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आजादी के बाद भारत में स्त्रियों के परम्परागत एवं वैधानिक अधिकारों का वर्णन करें।
आजादी के बाद भारत में स्त्रियों के परम्परागत एवं वैधानिक अधिकार- स्वतंत्रता के पश्चात स्त्रियों के परम्परागत अधिकार- औपनिवेशिक काल में स्त्रियों की स्थिति में सुधार लाने के उद्देश्य से बहुत से सुधारात्मक आंदोलन चलाए गए जिनके परिणामस्वरूप सरकार ने इस उद्देश्य से कतिपय सामाजिक विधान पारित किए। अतः आजादी के बाद भारतीय समाज में नारियों की दशा मध्य काल एवं औपनिवेशिक काल की अपेक्षा अधिक सन्तोषजनक हो गई थी। स्वतंत्रता के बाद भी ये प्रयास जारी रहे । आजादी के बाद शिक्षा के प्रसार एवं औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप स्त्रियों में एक नवीन चेतना जागृत हुई। स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी होने लगी जिससे कि पुरुषों पर उनकी आर्थिक निर्भरता कम होने लगी। स्वतंत्रता के बाद मध्यम वर्ग की भी स्त्रियों ने शिक्षा प्राप्त करके जीविकोपार्जन करना आरम्भ कर दिया था ।
वर्त्तमान में विभिन्न व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में स्त्रियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर होने के कारण परिवार व समाज में उनका महत्त्व बढ़ता जा रहा है । आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त होने के परिणामस्वरूप स्त्रियों के आत्म-विश्वास, कार्य-क्षमता एवं मानसिक स्तर में पर्याप्त वृद्धि हुई है। वर्तमान में नारी परिवार की एक महत्त्वपूर्ण प्रबंधक है। पारिवारिक योजनाओं के निर्धारण में नारी की अहम भूमिका होती है । बाल-विवाह, सती प्रथा आदि कुप्रथाएँ लगभग समाप्त हो चुकी प्रेम-विवाह, अन्तर्जातीय विवाह आम बात हो गई है। किन्तु फिर भी नारी को आज भी विभिन्न क्षेत्रों में शोषण का शिकार होना पड़ रहा है। दिन-प्रतिदिन विवाह विच्छेद की घटनाओं में वृद्धि होती जा रही है। पुरुष प्रधान समाज नारी-जीवन में आए इस क्रांतिकारी परिवर्तन को सहज ही स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ पा रहा है ।
आजादी से पूर्व स्त्रियों ने अज्ञानतावश जिन रूढ़ियों एवं परम्पराओं को अपना लिया था अब उन्होंने उनका परित्याग कर दिया है। वर्त्तमान में स्त्रियों द्वारा स्थापित अनेक प्रगतिशील संगठन अस्तित्व में आ चुके हैं। इन संगठनों की सदस्यता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । विशेष बात यह है कि ग्रामीण स्त्रियों के दृष्टिकोणों में भी सकारात्मक परिवर्तन आ रहा है।
स्वतंत्रता के स्त्रियों की राजनीतिक जागरूकता में भी वृद्धि हुई। स्त्रियों की राजनीतिक जागरूकता में आई वृद्धि को निम्नलिखित तथ्य से प्रमाणित करते हैं :
सन् 1937 के चुनाव में स्त्रियों के लिए 41 सीटें सुरक्षित होने पर केवल 10 स्त्रियों ने भाग लिया था जबकि सन् 1957 में राज्य विधान सभाओं के लिए हुए चुनावों में 342 स्त्रियाँ उम्मीदवार थीं। पहली लोक सभा (1952) में निर्वाचित महिला सांसदों की संख्या केवल 22 थी जबकि चौदहवीं लोक सभा (2004) में निर्वाचित महिला सांसदों की संख्या बढ़कर 44 हो गई। वर्त्तमान में भारत के कई राज्यों में महिला मुख्यमंत्री हैं। श्रीमती इंदिरा गाँधी लम्बे समय तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। सोनिया गाँधी अखिल भारतीय कांग्रेस की अध्यक्ष थी ।
स्वतंत्रता पश्चात स्त्रियों के वैधानिक अधिकार
भारतीय संविधान के अंतर्गत स्त्रियों को पुरुष के समकक्ष स्वीकार करते हुए महत्त्वपूर्ण अधिकार प्रदान किए गए हैं। सभी पुरुषों व स्त्रियों को समान रूप से मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारों को यह अधिकार भी प्रदान किया गया है कि वे स्त्रियों के हितों के रक्षार्थ समय-समय पर विधान लागू कर सकती है। सामाजिक न्याय की स्थापना की दृष्टि से राज्यों की सरकारों द्वारा समय-समय पर ऐसे कदम उठाए जाते रहे हैं। आजाद भारत में नारी-स्थिति के उत्थान को दृष्टिगत रखते हुए निम्नलिखित विधान पारित किए गए हैं :
1. विशेष विवाह अधिनियम, 1954 – इस अधिनियम के अन्तर्गत विभिन्न धर्मावलम्बियों को बिना धर्म परिवर्तन किए विवाह करने की अनुमति प्रदान की गई है। विवाह की न्यूनतम आयु लड़कों के लिए 21 वर्ष तथा लड़कियों के लिए 18 वर्ष निर्धारित कर दी गई है।
2. हिन्दू विवाह एवं तलाक अधिनियम, 1955 – विवाह की न्यूनतम आयु लड़कों के लिए 18 वर्ष तथा लड़कियों के लिए 15 वर्ष निर्धारित की गई थी किन्तु बाद में क्रमश: 21 वर्ष व 18 वर्ष निर्धारित कर दी गई है। बहु-विवाह का निषेध कर दिया गया है तथा आधारों पर तलाक की व्यवस्था की गई ।
3. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956- इसके अनुसार कोई भी महिला वसीयत करके सम्पत्ति का भाग अपने वारिसों को दे सकती है। किसी निर्वसीयती व्यक्ति की सम्पत्ति वारिसों में किस आधार पर बाँटी जाएगी, इसकी व्यवस्था भी इस अधिनियम के अन्तर्गत की गई है।
4. हिन्दू दत्तक व भरण-पोषण अधिनियम, 1956 – इस अधिनियम की धारा 8 के अनुसार कोई हिन्दू महिला जो स्वस्थचित हो, अवयस्क न हो तथा विकलांग न हो या फिर विकलांग हो तो उसका विवाह भंग हो चुका हो या पति मर चुका हो या पूर्णत: अंतिम रूप से संसार का त्याग कर चुका हो या हिन्दू न रहा हो या किसी सक्षम अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालय द्वारा उसे अस्वस्थचित घोषित किया चुका हो तो वह किसी पुत्री या पुत्र को गोद ले सकती है।
इस अधिनियम की धारा 9 के अनुसार गोद लिए जाने वाले बच्चे के माता व पिता दोनों की सहमति आवश्यक है । उनमें से किसी एक की मृत्यु न हो चुकी हो या पिता ने पूर्णतया संसार न त्याग दिया हो, उनमें से कोई हिन्दू न हो अथवा किसी सक्षम अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालय द्वारा उसे अस्वस्थ चित का घोषित न कर दिया गया है ।
5. स्त्री तथा लड़की का अनैतिक व्यापार अधिनियम, 1956 – इस अधिनियम के अन्तर्गत वेश्यावृत्ति हेतु स्त्रियों एवं लड़कियों के व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। इसके द्वारा वेश्यावृत्ति से सम्बंधित अपराधों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई है।
6. हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 – इस अधिनियम के अनुसार इस में प्रावधान किया गया है कि पुत्री को गोद लेने के लिए पत्नी की सहमति आवश्यक है ।
7. दहेज निषेध अधिनियम, 1961- अधिनियम की धारा 3 व 4 के अनुसार दहज लन या देने के लिए कठोर दंड की व्यवस्था की गई है। दंड के अन्तर्गत छः मास का कारावास या 5000 रुपये जुर्माना अथवा दोनों हो सकता है ।
सन् 1984 में केन्द्र सरकार ने दहेज निरोध (संशोधन) कानून पारित किया जो 2 अक्टूबर, 1985 को लागू किया गया। 1986 ई. में इस कानून में पुनः संशोधन किया गया तथा जुर्माने की राशि बढ़ाकर पन्द्रह हजार रुपये एवं सजा की अवधि पांच वर्ष कर दी गई। साथ ही इसे गैर-जमानती अपराध की श्रेणी में रख दिया गया। इस अधिनियम द्वारा दहेज मृत्युओं को ‘भारतीय दण्ड संहिता’ में सम्मिलित कर दिया गया। इस अधिनियम द्वारा अब सात वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक का दण्ड दिया जा सकता है ।
8. गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971- इस अधिनियम के अनुसार मानवीय एवं चिकित्सकीय आधार पर प्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा गर्भपात को वैध करार दिया गया।
9. दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 – इसमें प्रावधान किया गया है कि किसी महिला अपराधी की तलाशी महिला द्वारा ही ली जाए तथा किसी महिला की डॉक्टरी जाँच किसी रजिस्टर्ड महिला द्वारा उसकी देख-रेख में ही की जाए ।
10. समान वेतन अधिनियम, 1979 – महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में पर्याप्त सुधार लाने के उद्देश्य से महिलाओं को समान काम के बदले पुरुषों के ही समान वेतन देने की व्यवस्था की गई।
स्वाधीन भारत में उपर्युक्त वैधानिक उपायों के अतिरिक्त कतिपय अन्य योजनाओं एवं कार्यक्रमों के माध्यम से भी महिलाओं के उत्थान के प्रयास किए किए, जिनका संक्षिप्त उल्लेख निम्नलिखित हैं :
(i) 1975 ई. से 15 से 45 वर्ष की आयु समूह के लिए साक्षरता कार्यक्रम’ प्रारम्भ किया गया। इसके अन्तर्गत महिलाओं को विभिन्न संदर्भों में अनौपचारिक शिक्षा दी जा रही है।
(ii) ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के उत्थान हेतु ग्रामों में ‘महिला मंडलों’ की स्थापना की गई है।
(iii) 18 से 50 वर्ष की आयु समूह की अभावग्रस्त स्त्रियों को विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षित करने हेतु ‘प्रशिक्षण केन्द्रों’ की स्थापना की गई है।
(iv) महिलाओं को रोजगार एवं प्रशिक्षण में सहायता देने के लिए 1987 ई. में एक कार्यक्रम आरम्भ किया गया।
(v) 2 अक्टूबर, 1983 ई. से सम्पूर्ण देश में ‘महिला समृद्धि योजना’ आरम्भ की गई।
(vi) पंचायती राज संस्थाओं एवं नगर-परिषद् में महिलाओं के लिए 33% स्थानों को आरक्षित किया गया ।
(vii) जरूरतमंद स्त्रियों को ऋण प्रदान करने हेतु महिलाओं के लिए ‘राष्ट्रीय कोष’ स्थापित किया गया ।
(viii) 1992 ई. में ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ का गठन किया गया।
(ix) मार्च, 2001 से 650 ब्लॉकों में ‘स्वयंसिद्धा योजना’ प्रारंभ की गई।
(x) निर्धनता रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों की महिलाओं के लिए जननी सुरक्षा योजना अप्रैल, 2005 से शुरू की गई। पूर्ण रूप से केन्द्र प्रायोजित इस योजना ने पूर्व से संचालित राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना का स्थान लिया है।
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