तुलसीदास का जीवन परिचय अन्तः साक्ष्य एवं बाह्य साक्ष्य के आधार पर प्रस्तुत कीजिए ।
तुलसीदास ने भी अन्य भक्तिकालीन कवियों की भाँति अपने सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है बाह्य साक्ष्यों के आधार पर उनके जीवन वृत्त सम्बन्धी जितने भी उल्लेख मिलते हैं वे सब इतने भ्रामक हैं कि उनके आधार पर भी तुलसी का प्रामाणिक जीवन वृत्त प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। फिर भी बाह्य साक्ष्यों से जो कुछ भी प्रामाणिक वृत्त उपलब्ध होता है उसके आधार पर हम उनके जीवन वृत्त का संक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।
जन्म- अन्तः साक्ष्यों के आधार पर तो तुलसी के जन्म के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं मिलता, बर्हिसाक्ष्यों के आधार पर उनके जन्म सम्वत् को छः तिथियाँ- ‘मूल-गोसाई चरित’ के अनुसार सम्वत् 1554, राममुक्तावली के आधार पर हम जगमोहन द्वारा स्वीकार सम्वत् 1560, अविनाश राय कृत ‘तुलसी प्रकाश’ के अनुसार सम्वत् 1568, गार्सादतासी के अनुसार सम्वत् 1600 शिवसिंह सेंगर के अनुसार सम्वत् 1583, घटरामायण के अनुसार सम्वत् 1589 है। किन्तु इनमें कोई भी तिथि प्रामाणिक नहीं है, फिर भी सर्वसम्मत् से प्रमाणिक तथ्य के अभाव में लोग तुलसी को जन्म सम्वत् 1554 ही स्वीकार करते हैं।’
जन्म स्थान- बर्हिसाक्ष्यों के अनुसार उनके जन्मस्थान के सन्दर्भ में राजापुर, सोरों, काशी हस्तिनापुर, हाजीपुर आदि का नाम लिया जाता है, किन्तु इनके सन्दर्भ में कोई तथ्यात्मक प्रमाण नहीं मिलता। शिवसिंह सेंगर, मिश्रबन्धु आचार्य रामचन्द्रशुक्र, डा. श्यामसुन्दर दास, पं० रामबहोरीशुक्ल ने ‘राजापुर को ही तुलसी की जन्मभूमि स्वीकार किया है, जिसके आधार पर उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘राजापुर’ में तुलसी का एक स्मारक भी बनवा दिया है।’
अन्तः साक्ष्य के आधार पर तुलसी की जन्मभूति भारत-भूमि स्पष्ट होती है। ‘कवितावली’ में वे कहते हैं-
‘भक्ति भारत भूमि, भले कुल जन्म समाज सरीर भलो लहिकै ।’
इसी ग्रन्थ में एक स्थान पर ‘घर जायउ’ शब्द से अयोध्या का भी संकेत मिलता है यथा-
‘राखे रीति आपनी जो होई सोई कीजै बलि
तुलसी निहारी घर जायउ है घर को ।’
विनय पत्रिका के अनुसार उनका जन्मस्थान ‘भरत खण्ड’ ही सूचित होता है यथा-
‘यह भरत खण्ड समीप. सुरसरि थल भली संगति भली ।’
कुल-गोत्र- बर्हिसाक्ष्यों में तुलसीदास को ब्राह्मण कहा गया है, किन्तु इसका आंधार क्या है, पता नहीं चलता । सम्भवतः तुलसी के काव्य में आये अन्तः साक्ष्य के कुछ पदों के आधार पर उन्हें बर्हिसाक्ष्यों में भी ब्राह्मण मान लिया गया है। विनय पत्रिका में एक स्थान पर उन्होंने कहा है-
‘दियो सुकुल जनम शरीर सुन्दर हेतु जो फल चारिको ।’
इस पद में आये सुकुल से उनके ‘शुक्ल’ ब्राह्मण होने की कल्पना की जाती है, परन्तु कवितावली के पद से कि –
जायो कुल मगन, वधावनो बजायो सुनि
भयो परिताप पाप जननी जनक मो।’
से सुकुल का अर्थ सु + कुल अच्छे कुल से भी लगाया जा सकता है।
माता-पिता- सोरों की सामग्री के अनुसार तुलसी की माता का नामा हुलसी तथा पिता का नाम आत्माराम शुक्ल था । राजापुर की सामग्री के अनुसार पिता का नाम आत्माराम दूबे था। मूल गोसाई चरित तथा जनश्रुतियों से भी यह बात सिद्ध होती है
अन्तः साक्ष्य के अनुसार भी उनकी माता का नाम ‘हुलसी’ प्रकट होता है। यथा-
रामहि प्रिय पावन तुलसी सी
तुलसीदास हित हिय हुलसी सी।
नाम –तुलसीदास जी ने अपने काव्य में ‘तुलसी’ और ‘राम बोला’ दो नामों की ओर संकेत किया है। यथा-
“राम जवत भये तुलसी तुलसीदास “
-बरवे रामायण-59
‘जे तुलसी तब राम बिन ते अब राम सहाय ।
सो तुलसी महगो कियो, गरीब निवाज।’
विनय पत्रिका तथा कवितावली में उन्होंने अपने को ‘राम बोला’ कहा है। यथा-
-दोहावाली 108-109
राम को गुलाम नाम राम बोला रारुयो राम,
काम यहै नाम है हौ कबहु लहत हौं।
‘राम बोला नाम, हौ गुलाम राम साहि को,
कवितावली -100 (उत्तरकाण्ड)
इससे प्रतीत होता है कि तुलसी के बचपन का नाम बोला’ था। बाद में वह तुलसी हो गया।
तुलसी का शैशव एवं युवावस्था
अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर स्पष्ट होता है कि तुलसी बचपन से ही माता पिता के सुख से वंचित हो गये थे और काफी समय तक शिक्षा प्राप्त कर जीवनयापन करते रहे हैं। यथा-
(क) माता-पिता जग जाग तज्यो विधि हू न किसी कछु भाल भलाई।
(ख) जननी जनक तज्यो जनमि करि बिन बिचिहु सृज्यो अवडेरे ।।
अपनी कष्ट दशा का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि-
(अ) द्वार-द्वार दीनता कहि काढ़ि रद परि पाहूँ ।
(ब) चाटस रह्यों स्वान पातरि ज्यों कबहूँ न पेट भरो।
(स) बार तें ललात बिललात द्वार-द्वार दीन ।
(द) राम नाम लेत माँगि खात इकटाक हौं ।
गुरु- विभिन्न विद्धानों ने तुलसी के गुरु का नाम राघवानन्द, जगन्नाथदास शेषसनातन नरसिंह, नरहरि इत्यादि बताएँ हैं। किन्तु इसमें सर्वाधिक प्रतिष्ठा, ‘नरहरि’ को मिली यही बात उनके अन्तःसाक्ष्य से भी प्रकट होती है-
बंदौं गुरु पद कंज, कृपासिंधु नर रूप हर ।
महामोह तम पुँज जासु वचन रुचि कर निकर।
युवावस्था और गार्हस्थ्य जीवन- जनश्रुतियों से प्रकट होता है कि तुलसी का विवाह रत्नावली से हुआ था और पत्नी के प्रति उनकी तीव्र आसक्ति ने उन्हें वैराग्य की तरफ मोड़ दिया था। यही बात भक्तिरसबोधिनी से भी ज्ञात होती है। किन्तु अन्तःसाक्ष्यों में युवावस्था की विषयपरता एवं गार्हस्थ्य जीवन की रागमयता का क्षीण संकेत ही मिलता है। कवितावली में वे लिखते हैं कि-
बालेपन सुधेकन, राम सन्मुख गयो,
राम नाम लेत माँगि खात टूकटाक हौ,
परयो लोक रीति में पुनीत प्रीति राम-राम
मोहबस बैठयो तोरि तरिका तराक हौं ।
निधन- बर्हिसाक्ष्यों के अनुसार तुलसी के निधन की तीन तिथियाँ मिलती हैं, सम्वत् 1680, श्रावण शुक्ल 7, सम्वत् 1680, श्रावण कृष्ण 3, शनिवार, सम्वत् 1680, श्रावण कृष्ण 3, इसमें समवत् को लेकर नहीं, किन्तु तिथि लेकर मतभेद है।
अन्तःसाक्ष्य के आधार पर उनके जीवनावसान के विषय में कुछ नहीं मिलता, कवितावली में निम्नलिखित छन्द से अनुमान लगाया जाता है कि वे शुभ शकुन क्षेमकरी का दर्शन करके ही गोलोकवासी हुए हैं—देखि सप्रेम पयान समय सब सोच विमोचन छेमकरी है।’
अन्ततः कहा जा सकता है कि तुलसी के जीवन सम्बन्धी वृत्त के सन्दर्भ में जब तक कोई नवीन प्रमाणिक तथ्य नहीं मिल जाता है तब तक अन्तः साक्ष्यों के आधार पर आये उनके जीवन सम्बन्धी वृत्त को अधिक प्रमाणिक माना जा सकता है।