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समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका संस्कृति के संदर्भ में | Role of gender in society and socialization with reference to culture

समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका संस्कृति के संदर्भ में | Role of gender in society and socialization with reference to culture
समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका संस्कृति के संदर्भ में | Role of gender in society and socialization with reference to culture

समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका का वर्णन संस्कृति के संदर्भ में कीजिए। 

समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका संस्कृति के संदर्भ में- समाज तथा समाजीकरण की प्रक्रिया में स्त्री-पुरुष दोनों की ही प्रभाविता होनी चाहिए, परन्तु लिंगाधारित भेद-भावों के कारण स्त्रियों को समाज में उचित स्थान प्रदान नहीं किया जाता है, जिससे वे समाजीकरण में भी पीछे रह जाती हैं। परिवार, जाति तथा धर्म के साथ-साथ लिंगीय सुदृढ़ीकरण तथा समाज और समाजीकरण की प्रक्रिया में संस्कृति की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है संस्कृति शब्द जटिल है। इसकी अलग-अलग प्रकार से व्याख्या तथा अर्थ करने की चेष्टा की गयी हैं। संस्कृति के विषय में विवेचन निम्नांकित है—

शाब्दिक अर्थ – संस्कृति शब्द का विच्छेद निम्न प्रकार है-

सम् + कृ + क्तिन् = शोधन या परिष्कृत करना

भारतीय शास्त्रों में षोडश संस्कारों का उल्लेख प्राप्त होता है जो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त सम्पादित किये जाते हैं। प्रत्येक संस्कार के द्वारा मान्यता है कि व्यवहार का शोधन होता है। संस्कृति शब्द से तात्पर्य संस्कारों से है और जैसे-जैसे संस्कारों की ओर बालक अग्रसर होता है वैसे-वैसे उसका समाजीकरण (Socialization) भी सम्पन्न होता है।

अंग्रेजी में संस्कृति की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार है-

अंग्रेजी ← Culture → English

मस्तिष्क का ज्ञानवर्द्ध = Cultra = खेती तथा शिष्टता आदि 

इस प्रकार आंग्ल भाषा में संस्कृति के लिए ‘कल्चर’ शब्द जो लैटिन के ‘कल्ट्रा’ से बना है, जिससे तात्पर्य है— नवीन सृजन, संवर्द्धन तथा व्यवहार के प्रतिमान का विकास ।

संस्कृति के अर्थ के स्पष्टीकरण हेतु परिभाषायें निम्न प्रकार हैं-

जे. एफ. ब्राउन के अनुसार- “संस्कृति किसी समुदाय के व्यवहार का एक समग्र ढाँचा है जो अंशतः भौतिक पर्यावरण से अनुकूलित होता है। यह पर्यावरण प्राकृतिक एवं मानव निर्मित दोनों प्रकार का हो सकता है, किन्तु प्रमुख रूप से यह ढाँचा सुनिश्चित विचारधाराओं, प्रकृतियों, मूल्यों तथा आदर्शों द्वारा अनुकूलित होता है, जिनका विकास समूह द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है ।”

टायलर के शब्दानुसार – “संस्कृति एक जटिल सम्पूर्ण है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नीति, विधि, रीति-रिवाज और समाज के सदस्य होकर मनुष्य द्वारा अर्जित अन्य योग्यतायें तथा आदतें सम्मिलित हैं ।”

मैकाइवर तथा पेज के अनुसार “यह मूल्यों, शैलियों, भावात्मक लगावों तथा बौद्धिक अभियानों का क्षेत्र है। इस प्रकार संस्कृति सभ्यता का बिल्कुल प्रतिवाद है। वह हमारे रहने और सोचने के ढंगों में, दैनिक क्रिया-कलापों में, कला में, साहित्य में, धर्म में, मनोरंजन और सुखोपभोग में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।”

संस्कृति के सार्वभौम तत्त्व (Universal Elements of Culture) — संस्कृति के सार्वभौम तत्त्व सभी संस्कृतियों में पाये जाते हैं, परन्तु इनके रूप अलग-अलग होते हैं। क्लार्क विजलर ने मानव जाति के प्रत्येक समूह की संस्कृति के सार्वभौम तत्त्व निम्न प्रकार माने हैं-

समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका के सशक्तीकरण के साधन के में प्रचलित संस्कृति तथा संस्कृति के कार्य तथा भूमिका– संस्कृति कई प्रकार की रूप होती है, अत: यह संस्कृति के प्रकार और प्रवृत्ति पर निर्भर करता है कि वह अपने सदस्यों से क्या चाहती है ? हमारी भारतीय संस्कृति अपने आदर्श रूप में मिलती है । यहाँ प्रेम, त्याग, दया, परोपकार, सहिष्णुता आदि पर बल दिया जाता है, परन्तु पुरुष-प्रधान समाज में स्त्रियों को त्याग तथा दया की बलि पर चढ़ाकर उनके समाजीकरण को अवरुद्ध कर दिया जाता है। चूल्हे चौके की धुन्ध में सिमटकर ही वे आजीवन रह जाती हैं और कभी भी इसके बाहर की दुनिया को देखने और समझने का उनको अवसर ही प्रदान नहीं किया जाता है । बन्द संस्कृतियों में तो यह और भी होता है, खुली संस्कृति में फिर भी स्त्रियों को समाज से सम्पर्क स्थापित करने तथा सामाजिक क्रिया-कलापों की छूट होती है जिस कारण से उनमें समाजीकरण और सुदृढ़ता आती है । संस्कृति समान समाजीकरण और लैंगिक सुदृढ़ता हेतु किये जाने वाले कार्यों और भूमिका का रेखांकन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत दृष्टव्य हैं-

1. स्वस्थ सांस्कृतिक मूल्यों का विकास – प्रत्येक संस्कृति में अन्य संस्कृतियों के तत्त्व समाहित होते हैं, जिसके गुण के साथ-साथ कुछ दोष हैं, जिसके दुष्परिणाम भी देखने को मिलते हैं। जैसे भारतीय संस्कृति के परिणामस्वरूप स्त्रियों की सामाजिक, शैक्षिक आदि स्थिति में ह्रास हुआ जिससे इनको सामाजिकता तथा समाज में लिंगीय आधार पर उपेक्षित किया गया। मुस्लिम तथा अंग्रेजी संस्कृति के परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति में कुछ दोष, जैसे – मूल संस्कृति की उपेक्षा तथा उसका ह्रास, स्त्रियों की सामाजिक सहभागिता में कमी, पर्दा प्रथा, बाल-विवाह, स्त्रियों को भोग-वासना तथा तृप्ति की वस्तु मात्र मानना, भारतीय ज्ञान – विज्ञान की उपेक्षा, अपनी अनमोल धरोहर तथा संस्कृति की अवमानना, सांस्कृतिक विलम्बना (Cultural Lag) इत्यादि आ गये । परिस्थितियों में हमें स्वस्थ लैंगिक दृष्टिकोणों के विकास के लिए स्वस्थ सांस्कृतिक मूल्यों का विकास करना होगा। संस्कृति में आये दोषों को दूर करके तथा किसी भी संस्कृति की केवल अच्छाइयों को ही आत्मसात् करना चाहिए। उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस युग में अन्य संस्कृतियों से सम्पर्क स्थापित किये बिना तो नहीं रहा जा सकता है, परन्तु आवश्यकता इस बात की है कि स्वस्थ सांस्कृतिक मूल्यों के विकास हेतु सांस्कृतिक शिक्षा प्रदान करने वाले अभिकरणों, परिवार, समाज तथा विद्यालय आदि को सतर्क होना पड़ेगा। हम अन्य संस्कृतियों को आत्मसात् अवश्य करें, परन्तु भारतीय संस्कृति ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ के भाव से ओत-प्रोत हैं। इसका निरादर कदापि न करें, क्योंकि नारी अबला नहीं है अपितु एक नहीं दो-दो मात्रायें नर से भारी नारी वर्तमान में पाश्चात्य संस्कृति हमें खूब रास आ रही है जिसके चक्कर में हम अपनी प्राचीन संस्कृति को विस्मृत करते जा रहे हैं, परन्तु यह बताना परिवार, समाज तथा विद्यालय का कार्य है कि प्राचीन कालीन भारत में स्त्रियाँ सह-शिक्षा प्राप्त करती थीं, युद्ध संचालन करती थीं, शास्त्रार्थ करती हैं, अस्त्र-शस्त्र कला में निपुण थीं, शासन के महत्त्वपूर्ण विषयों पर मंत्रणा करती थीं, समस्त प्रकार के सामाजिक, धार्मिक क्रिया-कलापों में भाग लेती थीं वहाँ बेटा-बेटी में भेद-भाव नहीं था अतः हमें लैंगिक सुदृढ़ता हेतु स्वस्थ सांस्कृतिक मूल्यों का विकास और उसका समावेश करना होगा ।

2. नमनीयता तथा उदारता की शिक्षा- कुछ संस्कृतियाँ अपने अस्तित्व के खोने के भय से अन्य संस्कृतियों के सम्पर्क में नहीं आना चाहतीं तथा उन्हें हेय समझती हैं, परन्तु वर्तमान में आवश्यकता है अन्य संस्कृतियों के प्रति नमनीय तथा उदार दृष्टिकोण की। जैसे हमारे समाज में अनुदारता का परिणाम है स्त्रियों के अधिकारों की उपेक्षा, उसी प्रकार सांस्कृतिक दूरी बनाकर हम कूप-मण्डूक बनकर रह जाते हैं। कुछ संस्कृतियाँ ऐसी हैं जो ‘मातृ-प्रधान’ हैं तथा वहाँ स्त्रियों को पुरुषों के समकक्ष अधिकार और उत्तरदायित्व प्राप्त हैं । अतः ऐसे में संस्कृति की नमनीयता और उदारता के कारण इन अच्छे तत्त्वों को ग्रहण कर लिंगीय सुदृढीकरण तथा समाजीकरण की प्रक्रिया में तीव्रता लाने का कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।

3. गतिशीलता – समाज, सामाजिकता तथा लैंगिक सुदृढ़ता में संस्कृति का गतिशील होना अत्यावश्यक है गतिशील संस्कृति बहते हुए जल की भाँति सदैव स्वच्छ और निर्मल होती है। इसके विपरीत अगतिशील संस्कृतियों में बुराइयाँ, अन्ध-विश्वास, कुरीतियाँ और लैंगिक आधार पर भेद-भाव व्याप्त हो जाते हैं। वर्तमान में जो संस्कृतियाँ गतिशीलता को अपना रही हैं वे पुरुषों के समान ही महिलाओं को भी स्थान प्रदान कर रही हैं, जिससे लैंगिक सुदृढ़ता, समाज में उनका महत्त्व तथा समाजीकरण की गति में तीव्रता आयेगी ।

4. अन्य संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता का भाव — एक संस्कृति को अन्य संस्कृतियों के प्रति भी सहिष्णुता का भाव रखना होगा। वर्तमान में भूमण्डलीयता (Globalisation) की प्रवृत्ति के कारण सम्पूर्ण विश्व एक ‘वैश्विक ग्राम’ (Global Village) के रूप में परिणत हो गया है। अतः ऐसे में वैश्विक धरातल पर स्त्रियों की समानता, स्वतन्त्रता, आदर, मान तथा सम्मान की आवश्यकता महसूस की जा रही है। ऐसी संस्कृतियाँ जिनमें स्त्रियों को समाज में उपेक्षित रखा गया है, उनके समाजीकरण की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर दिया गया है वे अन्य संस्कृतियों से सीख लेकर अपनी धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि क्षेत्र में उन्नति कर सकती हैं। सांस्कृतिक क्षरण से बचने के लिए आधी आबादी को समाज से सम्पर्क स्थापित करने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करने होंगे और वर्तमान में संस्कृतियाँ अपने इस कर्त्तव्य का निर्वहन कर भी रही हैं।

5. चरित्र निर्माण तथा नैतिकता – संस्कृतियाँ सामाजिक नियंत्रण का कार्य भी सम्पन्न करती हैं, अतः संस्कृति के द्वारा चरित्र निर्माण तथा नैतिकता के विकास का कार्य सम्पादित किया जाता है। ऐसा समाज जहाँ चरित्र तथा नैतिकता से परिपूर्ण व्यक्ति हों तो लैंगिक भेद-भावों में काफी कमी आ जायेगी और ऐसे में तमाम बुराइयाँ और दोष स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे। आदर्श चरित्र तथा नैतिकता सम्पन्न, व्यक्ति न तो स्त्रियों की सामाजिकता और समाजीकरण का हनन करेगा और न ही गर्भ में कन्याओं की हत्या, दहेज, बाल-विवाह, कन्या शिशु हत्या, स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार, शारीरिक तथा भाषायी हिंसा का प्रयोग करेगा, अपितु इसके विपरीत ये स्त्रियों के विविध रूपों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का ही प्रदर्शन करेंगे । अतः संस्कृति समाज, समाजीकरण तथा लैंगिक सुदृढ़ता में अपनी भूमिका का निर्वहन चरित्र-निर्माण तथा नैतिकता के विकास के द्वारा सम्पन्न करती है ।

6. स्वाभाविक शक्तियों का विकास- वर्तमान शिक्षा का सम्प्रत्यय ही है अन्तर्निहित शक्तियों का विकास अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति वह चाहे स्त्री हो या पुरुष, उसमें कुछ शक्तियाँ निहित होती हैं। शिक्षा के द्वारा इन शक्तियों का विकास किया जाता है। स्त्रियों में भी पुरुषों के समान ही शक्तियाँ निहित होती हैं, परन्तु पुरुष प्रधान समाज में पुरुष स्वयं को श्रेष्ठ समझकर स्त्रियों पर शासन करने का कार्य करते हैं जिससे स्त्रियों की सामाजिकता और समाजीकरण में बाधा उत्पन्न होती है। इस प्रकार इस विषय में संस्कृति को प्रभावी भूमिका का निर्वहन करते हुए स्त्री-पुरुष दोनों की अन्तर्निहित शक्तियों के सर्वांगीण विकास का प्रयास करना चाहिए, जिससे पुरुषों में स्त्रियों के प्रति उपेक्षा और अपनी श्रेष्ठता का भाव समाप्त हो जायेगा और लैंगिक सुदृढ़ता तथा समाज में सक्रिय भागीदारी के साथ-साथ समाजीकरण की गति में भी तीव्रता आयेगी ।

7. सामाजिक नियन्त्रण संस्कृति के द्वारा सामाजिक नियंत्रण का कार्य सम्पन्न किया जाता है, परन्तु सांस्कृतिक दोषों के कारण यह नियंत्रण पुरुषों की अपेक्षा लिंगीय भेद-भावों के कारण स्त्रियों पर ही अधिक होता है और इसे प्रभावी तरीके से लागू किया जाता है। पुरुष मनमाना रवैया अपनाते हैं। स्त्रियों को घर की चारदीवारी तक सीमित रखना, कन्याओं की भ्रूण में तथा जन्म के पश्चात् हत्या कर देना, बालिकाओं के साथ उपेक्षा का भाव तथा शिक्षा आदि की व्यवस्था न करना, घर तथा बाहर शोषण और व्यभिचार की घटनायें होती रहती हैं। यदि संस्कृति सामाजिक नियंत्रण के अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन समुचित रूप से करे तो लिंगीय भेद-भावों के प्रति लोगों में भय व्याप्त होगा जिससे उनको समाज में समाजीकरण द्वारा स्वयं के सशक्तीकरण हेतु प्रेरणा प्राप्त होगी ।

8. वयस्क जीवन की तैयारी— वयस्क जीवन हेतु तैयारी को संस्कृति के द्वारा प्रमुखता प्रदान की जानी चाहिए। इसके अन्तर्गत वास्तविक जीवन को जीने की योग्यता, समस्याओं के समाधान, सन्तानोत्पत्ति, आजीविका की कुशलता, पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन, अधिकारों की सीमा, सामाजिक तथा राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों से अवगत कराया जाना चाहिए। संस्कृति के व्यावहारिक तथा जीवनोपयोगी तत्त्वों को समाविष्ट करना चाहिए जिससे साथ-साथ मिल-जुलकर रहने और जीवन व्यतीत करने की कला का विकास हो सके । वयस्क जीवन की तैयारी लिंगीय सहयोग के बिना कदापि सम्भव नहीं है। अतः इस प्रकार समाजीकरण की गति को दिशा प्रदान कर लिंगीय सुदृढता की नींव रखी जा सकती है।

9. समानता तथा सामूहिकता की भावना — कुछ संस्कृतियों में रूढ़ियों तथा असमानताओं पर बल दिया जाता है, वहीं दूसरी ओर जो संस्कृतियाँ समानता और सामूहिकता की भावना पर आधारित हैं उनमें लिंगीय भेद-भाव के कम होने से गतिशीलता है। ऐसी संस्कृतियों से बालक-बालिकाओं में समभाव रखना, परिवार से लेकर विद्यालय, समाज तथा कार्य-स्थल पर सामूहिकता की भावना के साथ काम करने की प्रवृत्ति का विकास होगा। इस प्रकार की संस्कृति के दो लाभ हैं। प्रथम तो इससे बालिकाओं में आत्म-विश्वास आयेगा और द्वितीय पुरुषों की प्रधानता का भ्रम टूटेगा। इस प्रकार समानता और सामूहिकता के गुणों वाली संस्कृति लिंगीय सुदृढ़ीकरण और समाजीकरण में सहायक है ।

10. समाज-सुधार को प्रोत्साहन— संस्कृति की शिक्षा हमें विवेकशील तथा समीक्षात्मक बुद्धि सम्पन्न बनाती है और इस प्रकार की बुद्धि युक्त पुरुष के समक्ष ये प्रश्न अवश्य उठेंगे कि स्त्रियों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों ? बाल-विवाह तथा दहेज-प्रथा जैसी कुरीतियाँ क्यों ? इत्यादि यदि समाज पुरुष-प्रधान है तो उनकी जननी भी तो कोई माता ही है, अतः ऐसे व्यक्ति समाज में व्याप्त बुराइयों को सुधारने का कार्य करेंगे। राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महात्मा गाँधी तथा स्वामी विवेकानन्द जैसे समाज-सुधारकों ने भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को उनका गौरवमयी स्थान प्रदान कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिससे स्त्रियों की स्थिति तथा सामाजिक दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन आया है। स्त्रियों को प्रत्येक क्षेत्र में मान-सम्मान प्राप्त हो रहा है जिससे वे समाज में मजबूत स्थिति प्राप्त कर रही हैं।

11. अर्न्तसांस्कृतिक अवबोध में वृद्धि – अर्न्तसांस्कृतिक अवबोध के द्वारा परस्पर संस्कृतियों के अवबोध अर्थात् आपसी समझ में वृद्धि होती है और प्रेम तथा सद्भावना के विकार द्वारा मनुष्य परस्पर समानता और सम्मान का व्यवहार करना सीखता है और वह इस व्यवहार को स्त्रियों साथ भी करता है। इस प्रकार सांस्कृतिक अवबोध द्वारा लैंगिकता के भेद-भाव को न्यून किया जा सकता है जिससे समाज में लैंगिक सुदृढ़ता में वृद्धि होगी ।

12. नेतृत्व का भाव – संस्कृति को सुयोग्य नेतृत्व जो कर्मठ, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ तथा सच्चरित्र हों, का विकास करना चाहिए। ऐसा नेतृत्व ही सांस्कृतिक तत्त्वों को समृद्ध करने और आगे बढ़ाने का कार्य सम्पन्न कर सकता है। नेतृत्व में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह एकपक्षीय नहीं होना चाहिए, अपितु नेतृत्व में स्त्री-पुरुष दोनों का ही योगदान होना चाहिए। सांस्कृतिक तत्त्व जब उभयपक्षीय नेतृत्व को प्रमुखता देंगें तो स्त्रियाँ समाज की मुख्य धारा से जुड़ेंगी, उनके समाजीकरण में तीव्रता आयेगी तथा लैंगिक भेद-भावों में कमी और लैंगिक सुदृढ़ता आयेगी ।

13. कर्त्तव्य-बोध का विकास- संस्कृति को कर्त्तव्य-बोध की भावना चाहे स्त्री हो या पुरुष, समान रूप से भरना चाहिए जिससे लिंग की संस्कृति न होकर कार्य और कर्तव्य की संस्कृति का जन्म हो । कर्तव्य निर्वहन में स्त्री हो या पुरुष, जब समान रूप से सहभाग लेंगे तो समाजीकरण तथा लिंगीय सुदृढ़ता में वृद्धि आयेगी ।

14. परस्पर निर्भरता का बोध— स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बिना स्त्री अपूर्ण है। जैविक से लेकर सामाजिक तथा सांस्कृतिक इत्यादि कार्यों में दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं। अतः एक को कमजोर करना, उसकी अवहेलना करना, दूसरे की अवहेलना करना भी है । इस प्रकार संस्कृति परस्पर निर्भरता के बोध द्वारा स्त्रियों के महत्त्व की प्रतिष्ठा तथा सुदृढ़ीकरण का कार्य करती है ।

15. राष्ट्रीय ऐक्य का भाव- संस्कृति द्वारा व्यक्ति की अपेक्षा क्रमशः परिवार, समाज, राज्य, राष्ट्र तथा अन्तर्राष्ट्र को महत्त्व प्रदान किया जाता है । भारतीय संस्कृति व्यक्तिगत हितों की अपेक्षा सामूहिक हितों को प्रधानता देती है। राष्ट्रीय एकता तब तक कदापि सुनिश्चित नहीं हो सकती जब तक कि इसमें महिलाओं की सक्रिय सहभागिता न – हो । हमारा स्वतन्त्रताकालीन इतिहास इस बात का साक्षी है कि स्त्रियों ने राष्ट्रीय एकता के लिए जेल तक जाना स्वीकार किया, अपनी जानें गँवायीं तथा कितनी ही स्त्रियों ने अपने पिता, भाई, पति और पुत्रों को स्वतन्त्रता की वेदी पर हँसते-हँसते कुर्बान कर दिया। भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता से उत्प्रेरित है । अतः इस संस्कृति में जाति, धर्म, भाषा, स्थान तथा लिंग आदि भेदों के पश्चात् भी एकता की भावना है। अतः राष्ट्रीय एकता हेतु स्त्रियों को समाज में समान महत्त्व, समाजीकरण तथा लैंगिक सुदृढ़ता हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।

16. संस्कृति के मूल तत्त्वों से परिचय – प्रत्येक संस्कृति के कुछ मूल तथा सार्वभौमिक तत्त्व होते हैं । संस्कृति के तत्त्वों तथा उनमें निहित प्रेम, त्याग, सहयोग, सौहार्द्र, भाईचारा, सहयोग इत्यादि से हमें अवगत कराया जाना चाहिए जिससे लिंगीय भेद-भावों की समाप्ति की जा सके, क्योंकि कोई भी संस्कृति अपने नागरिकों के मध्य भेद-भाव करके उनकी गति को अवरुद्ध करना नहीं चाहेगी।

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Anjali Yadav

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