भारत में महिलाओं के उत्थान के संबंध में संचालित विभिन्न नारी आंदोलनों का वर्णन कीजिए । (Describe the various Women’s Movements in India regarding Women’s upliftment.)
भारत में महिलाओं के उत्थान के संबंध में संचालित विभिन्न नारी आंदोलन – भारत में अति प्राचीन वैदिक कालीन महिलाओं की उन्नत अवस्था से लेकर निरन्तर जारी पतन जब स्वार्थ, अन्याय और शोषण की पराकाष्ठा पर पहुँच गया, तब इनके विरुद्ध आवाज उठाना भी स्वाभाविक हो गया। जब 19वीं शताब्दी प्रारम्भ हुई तो भारतीय समाज में परिवर्तन का दौर प्रारम्भ हुआ एवं अनेक प्रभुत्व सम्पन्न व चिन्तनशील लोग महिलाओं की निम्न स्थिति से चिंतित रहने लगे एवं उन्होंने उसे ऊँचा उठाने में विशेष प्रयत्न किए, यद्यपि इस प्रयास में अंग्रेज सरकार का भी बहुत बड़ा योगदान था । क्योंकि 1813 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को ब्रिटिश पार्लियामेन्ट द्वारा यह आदेश दिया गया था कि वह भारत के सभी वर्गों में शिक्षा का पर्याप्त प्रसार करे, तथापि ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किए गए। समाज सुधारकों द्वारा जो प्रयास किए गए उनका विवरण इस प्रकार है-
(1) राजा राममोहन राय द्वारा नारी विकास आन्दोलन- ब्रिटिश भारत में राजा राममोहन राय ने सर्वप्रथम महिलाओं की दशा सुधारने का प्रयास किया। सन् 1928 में राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना की एवं इस समाज ने सर्वप्रथम सती प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन किया एवं इसी के परिणामस्वरूप अंग्रेजी सरकार को 1829 में सती-प्रथा के विरुद्ध कानून बनाकर इसे रोकना पड़ा। राममोहन राय द्वारा बाल-विवाहों के विरुद्ध व महिला शिक्षा के प्रसार के पक्ष में भी आन्दोलन प्रारम्भ किया गया था। विधवा-पुनर्विवाह शास्त्रों द्वारा अनुमोदित है, स्मृति में भी दबावपूर्ण वैधव्य की अनुमति नहीं है। जब सती-प्रथा जैसी अमानवीय परम्परा के विरुद्ध कानून बना तो राजा राममोहन राय ने पूर्णतः पूरी शक्ति के साथ सरकार का साथ दिया और राजा राममोहन राय के प्रयत्नों से सती प्रथा की समाप्ति हुई जो उस समय की एक महान् उपलब्धि थी।
(2) ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा नारी विकास आन्दोलन— बीसवीं शताब्दी में राजा राममोहन राय द्वारा शुरू किए गए महिला सम्बन्धी कार्यों को विद्यासागर ने और अधिक आगे बढ़ाया । वस्तुत: विधवा समस्या से सम्बन्धित कार्य को विद्यासागर ने ही आगे बढ़ाया था। उन्होंने राजा राममोहन राय की ही कार्य-पद्धति को अपनाया और स्वयं भी इस क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करके अग्रणी बने ।
विद्यासागर जी के कार्यों का मूल्यांकन उनके काम के परिणाम से ही आँका जा सकता है । इतना तो निश्चित है कि सुधार का बीड़ा उठाने वाले सेनानियों के कार्यों का तत्काल कोई परिणाम दिखायी नहीं देता और जनता में उनके कार्य से कितनी जागृति पैदा हुई तथा भावी कार्यकर्त्ताओं ने कार्य को कितना आगे बढ़ाया, यही एक कसौटी है जो किसी कार्य के मूल्यांकन के निमित्त उपयोग में लायी जा सकी है। इस दृष्टि से ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और भी महान् हो जाते है।
श्री विद्यासागर जी शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रूप से सक्रिय थे, क्योंकि महिला-शिक्षा का बढ़ता हुआ प्रचार उसका स्पष्टतः प्रमाण दिखायी देता था । कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रथम महिला-स्नातिका चंद्रमुखी बसु बैथ्युन महाविद्यालय की छात्रा ही रही थी ।
श्री विद्यासागर जी के द्वारा विधवा-विवाह के समर्थन में दिए गए आवेदन-पत्र पर 21,000 हस्ताक्षर करवाए गए थे। विद्यासागर ने जब प्रथम विधवा का पुनर्विवाह करवाया तो उनके अनेक मित्रों ने विवाह प्रसंग पर उपस्थित होकर ही उसका समर्थन किया था। में उनकी पुस्तकों का मराठी और गुजराती दोनों भाषाओं में अनुवाद भी हुआ था। उनके आँकड़े एकत्रित करने की पद्धति अन्य समाज सुधारकों के द्वारा भी अपनायीं गयी थी। सन् 1891 में ‘संजीवनी’ नामक मासिक पत्रिका में एक से अधिक विवाह करने वाले पुरुषों की सूची प्रकाशित की गयी थी और उनका उस गणना के अनुसार प्रति पुरुष विवाह का औसत 4.5 पत्नियों का था। विद्यासागर जी के काल में विवाह का औसत 5.5 था और यदि गणना की भूलों को भी स्वीकार कर लिया जाए तो भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि इस क्षेत्र में थोड़ा सुधार अवश्य हुआ था। इसलिए यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि महिलाओं की समस्याओं में विद्यासागर जी का योगदान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण रहा था ।
(3) बहरामजी मलाबारी द्वारा नारी विकास आन्दोलन – सुप्रसिद्ध समाज सुधारक बहरामजी मलाबारी का नाम भी बाल विवाह की समस्या को सुलझाने के प्रयत्न से जुड़ा हुआ | है। वस्तुतः बाल-विवाह के कारण ही प्रायः बाल-विधवाओं की समस्या पैदा होती रही है। इस प्रकार बाल-विवाह तथा बाल-विवाह के प्रश्न परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं । उस समय एक विधवा द्वारा अपने बालक की हत्या की घटना ने मलाबारी के हृदय को झकझोर दिया । बहरामजी मलाबारी का नाम बाल-विवाह, विवाह तथा सहमति आयु कानून (लाँ ऑफ कंसेंट ऑफ एज) के साथ महत्वपूर्ण ढंग से सम्बद्ध है। उनके सक्रिय प्रयासों का ही जीता जागता प्रतीक मुम्बई की ‘सेवा सदन’ नामक संस्था है, जो आज भी महिलाओं की विविध समस्याओं को हल करने का प्रयास कर रही है ।
(4) महादेव गोविंद रानाडे द्वारा किया गया नारी आन्दोलन- महादेव गोविंद रानाडे के कार्यों की समीक्षा करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज-सुधार तथा महिलाओं की प्रगति के क्षेत्र में उनका योगदान अद्वितीय था। वे भारत पर अंग्रेजी राज्य के प्रभाव से पूर्णतः परिचित थे । यद्यपि प्रारम्भिक काल में ‘युवा बंगाल’ आन्दोलन अंग्रेजी राज्य का अंधानुकरण रहा था, किन्तु रानाडे ने न तो पश्चिमी सभ्यता के अंधे अनुकरण का समर्थन किया और न ही पुनरुद्धारवादियों की भाँति भारत के भूतकाल की पुनर्स्थापना के लिए ही कोई कार्य किया। उन्होंने इन दोनों प्रवाहों में समन्वय स्थापित किया और एक नई दिशा प्रदान की नारी सुधार आन्दोलन में उनकी दृढ़ मान्यता थी कि यदि नारी-सुधार व्यवस्थित रूप से करना हो और उसमें गतिशीलता लानी हो तो एक राष्ट्रव्यापी संगठन की अति आवश्यकता होती है और इस प्रकार का संगठन ही देश में बिखरी हुई सामाजिक सुधार की गतिविधियों को एक धागे में बाँध सकता । रानाडे के मंतव्य से ही नारियों से सम्बन्धित समस्याओं को हल करने का जो प्रयत्न अब तक स्थानीय स्तर पर होता था, उसे उन्होंने राष्ट्रव्यापी आन्दोलन बनाने के प्रयास किए। इसके अतिरिक्त, उन्होंने नारी सुधार आन्दोलन को असाम्प्रदायिकता का रूप देने का महान् कार्य किया।
यद्यपि श्री रानाडे के नारी-सुधार कार्यों की समीक्षा करते समय शायद उनके स्थापित कोई महिला – शिक्षा संस्था दिखायी न भी पड़े या निजी जीवन में पुनर्विवाह करते द्वारा समय विधवा-विवाह करने की निडरता के दर्शन न हों, फिर भी नारी सुधार के इतिहास में उनके योगदान को याद किया जाता रहेगा । वस्तुतः नारी-सुधार आन्दोलन उस समय ऐसी में था कि जहाँ राष्ट्रव्यापी संस्था की स्थापना आन्दोलन की प्रगति के लिए अनिवार्य थी । श्री महादेव गोविंद रानाडे ने इसी कमी को पूरा करके नारी सुधार सेवा कार्य को विस्तृत रूप दिया।
(5) महर्षि घोड़े केशव कर्वे द्वारा नारी-विकास आन्दोलन- घोड़े केशव कर्वे का स्थान भारतीय महिला के उत्कर्ष के विविध क्षेत्रों में अमर है। वस्तुत: यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि विधवा महिला की ओर तत्कालीन समाज की तिरस्कारपूर्ण दृष्टि में परिवर्तन लाने का श्रेय श्री कर्वे को ही है जबकि उस जमाने में बड़े-बड़े नगरों में भी पुनर्विवाह का समर्थन करना एक सामाजिक पाप ही माना जाता था। जबकि आज छोटे-से-छोटे गाँव में भी विवाह पुनर्विवाह का प्रचार किया जाता है। भारतीय समाज में यह सामाजिक परिवर्तन लाने का श्रेय श्री कर्वे को ही है।
श्री कर्वे ने ही महिलाओं के लिए शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया और इस कार्य के लिए, उनका नाम सदैव स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। श्री कर्वे अपना परिचय सदैव एक धनी व्यक्ति के रूप में ही देते थे। उनके जीवन का प्रधान स्वर महिला की प्रगति ही था। उनके कर्त्तव्य की विनम्र शुरूआत की पूर्णाहुति भी एक ऐसे महिला महाविद्यालय के रूप में हुई, जिसने हजारों नारियों की अज्ञानता को दूर करने का प्रयास किया।
(6) स्वामी विवेकानन्द का नारी विकास आन्दोलन- भारत के पुनरुद्धारवादियों में स्वामी विवेकानन्द का स्थान महत्त्वपूर्ण है। स्वामी जी पश्चिमी शिक्षा पद्धति के घनिष्ठ सम्पर्क में आए। एक समय तो ऐसा आया कि वह नास्तिक ही हो गए थे। किन्तु, इस अद्वितीय प्रतिभाशाली वेदांती के द्वारा समाज-सुधार एवं महिला उत्थान के प्रति तनिक भी उदासीनता नहीं बरती गयी। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्यों में स्वामी विवेकानन्द ही सबसे अधिक थे। इन्होंने अपने गुरु की स्मृति को चिरंजीवी रखने हेतु अपनी गुरुभक्ति को अंजलि के रूप में रामकृष्ण के नाम से अनेक संस्थाएँ स्थापित कीं । विवेकानन्द जी को अपने गुरु से दो सिद्धांतों की सीख मिली थी-एक, विचारों और कार्यों की स्वतंत्रता तथा दूसरी, मानवता के प्रति सहानुभूति इसलिए विवेकानन्द ने सामाजिक सेवा पर विशेष बल दिया। और एक स्थान पर उन्होंने स्वयं कहा—“जिन्होंने प्रजा के धन से शिक्षा प्राप्त की हो और लाखों व्यक्तियों को क्षुधा से मरते देखा हो, फिर उनके हृदय प्रजा की व्यवस्था से द्रवित न होते हों, वे सब देशद्रोही हैं। “
स्वामी विवेकानन्द जी की दृष्टि में भारत में प्रमुख रूप से दो बुराइयाँ थीं— (1) महिलाओं का भारतीय समाज में पराधीन स्थान (2) हिन्दू समाज में असमानता को जन्म देने वाली तथा लोकतंत्र के सिद्धांतों की अवहेलना करने वाली जाति-व्यवस्था महिला उद्धार के बारे में स्वामी विवेकानन्द के योगदान का मूल्यांकन करते समय हम सबका ध्यान विवेकानंद की महिला के प्रति आदर भावना को पुनः स्थापित करने की ओर निश्चित रूप से जाता है । एक लेखक के अनुसार- “उन्होंने महिलाओं की पराधीनता के ऐतिहासिक कारणों का अन्वेषण किया था । समग्र राष्ट्र को ही नहीं वरन् विश्व के उत्थान में, शिक्षित भारतीय अपना निश्चित योगदान दे सकेगी, ऐसा उनका दृढ़ मत था । अन्य धार्मिक सुधारकों की तुलना करने पर यह पता चलता है कि विवेकानन्द का स्थान इस दृष्टि से विशिष्ट है कि अन्य सुधारक धार्मिक सुधार के एक अंग या विभाग की दृष्टि से देखते थे जबकि स्वामी जी ने इस कार्य को प्राथमिकता दी। उनका ऐसा मत था कि “अन्य देशों की पंक्ति में, अपना स्थान लेने के लिए ही महिलाओं की उन्नति होना आवश्यक है।”
(7) स्वामी दयानन्द सरस्वती का नारी-विकास आन्दोलन – आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने अपने व्यक्तिगत प्रयासों से तथा मुख्यतः आर्य समाज की विविध संस्थाओं के माध्यम से ही महिला शिक्षा का प्रचार किया और विवाह की न्यूनतम आयु बढ़वाने का प्रयास भी किया। उनके आर्य समाज के द्वारा पश्चिम के अंधे अनुकरण के प्रवाह को रोकने का प्रयास किया गया। उनकी राष्ट्रीयता में धर्म का सम्मिश्रण भी था। “वेद धर्म अटल है”-इस मान्यता के आधार पर उन्होंने वर्णों को स्वीकार किया। स्वामी दयानन्द और आर्य समाज द्वारा नारी स्वतन्त्रता की माँग का आधार समानता नहीं वरन् “वेदकालीन समाज में व्याप्त स्वतन्त्रता वर्तमान महिला को भी मिलनी चाहिए थी।” उनके प्रयास सीमित होते हुए भी नारी उत्थान गाथा में दयानन्द का नाम सदैव स्मरण किया जाता रहेगा।
(8) श्रीमती एनी बेसेण्ट और नारी आन्दोलन- भारत में महिलाओं की स्थिति सुधारने में थियोसोफिकल विचारधारा और एनी बेसेण्ट का योगदान भी अविस्मरणीय है। वस्तुतः 19वीं शताब्दी में समस्त सुधारक तथा कार्यकर्त्ता पुरुष थे। प्रथम महिला-सुधारक के रूप में एनी बीसेण्ट इतिहास के रंगमंच पर आयीं। इस समय अधिकांश विदेशी विचारक तथा कार्यकर्त्ता भारतीय समाज की व्यवस्था को या तो कृपा दृष्टि से देखते थे या आलोचनात्मक रुख अपनाते थे। एनी बीसेण्ट एक ऐसी प्रतिभाशाली महिला थीं जिन्होंने भारत की गौरवमय प्राचीनता की प्रशंसा की और साथ ही साथ घोषणा की थी कि भारत के समान संस्कारों में समृद्ध विश्व में दूसरा देश कोई नहीं है। अतः, राष्ट्रीय आत्म-सम्मान को जाग्रत करने में एनी बेसेण्ट का योगदान भी अपूर्व था और उनका नारी समस्याओं एवं उनके निराकरण का और उनकी विचारधारा का ।
(9) भारत में नारी आन्दोलन के अन्य सहायक-समर्थक- भारतीय नारी आन्दोलन में सहायक पुनरुद्धारवादियों के कार्यों की पृष्ठभूमि की चर्चा के साथ-साथ गुजरात में इस विचारधारा का उल्लेख करना भी उपयोगी होगा। गोवर्धनराम त्रिपाठी जिनका नाम ‘सरस्वती चंद’ शीर्षक उपन्यास के साथ प्रसिद्ध हुआ, ‘रक्षक मत का भी प्रतिनिधित्व करते थे तथा महिलाओं की प्रगति के समर्थक थे, किन्तु उनके अनुसार यह नारी प्रगति-संस्था और संयुक्त परिवार व्यवस्था के अंतर्गत ही होनी चाहिए। ऐसे ही एक दूसरे विचारक थे- मणीलाल मनु भाई जी । पतिव्रत धर्म, पारिवारिक प्रेम, धर्माचरण तथा नीति पालन पर विशेष जोर देते थे। उनके लेखों का झुकाव भी प्राचीनता की ओर अधिक था जो इस समय की महान् उपलब्धि थी।
Contents
मुस्लिम सुधारकों के द्वारा संचालित नारी आन्दोलन
मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति सबसे अधिक धर्म प्रभावित है, जिसका विवरण इस प्रकार है-
पूर्व की भाँति इस समय भी मुस्लिम महिला का स्थान भी समाज में प्रायः नीचा ही रहा है। उनके कानून में एक विशेषता यह है कि मुस्लिम महिला को कानून से ही उत्तराधिकार प्राप्त होता है। उनके तलाक धर्म मान्य होने पर भी व्यावहारिक क्षेत्र में वह निष्प्रभावी रहा । पर्दा तथा बहुपत्नीत्व की प्रथा के कारण मुस्लिम महिला की स्थिति और बिगाड़ दी गयी है। मुस्लिम स्त्री की पिछड़ी हुई स्थिति का एक कारण और भी रहा है, वह है-उनका विदेशी हुकूमत के प्रति द्वेष तथा पश्चिमी शिक्षा और सभ्यता की ओर झुकाव में विलम्ब होना। मुस्लिमों को अंग्रेजी भाषा की महत्ता तथा उपयोगिता को समझाने में सर सैय्यद अहमद खाँ को काफी समय लगा और यही कारण है कि मुस्लिम महिलाओं की उन्नति की समस्या देर से उनके सामने आयी। इस पृष्ठभूमि में मुस्लिम महिला की प्रगति के लिए कुछ शिक्षित नेताओं के द्वारा किए गए प्रयासों का वर्णन इस प्रकार है-
(1) सर सैयद के प्रयास – सर्वप्रथम मुस्लिम महिला सुधार का बीड़ा सर सैयद अहमद खाँ ने उठाया । उन्होंने महिला शिक्षा के पक्ष में भी अपने विचार तो प्रकट किए, किन्तु उनके मतानुसार शिक्षा का क्षेत्र एवं स्थान तो घर ही होना चाहिए, स्कूल नहीं ।” बदरुद्दीन तैयब जी ने पर्दे की प्रथा खत्म करने की हिमायत की थी। सैयद इमाम ने जनाने मदरसे स्थापित करने में मदद की थी और इस बात पर जोर दिया था कि जब तक महिलाओं की प्रगति नहीं होगी तब तक भारत की जनता अन्य देशों की जनता के समकक्ष खड़ी नहीं हो सकेगी। इसलिए श्री हैदरी महिला-शिक्षा में अधिक दिलचस्पी लेने लगे । उन्होंने सच ही कहा है कि ” एक महिला की शिक्षा सारे परिवार के मानस और नैतिक जीवन को प्रगति की ओर ले जा सकती है।” यद्यपि मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा के प्रयास आरम्भ जरूर हुए, किन्तु फिर भी यह अन्य क्षेत्रों की तुलना में बहुत देर से आरम्भ किया गया । जब तक महिलाओं को आजादी नहीं मिलेगी या अपने अधिकारों का उपभोग करने के लिए उनमें आत्म-विश्वास पैदा नहीं किया जा सकता, तब तक तलाक या विरासत के अधिकारों के मूल्य एक कोरे कागज के समान ही हैं।
नारी आन्दोलन के प्रति समाज सुधारकों एवं पुनरुद्धारवादियों के योगदान की समीक्षा—
नारी आन्दोलनों की समीक्षा की दृष्टि से राजा राममोहन राय के प्रयासों से लेकर अनेक समाज सुधारकों द्वारा किए गए योगदान के बाद कुछ प्रयास वेदकालीन समाज की पुनर्स्थापना में तथा कुछ प्रयास उदारवाद के समानता के सिद्धांत को प्रयोगात्मक रूप से कार्यान्वित करने के लिए भी किए गए। इन उदारवादी समाज सुधारकों के द्वारा जब भूतकाल के उदाहरणों का सहयोग लिया गया, तब उनका मुख्य उद्देश्य केवल समानता स्थापित करना ही था। वस्तुतः इन दोनों प्रवाहों के द्वारा महिलाओं की उन्नति के लिए एक बौद्धिक चेतना भी पैदा की गयी। इन प्रवाहों के कारण ही जब उन्नीसवीं शताब्दी में मुख्यत: पुरुषों द्वारा महिलाओं की उन्नति के आन्दोलन किए गए तब ही बीसवीं शताब्दी में महिलाएँ निर्भयतापूर्वक अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने में सक्षम बनीं और वे निरन्तर आगे ही बढ़ती जा रही हैं। उनके द्वारा किए गए आन्दोलन की समीक्षा इस प्रकार की जा सकती है-
(1) कार्य-क्षेत्र में वृद्धि करना- 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के प्रत्येक समाज-सुधारक के अथक प्रयत्नों के द्वारा संघर्ष को तीव्र बनाया गया तथा सम्बन्धित कार्य-क्षेत्र को विस्तृत भी किया गया। सर्वप्रथम राजा राममोहन राय के द्वारा महिलाओं के उत्थान की दिशा में प्रयास शुरू किए गए। तत्पश्चात् ईश्वरचंद्र विद्यासागर के द्वारा विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए प्रचार के कार्य किए गए। यही नहीं दयानन्द सरस्वती के द्वारा वेदकाल की स्वतंत्र समाज रचना स्थापित करने का काम शुरू किया गया और शिक्षा के क्षेत्र में विशेष लक्ष्य से पाठ्यक्रम का प्रारूप तैयार किया गया। इसी क्रम में प्रजा में आत्म-विश्वास उत्पन्न करने का श्रेय श्रीमती एनी बीसेण्ट को है, जबकि स्वामी विवेकानन्द ने स्त्रियों की समानता की तथा उन्हें सम्माननीय दिलाने की जोरदार हिमायत की अनेक संस्थाएँ स्थापित करके उनके माध्यम से इस दिशा में काम करने के प्रभावी प्रयास किए, जो आज भी जारी है।
(2) सामाजिक गतिविधियाँ – नारी समाज सुधार की व्यक्तिगत गतिविधियों को महादेव गोविन्द रानाडे के द्वारा व्यवस्थित एवं संगठित करके राष्ट्रीय स्तर पर उठाने का प्रयास किया गया। अतः, जनसाधारण के जीवन में सामाजिक के साथ-साथ नारी सुधार का महत्व राजनीतिक स्वतंत्रता के समान ही महत्त्वपूर्ण है। यह तथ्य उन्होंने ही जनता के समक्ष रखा । इसी समय महर्षि कर्वे ने महिला विश्वविद्यालय की स्थापना करके महिला-शिक्षा को महत्त्व एवं वरीयता दी। इस प्रकार विशिष्ट पाठ्यक्रम तथा मातृभाषा द्वारा शिक्षा देकर निरक्षरता के अंधकार को दूर करने का प्रयास किया गया। स्वामी विवेकानन्द द्वारा समस्त जीवन समर्पित करने वाले कार्यकर्त्ताओं की योजना को श्री कर्वे ने भी विस्तृत रूप दिया और इस प्रकार अनेक समाज सुधारकों एवं पुनरुद्धारवादियों के द्वारा महिलाओं की स्थिति सुधारने में सक्रिय हिस्सा लिया गया ।
(3) महिलाओं की आन्दोलनात्मक कार्य-प्रणाली- भारत में वेदकालीन समाज से लेकर अठारहवीं सदी के अन्त तक महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव हुए। अतः, महिलाओं को अब अलग व्यक्तित्व के रूप में देखा जाने लगा । “यद्यपि महिला के कार्यों में अब भी मतभेद विद्यमान हैं, किन्तु समाज में महिला उच्च स्थान की अधिकारिणी है”-
ऐसी ही विचारधारा उन्नीसवीं सदी के नारी आन्दोलनों की प्रमुख विशेषता है। तत्कालीन समाज सुधारकों ने प्रथम प्रहार नारियों के प्रति समाज की दोहरी नीति पर ही किया गया । एक लेखक के अनुसार- “राजा राममोहन राय द्वारा सती-प्रथा का विरोध तथा कुलीन शाही के प्रति रोष, विद्यासागर, मलाबारी या नर्मदा ने माँग की कि विधवा का पुनर्विवाह हो, स्वामी दयानन्द सरस्वती, रानाडे तथा कर्वे के महिला-शिक्षा के समर्थन में किए गए निर्भय संघर्ष तथा दोनों संस्थाओं की महिलाओं के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक अधिकारों के लिए संस्थाओं के माध्यम से संगठित प्रयास के पीछे महिलाओं के प्रति समाज के पूर्वाग्रह पर आधारित दृष्टिकोण को पक्षपात रहित बनाने तथा महिलाओं को उच्च स्थान दिलाने की भावना प्रमुख थी। महिला प्रगति का कार्य अधिक सुचारू रूप से हो सके, इसी उद्देश्य से इस काल में समाज सुधारकों ने संस्थाओं की स्थापना की। कितनी ही संस्था का उद्देश्य मात्र महिला विकास न होकर समस्त जनकल्याण ही था, किन्तु नारियों की समस्याओं को ही प्राथमिकता एवं प्रधानता दी गयी ।”
निष्कर्षतः ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि 19वीं शताब्दियों के समाज-सुधारकों तथा पुनरुद्धारवादियों का ध्यान केवल उच्च वर्ग की नारियों की ओर ही केन्द्रित हुआ था तथा पिछड़ी जातियों की महिलाओं की समस्या और निम्न वर्ग की नारियों के प्रश्न को तो उनके द्वारा छुआ तक नहीं गया था। इसका कारण संभवतः यह था कि अधिकांश समाज सुधारक एवं पुनरुद्धारवादी समाज के उच्च वर्ग से ही आए थे। इसलिए इन दोनों समूहों का ध्यान केवल कुछ सामाजिक बुराइयों के प्रति आकर्षित हुआ और आर्थिक प्रगति या आर्थिक स्वावलम्बन पर बहुत जोर नहीं दिया गया, जिससे अनेक महिला सम्बन्धी समस्याएँ भारतीय समाज में अभी तक अपने निराकरण के लिए मुँह बाये खड़ी हैं।
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