कार्य करती हैं।
(viii) जातियों के द्वारा सामाजिक नियंत्रण की स्थापना की जाती हैं ।
2. श्री दत्ता के अनुसार जाति की विशेषताएँ :
(i) प्रत्येक जाति के लोग अपनी ही जातियों के मध्य वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
(ii) प्रत्येक जाति का जन्म से ही व्यवसाय निश्चित होता है।
(iii) अन्य जातियों के साथ खाने-पीने तथा उठने-बैठने पर प्रतिबन्ध होता है ।
(iv) जाति की सदस्यता जन्मजात होती है ।
(v) जातियों में सामाजिक स्तरण पाया जाता है ।
(vi) जाति व्यवस्था में ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है ।
3. डॉ. घुरिये के अनुसार जाति की विशेषताएँ :
(i) सामाजिक स्तरण ।
(ii) नगरीकरण का प्रभाव ।
(iii) व्यावसायिक प्रतिबन्ध ।
(iv) यातायात एवं संचार के साधनों का प्रभाव ।
(v) नवीन व्यवसायों का जन्म ।
(vi) नवीन सामाजिक इकाईयों का उदय।
(vii) जीवन व्यतीत करने विषयी नियम।
(viii) नवीन अर्थव्यवस्था तथा औद्योगिकीकरण ।
(ix) समाज का खण्डनात्मक विभाजन ।
(x) सामाजिक अधिनियमों तथा कानूनों का प्रभाव ।
जाति की उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर जाति के कार्य तथा समाज में उसके महत्त्व के विषय में भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है
समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका के सशक्तीकरण के साधन के रूप में जाति के कार्य तथा भूमिका
समाज तथा समाजीकरण की प्रक्रिया में लिंग को सशक्त करने में जाति के कार्य तथा भूमिका भारतीय समाज के सन्दर्भ में अत्यधिक है । जातीय अवधारणा की जड़ें भारतीय समाज में दिन-प्रतिदिन गहरी होती जा रही हैं। यद्यपि भारतीय संविधान में जाति के आधार पर भेद-भाव और अस्पृश्यता की समाप्ति कर समता मूलक समाज की स्थापना की है। परन्तु आज भी जातिगत आधार पर ऊँच-नीच की भावना चरम सीमा पर है। उच्च समझी जाने वाली जातियाँ निम्न जातियों का शोषण करती हैं, उनकी स्त्रियों का अपमान करती हैं, आर्थिक संसाधनों, समाज और समाजीकरण की प्रक्रिया पर अपना एकाधिकार समझकर उनको आगे आने के अवसर प्रदान नहीं करती हैं। आज भी जातियों में निम्न जातियाँ तथा इनमें भी स्त्रियों की दशा बदतर है। अतः समाज में इनको बराबरी का अधिकार मिले, शिक्षा मिले, यह सम्भव नहीं हो पा रहा है, जिससे ये स्त्रियाँ कूप-मण्डूक बनी रह जाती हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी शोषण की परिपाटी चलती रहती है और इनका समाजीकरण अत्यन्त संकीर्ण होता है जिससे इनकी दशा में अपेक्षित सुधार नहीं आ पा रहे हैं। यह विदित है कि जातियों का उसके व्यक्तियों पर प्रभाव तथा नियन्त्रण होता है और यदि जातियाँ कृत-संकल्पित होकर आयें तो समाज और समाजीकरण में लिंगीय सशक्तीकरण को बढ़ावा प्रदान कर सकती हैं। समाज तथा समाजीकरण में लिंगीय सशक्तीकरण हेतु जाति के कार्य तथा भूमिकायें निम्न प्रकार हैं-
1. जाति के आधार पर तथा उन जातियों में भी लिंगीय आधार पर स्त्रियों की उपेक्षा तथा भेद-भाव की समाप्ति का संकल्प लेना ।
2. बालिका शिक्षा के प्रोत्साहन द्वारा ।
3. संगठित होकर बालिका शिक्षा के लिए विद्यालयों तथा आवश्यक संसाधनों की व्यवस्था करना।
4. महिलाओं को जो आरक्षण प्राप्त है, उसका लाभ दिलाना तथा लाभ प्राप्ति की योग्यता का विकास करना ।
5. महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए महिला स्वयं समूहों का निर्माण करना ।
6. महिलाओं को सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान कर इनके समाजीकरण को जातियाँ समुचित दिशा प्रदान कर सकती हैं ।
7. महिलाओं को समाज और समाजीकरण की प्रक्रिया में अग्रणी भूमिका निभाने के अवसर प्रदान करने के लिए जातियों द्वारा उन्हें उद्योग-धन्धों तथा व्यापार में संलग्न करना ।
8. महिलाओं से सम्बन्धित सरकारी तथा गैर-सरकारी योजनाओं की सफलता में सहायता करके।
9. जातिगत आधार पर महिलाओं की सशक्त स्थिति से प्रोत्साहित होकर उनको और अधिक आगे आने के अवसर प्रदान करना ।
10. प्रौढ़ शिक्षा को अपनाकर जातियों द्वारा लैंगिक भूमिका के सशक्तीकरण तथा समाजीकरण के दायित्व की पूर्ति की जानी चाहिए ।
11. कुछ जाति तथा जनजातियों में महिलाओं से सम्बन्धित रूढ़ियों तथा अन्ध-विश्वास प्रचलित हैं, जिन्हें समाप्त करके जातियों को लैंगिक सुदृढ़ता का कार्य समाज में करना चाहिए।
12. जातियों को चाहिए कि वे घर तथा बाहर महिलाओं को निर्णय लेने, उत्तरदायित्व सँभालने की छूट दे जिससे वे सशक्त तथा सामाजिक बनेंगी ।
13. बन्द जातियों को अपनी संस्कृति की रक्षा के साथ-साथ कुछ विषयों में खुलापन अपनाना चाहिए जिससे स्त्रियाँ अपनी क्षमताओं का सदुपयोग और अन्य जातियों के साथ सामाजिक संवाद स्थापित कर सकें ।
14. इस बात का प्रसार करना कि संविधान और कानून की दृष्टि में महिलायें पुरुषों के समान हैं ।
15. जागरूकता कार्यक्रमों के द्वारा जातियों को लिंगीय सुदृढ़ता के कार्य हेतु प्रेरित करना ।
16. विभिन्न जातियों के सम्मानित तथा अग्रणी सदस्यों से प्रशासन अपील करे जिससे उनके जाति विशेष पर प्रभाव का सदुपयोग लिंग के अन्तर्गत हो ।
17. परस्पर जातियों के मध्य संवाद स्थापित कर महिलाओं की सुदृढ़ता के लिए एकजुट होना जिससे उनके समाजीकरण की प्रक्रिया में तीव्रता आये और समाज को लाभ पहुँचे ।
18. महिलाओं को समाज में समुचित सम्मान प्रदान करके तथा बेवजह की रोक-टोक को रोककर जातियों द्वारा महिला समाजीकरण को दिशा प्रदान करनी चाहिए।
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