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भारत में विभिन्न नारी संगठन | Various Women’s Organisation in India

भारत में विभिन्न नारी संगठन | Various Women's Organisation in India
भारत में विभिन्न नारी संगठन | Various Women’s Organisation in India

भारत में विभिन्न नारी संगठनों पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए ।

अखिल भारत के राष्ट्रीय आन्दोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका हेतु महिलाओं द्वारा विभिन्न संगठन भी गठित किए गए। ये समस्त संगठन सन् 1925 से 1930 के बीच की अवधि में गठित किए गए जिनमें देश सेविका संघ, ‘नारी सत्याग्रह समिति’, राष्ट्रीय संघ’, ‘लेडीज पिकेटिंग बोर्ड’, ‘स्त्री स्वराज्य संघ’ आदि प्रमुख थे। इन संगठनों के माध्यम से ही राष्ट्रीय आन्दोलनों में महिलाओं की भूमिका निर्धारित की गयी। ये संघ महिलाओं को खादी प्रचार तथा चरखा चलाने का प्रशिक्षण भी देते थे। महिलाओं के प्रमुख संघों का विवरण इस प्रकार है-

(1) लेडीज पिकेटिंग बोर्ड- इस बोर्ड का गठन बंगाल में 1931 ई. को हुआ, जिसके प्रमुख उद्देश्य घरेलू उद्योग-धन्धों को लोकप्रिय बनाना, सूत कातना, खादी का वस्त्र बनाना, देश की स्वाधीनता का प्रचार करना, काँग्रेस की सदस्यता बढ़ाना, जुलूस तथा सभाएँ, आयोजित करना, छुआ-छूत को मिटाना आदि थे। इस संगठन ने बंगाल की प्रान्तीय काँग्रेस को अपना पूर्ण सहयोग दिया।

(2) राष्ट्रीय स्त्री संघ- राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेने की प्रतिज्ञा सभी सदस्य महिलाओं से राष्ट्रीय स्त्री संघ की नेताओं के द्वारा कराई गयी। उन्होंने दैनिक कार्यों के निपटाने के लिए विभिन्न समितियां भी गठित की। साथ ही साथ इस संघ की नेताओं द्वारा महिलाओं से यह भी प्रतिज्ञा कराई गयी कि वे सूत कातकर खादी पहनेंगी तथा इन स्त्रियों की साड़ी केसरिया ही होगी। इस संघ के सदस्यों की संख्या लगभग 700 थी, जो बाद में बढ़ गयी ।

(3) महिला राष्ट्रीय संघ — भारत में यह पहला नारीवादी संगठन था जिसने राजनीतिक गतिविधियों में भी भाग लिया था। इस संघ का प्रमुख उद्देश्य महिलाओं की स्थिति को सुधारना तथा देश को स्वाधीन कराना था। इस संघ के नेताओं द्वारा दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समान दृष्टिकोण अपनाया गया था । इस सम्बन्ध में इन नेताओं का विचार था कि “जब तक महिलाओं के जीवन में सुधार नहीं आएगा, तब तक देश स्वतन्त्र नहीं होगा और महिलाओं की जिन्दगी में सुधार तभी सम्भव है, जब देश को विदेशी शासन से मुक्ति मिलेगी ।” इस संघ की प्रमुख नेता श्रीमती लतिका ने महिलाओं की स्थिति में विभिन्न प्रकार के सुधार करने के सम्बन्ध में विभिन्न लेख तथा भाषण तैयार किए । यद्यपि उन्होंने नारियों को एकजुट किया फिर भी उनका दृष्टिकोण गाँधीवादी ही रहा था।

सुप्रसिद्ध महिला नेता लतिका द्वारा महिलाओं को सन्देश देते हुए कहा गया था कि “हमारा देश गरीब है”, लेकिन यह हमेशा से गरीब नहीं था। यहाँ की कला और हस्त कौशल समस्त विश्व में प्रसिद्ध था। इस बीच महिलाएँ घरों में बन्द रहीं और उन्होंने देश की गरीबी की ओर से आँखें मूंद लीं, तो हमें क्या करना है ? याद करो वह कहानियाँ सुर और असुरों की, जो हमें हमारी दादी-नानी सुनाया करती थीं। जिस प्रकार जब देवता हार रहे थे तो दुर्गा शक्ति की तरह प्रकट हुईं। हमें याद रखना है कि स्त्रियाँ देश की शक्तियाँ हैं । उन राजपूत रानियों की कहानियाँ याद रखनी हैं, जो अपने पतियों को युद्ध के मैदान में भेजकर स्वयं अपने जौहर की तैयारियाँ करती थीं। उन पुरानी वीर नारियों की तरह सभी स्त्रियों को अपने भीतर की शक्तियों को पहचानना और दबी हुई चिंगारी को अग्नि की तरह प्रज्ज्वलित करना है, ताकि सभी देशवासी मन से शुद्ध हों और देश सेवा के लिए तत्पर हो जाएँ।”

महिला राष्ट्रीय संघ के प्रमुख कार्य

इस संघ द्वारा भारतीय राजनीति को अपने कार्यों से निम्न रूप से प्रभावित किया :

(1) पुरुषों का सहयोग प्राप्त करना- इस संघ की प्रमुख नेता लतिका द्वारा काँग्रेस के नेताओं से सहयोग करने की माँग भी की, ताकि इस संघ के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की जा सके। इस सम्बन्ध में उनका विचार था कि “राष्ट्रीय आन्दोलनों में महिलाएँ भाग ले सकती हैं जब वे घर के पुरुषों का समर्थन प्राप्त कर सकें। इस संघ के केन्द्रों की शक्ति को मन्दिर का नाम दिया गया। इन केन्द्रों में महिलाओं को, पढ़ना-लिखना, घरेलू हस्त-कलाओं, प्राथमिक चिकित्सा तथा स्वयं की रक्षा करना सिखाया जाता था। उनमें त्याग की भावना को विकसित किया जाता था। इन केन्द्रों पर स्वाधीनता के महत्त्व से भी अवगत कराया जाता था।

विभिन्न नारी संगठनों की राष्ट्रीय आन्दोलन में सहभागिता (Participation of Various Women Organisations in National Movements)

महिलाओं के विभिन्न संगठनों द्वारा भारत के राष्ट्रीय आन्दोलनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई गई। इन संगठनों के विभिन्न राजनैतिक कार्य निम्नलिखित रूप में व्यक्त किये जा सकते हैं-

(1) जुलूस तथा धरनों का आयोजन – प्रमुख नारीवादी संगठन देश ‘सेविका संघ’ द्वारा गुजरात में धरनों का भी आयोजन किया। इन धरनों में भाग लेने वाली महिलाओं की संख्या लगभग 1000 से 2000 होती थी। इस संघ के सदस्यों में अधिकांशतः मिलों में काम करने वाली श्रमिक ही होती थीं। इन्होंने कभी भी काँग्रेस में प्रतिनिधित्व नहीं माँगा था। ये स्वतन्त्रता के साथ अपनी कार्यवाही का संचालन भी करती थीं ।

(2) ऑल इण्डिया वीमेंस कांफ्रेंस की स्थापना- राष्ट्रीय आन्दोलनों में महिलाओं द्वारा भाग लेने के कारण महिलाओं से सम्बन्धित विभिन्न मुद्दों पर विचार-विमर्श सार्वजनिक रूप से भी किया जाने लगा। महिलाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण देने के उद्देश्य से ही इस संघ की स्थापना सन् 1926 में की गयी थी। इस संघ के द्वारा महिलाओं को शिक्षित किया जाता था इस संघ का प्रमुख उद्देश्य महिलाओं का जीवन स्तर सुधारना था सन् 1930 तथा 1940 के दशक के मध्य में इस संघ का विस्तार किया गया। इस संघ की प्रारम्भिक अवस्था में इनकी विचारधारा “सामाजिक सुधार बनाम राजनैतिक सुधार” थी। समय के परिवर्तन के साथ-साथ यह विचारधारा भी बदल गयी कि इस संस्था में महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दों पर भी विचार किया जाना चाहिए। अब इस संस्था का नाम भी बदलकर ‘ऑल इण्डिया वीमेंस कॉंफ्रेंस फार एजुकेशनल और सोशल रिफार्मस’ रखा गया, लेकिन ब्रिटिश सरकार द्वारा इस संस्था के राजनैतिक आन्दोलनों में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। राजनैतिक आन्दोलनों में महिलाओं के भाग लेने के कारण ही इस संस्था को उच्च वर्ग से सम्बन्ध समाप्त करने पड़े। इन सम्बन्धों पर सुप्रसिद्ध महिला नेता कमला देवी ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि “पहले ए.आई.डब्ल्यू.सी. की अध्यक्षाएँ महारानियाँ हुआ करती थीं।” जब यह संस्था एक एक्टीविस्ट संस्था बन गयी, तब सन् 1930 में इस संस्था के अध्यक्ष का चुनाव कराने का निर्णय लिया गया। सन् 1931 में ‘सरोजनी नायडू’ को इस संस्था का अध्यक्ष बनाया गया था ।

(3) नारी और कम्युनिस्ट एवं क्रांतिकारी आन्दोलन- ब्रिटिशकालीन भारत में, सरकार की नीतियों के विरुद्ध संचालित ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ तथा गाँधीजी के ‘असहयोग आन्दोलन’ में महिलाओं ने काफी उत्साह से भाग लिया। इसी समय कुछ महिलाएँ ‘क्रांतिकारी आन्दोलन’ से जुड़ी जिनमें अधिकांशत: छात्राएँ भी शामिल थीं। इन आन्दोलनों में इनका क्षेत्र काफी सीमित था। इनके प्रमुख कार्य प्रचार कार्य करना, घर में पनाह देना, पैसा इकट्ठा करना, हथियारों को छिपाना तथा विस्फोटक बनाना आदि थे। इस पर भी उनको किसी प्रकार की यौनिक आजादी नहीं दी गई थी।

इनको पुरुषों से अलग रखा जाता था। नारियों की यौनिक आजादी पर टिप्पणी करते हुए तनिक सरकार ने कहा था कि “जैसे-जैसे युवा लड़कियों की बंगाल आन्दोलन में सहभागिता बढ़ी, वैसे-वैसे महिलाओं की भागीदारी का विरोध हुआ।” तत्कालीन राष्ट्रवादी नेता शरतचन्द्र तथा टैगोर ने भी महिलाओं की भागीदारी का व्यापक विरोध किया।

भारत के नारीवादी क्षेत्र में, सन् 1930 ई. के दशक में कई कम्युनिस्ट महिलाओं का प्रवेश हुआ, जिनमें ऊषा बाई डाँगे प्रमुख थीं। इन्होंने सूती वस्त्र उद्योग श्रमिक महिलाओं को पूर्ण रूप से संगठित किया, क्योंकि उस समय महिलाएँ स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग ले रही थीं। सन् 1930 के दशक में राष्ट्रवादी नारियों तथा कम्युनिस्ट महिलाओं द्वारा एक देशव्यापी आन्दोलन प्रारम्भ किया गया जिसका प्रमुख उद्देश्य राजनैतिक बन्दियों को रिहा कराना भी था।

(1) कांग्रेस महिला संघ की स्थापना – पं. बंगाल में, सन् 1939 ई. में नारी राजनैतिक एक्टीविस्टों द्वारा एक संघ बनाया गया, जिसका नाम ‘कांग्रेस महिला संघ’ रखा गया। इस संघ में, भूमिगत कम्युनिस्ट, ए. आई. डब्लू. सी. उग्रवादी स्त्री संघ समूह तथा युगान्तर आदि में प्रवेश किया। इस संघ के द्वारा मंदिरा नामक पत्रिका का प्रकाशन भी किया गया, जो काफी प्रसिद्ध हुई थी ।

(2) अखिल भारतीय (महिला) छात्र संघ की स्थापना- कांग्रेस महिला संघ के गठन के बाद भारत के स्वाधीनता संग्राम में छात्राओं ने भी भाग लिया और लखनऊ में एक समिति का गठन किया जिसका नाम ‘अखिल भारतीय (महिला) छात्र संघ’ (ए. आई. एस. एफ.) रखा गया और सन् 1940 के प्रथम छात्राओं के सम्मेलन में इस समिति द्वारा भाग लिया गया। इस प्रकार प्रथम बार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा महिलाओं के अस्तित्व को भी स्वीकार करना पड़ा।

सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में महिलाओं की सहभागिता (Participation of Women in ‘Quit India Movement’ of 1942)

भारत में क्रिप्स योजना की असफलता के बाद जुलाई 1942 में कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया गया कि ‘अंग्रेज भारत छोड़ दें।’ इस प्रस्ताव का अनुमोदन, 8 अगस्त, 1942 को मुम्बई में अखिल भारतीय कांग्रेस ने भी कर दिया। इस प्रस्ताव का यह अर्थ नहीं था कि अंग्रेज जाति ही भारत से चली जाए, वरन् इसका अभिप्राय यह था कि “अंग्रेज अधिकारी भारत की शासन सत्ता को भारतीयों के सुपुर्द कर दें।” जिस समय भारत में ‘भारत  छोड़ो आन्दोलन’ प्रारम्भ हुआ, उसी समय देश की राजनीति में विभिन्न महिला संगठन भी सक्रिय हो चुकी थी। इसलिए इस आन्दोलन में भारी संख्या में नारियों द्वारा योगदान किया गया। इस आन्दोलन में नारियों की भूमिका का विवरण इस प्रकार है-

(1) नारियों का दमन- जब इस आन्दोलन में नारियों ने भाग लिया तो एक बार तो ब्रिटिश सरकार भी घबरा गयी, क्योंकि कुछ महिलाएँ भूमिगत हो गई, कुछ ने समानान्तर सरकार भी बनाई तथा इसी समय कुछ महिलाओं द्वारा गैर-कानूनी कार्यों में भी सहयोग किया गया। ब्रिटिश सरकार द्वारा कुछ महिलाओं की हत्या भी करा दी गयी। इससे बचने के लिए, स्त्रियों को ‘आत्म रक्षा सम्बन्धी प्रशिक्षण भी दिया गया ताकि ब्रिटिश व जापानी बमों से अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। ब्रिटिश शासन द्वारा व्यापक रूप से स्त्रियों को गिरफ्तार करके दमन चक्र चलाया गया था ।

(2) आत्म-रक्षा समिति का गठन- आत्म-रक्षा सम्बन्धी प्रशिक्षण लेने के बाद महिलाओं द्वारा देश के भिन्न-भिन्न स्थानों पर आत्म रक्षा समिति की स्थापना की गयी। इन समितियों के सदस्यों को लाठी चलाने का प्रशिक्षण भी दिया जाता था। इन समितियों ने कोलकाता में महिला सभाओं का आयोजन किया, जिसमें यह निर्णय लिया कि “आत्म-रक्षा समितियों के समन्वय के लिए एक अलग संगठन समिति बनायी जाएगी”। तब बंगाल में महिलाओं ने एक समन्वय समिति गठित की, जिसका नाम ‘महिला आत्म-रक्षा समिति’ रखा गया था यह भारत का सबसे पहला कम्युनिस्ट महिला संगठन था, क्योंकि इस समिति की अधिकांश सदस्या कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्या ही थीं।

(3) स्वाधीनता आन्दोलन में समाहित करना— भारत की राजनीति में सन् 1940 के दशक में यह विचार उत्पन्न हो गया था कि “स्वतन्त्रता प्राप्ति से स्त्री और पुरुषों की गैर समानता दूर होगी ।” इसलिए महिला मुक्ति का प्रतीक तथा देश की स्वतन्त्रता का मुख्य आधार महिला एक्टीविस्टों को माना जाने लगा इसका मुख्य परिणाम यह हुआ कि इस दशक में महिला आन्दोलन को देश के स्वाधीनता आन्दोलन में पूर्ण रूप से समाहित कर लिया गया।

(4) राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा आलोचना – भारतीय राजनीति में महिलाओं के बढ़ते प्रभाव से राष्ट्रवादी, क्रांतिकारी, उग्रवादी, तथा कम्युनिस्ट पूर्ण रूप से भयभीत थे। इसलिए उन्होंने महिलाओं की कार्य प्रणाली को सीमित करने का प्रयास किया। इन नेताओं के भय का प्रमुख कारण ‘यौनिकता’ का प्रसार भी था जिस पर महिला नेताओं द्वारा गंभीरता से विचार नहीं किया गया। इसीलिए ये नेता महिलाओं की भागीदारी के विरुद्ध थे। इस सम्बन्ध में राष्ट्रवादी नेताओं का विचार था कि “या तो महिलाओं का गाँधीजी की शिक्षानुसार ‘अयौनीकरण’ हो या फिर उनको घरेलू अधीनस्थ महिला के रूप में दृष्टिगत किया जाए।”

राष्ट्रीय आन्दोलन में नारियों की भागीदारी पर गाँधीजी का प्रभाव (Effect of Gandhiji on the Participation of Women in National Movement) 

जिस समय भारत में भारतीय महिलाओं में राजनैतिक जागरूकता उत्पन्न हुई, उस समय तक गाँधीजी एक युग पुरुष बन चुके थे और अधिकांशतः लोगों द्वारा उनको ‘मुक्ति दूत’ के रूप में स्वीकार कर लिया था गाँधीजी जहाँ भी जाते, वहीं पर भीड़ एकत्र हो जाती थी और यहाँ तक कि दंगे भी भड़क जाते थे। इसलिए जब 1920 में महिलाओं द्वारा आन्दोलनों में भाग लिया गया तो सबका यही मानना था कि महिलाओं की यह भागीदारी गाँधीजी के प्रभाव से उत्पन्न हुई थी।

(1) दक्षिण अफ्रीकी महिलाओं पर प्रभाव – जब गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका गए तो वहाँ की महिलाओं की जुझारू क्षमता से पहली बार प्रभावित हुए। वहाँ की महिलाओं द्वारा उनके राजनैतिक विचारों को पूर्ण रूप से स्वीकृत किया गया और जेलों की घोर यातनाओं को सहन किया गया जो उनके आत्म-त्याग एवं पीड़ा सहने की अद्भुत क्षमता का परिचायक था।

(2) भारतीय महिलाओं पर प्रभाव – यद्यपि गाँधीजी से पूर्व भारत के विभिन्न समाज सुधारकों द्वारा नारी की सामाजिक स्थिति पर भी विचार किया गया था, लेकिन गाँधीजी द्वारा महिलाओं के प्रति समाज सुधारकों की परम्परागत विचारधारा को बदल दिया गया था, क्योंकि गाँधीजी के पूर्व के विचारकों एवं समाज सुधारकों द्वारा महिलाओं के आत्म-त्याग को केवल कर्मकाण्ड के रूप में देखा था और उनका विचार था कि “कर्मकाण्ड ही महिला की छवि को गौरवपूर्ण बनाते हैं, लेकिन गाँधीजी ने नारी के आत्म-त्याग को अलग ही परिभाषित किया । इस सम्बन्ध में उनका विचार था कि “आत्म त्याग भारतीय नारीत्व का स्वाभाविक गुण है, क्योंकि उनकी मुख्य भूमिका माँ की होती है।” गाँधीजी ने भारतीय महिलाओं के गुणों को विकसित करने पर बल दिया और यह भी कहा कि “पुरुष भारतीय स्त्रियों से बहुत कुछ सीख सकता है।” पाश्चात्य महिलाओं के सम्बन्ध में गाँधीजी का विचार था कि ” वे भी भारतीय महिलाओं के गुणों से बहुत कुछ सीख सकती हैं। “

गाँधीजी के महिला सम्बन्धी विचारों पर टिप्पणी करते हुए ‘मधु किश्वर’ ने लिखा है। कि “गाँधीजी ने महिलाओं को एक नया आत्म-सम्मान, एक नया विश्वास, एक नई आत्म-छवि दिलाई। वे निष्क्रिय वस्तु से सक्रिय नागरिक एवं सुधारक बनीं। “इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री वीना मजूमदार ने भी कहा है कि “गाँधीजी ने महिला मुद्दों को समर्थन दिलवाया ।” यद्यपि गाँधीजी का भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण योगदान है। लेकिन कुछ विचारक यह कहते हैं कि “यह कथन उचित नहीं है कि किसी भी आन्दोलन में एक समूह द्वारा भागीदारी इसलिए हुई कि आन्दोलन को एक नेता विशेष के मन में उस समूह की एक खास छवि थी जबकि उस आन्दोलन में अनेक समूह शामिल थे।” विचारकों के अनुसार ‘भागीदारी’ का अर्थ सक्रिय रूप से काम करने से माना गया है।

विभिन्न आन्दोलनों में नारियों की भागीदारी का मूल्यांकन (Evaluation of Women’s Participation in Various Movements) – यद्यपि गाँधीजी द्वारा, महिलाओं के कार्यों को वैध बनाने, उनका सुदृढ़ वर्ग बनाने एवं सांस्कृतिक परिधि से बाहर निकालने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई गयी है, फिर भी गाँधीजी की विचारधारा, महिलाओं को, हिन्दू पितृसत्तात्मक क्षेत्र से बाहर नहीं निकाल सकी, जिससे महिलाओं का आन्दोलन सीमित होकर रह गया था। गाँधीजी यह समझते थे कि “उनकी अहिंसात्मक विचारधारा का प्रभाव नारियों पर पड़ा है, क्योंकि महिलाओं में पीड़ा सहन करने की शक्ति होती है। उन्होंने स्वैच्छिक विधवाओं को ही एक आदर्श कार्यकर्ता माना था। क्योंकि महिलायें पीड़ा में भी सुख का रास्ता निकाल लेती थी।”

कुलीनता एवं सतीत्व- गाँधीजी ने नारियों के कुलीनता तथा सतीत्व के गुण को भी महत्त्वपूर्ण माना था । उन्होंने केवल उन्हीं नारियों को आन्दोलन में भाग लेने के लिए कहा जो मन, वचन तथा कर्म से कुलीन थीं। गाँधीजी महिलाओं को पुरुषों का पूरक, त्याग एवं पीड़ा की महान मूर्ति के रूप में स्वीकार करते थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने सन् 1921 ई. में कहा भी था कि “पुरुषों की नजरों में महिलाएँ कमजोर नहीं हैं वरन् दोनों लिंगों में ज्यादा श्रेष्ठ इसलिए हैं कि आज भी वे त्याग, खामोश, पीड़ा, नम्रता, विश्वास और ज्ञान की साक्षात् प्रतिमा हैं।” गाँधीजी का नारियों के प्रति समानता का दृष्टिकोण पितृसत्तात्मक समाज के अनुकूल था।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि भारत के इस पुरुष प्रधान समाज में राष्ट्रीय नारियों की भागीदारी केवल घरेलू भूमिका का विस्तार ही माना जाता है, क्योंकि वे पुरुषों की तरह किसी चुनाव में भाग नहीं ले सकती थीं और न ही उनके रहन-सहन तथा जीवन-शैली में किसी प्रकार का परिवर्तन ही हुआ था। उस समय महिलाओं के लिए, पुरुषों ने जो रणनीति बनाई थी, उसका राजनीतिकरण नहीं हो सकता था । यद्यपि खादी कार्यक्रम से महिलाओं को जोड़ा गया, लेकिन उनका कार्य केवल सूत कातना, वस्त्र बुनना ही था।” इस सम्बन्ध में मनु महाराज ने कहा था कि “बिन ब्याही लड़की को सूत कातना चाहिए और विवाह के बाद ताना बुनने वाली होनी चाहिए।”

इस प्रकार राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलनों में नारियों की भागीदारी की व्यापक स्तर पर विभिन्न रूप में आलोचनाएँ की गई तथा इसको किसी प्रकार का कोई महत्व नहीं दिया गया । यही कारण है कि जब देश को 15 अगस्त, 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्त हुई, उस समय कांग्रेस के किसी भी महत्त्वपूर्ण पद पर कोई महिला विराजमान नहीं थी। नारियों की स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी असंख्य कार्यकर्त्ताओं जैसी ही थी, न कि नेतृत्व सरीखी भागीदारी, जिसके अधीन रहकर स्वतन्त्रता प्राप्त की गयी हो।

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Anjali Yadav

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