आत्म के विकास में सामाजिकरण की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
आत्म के विकास में सामाजिकरण की भूमिका- बालक का सामाजिकरण प्रमुखतः परिवार, अध्यापक एवं विद्यालय द्वारा होता हैं। अतः आत्म के विकास में परिवार, अध्यापक एवं विद्यालय की भूमिका का उल्लेख किया गया है-
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आत्म के विकास में परिवार की भूमिका –
बालक के व्यवहार पर परिवार का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। इसलिए सबसे पहले परिवार के सामाजिकरण द्वारा आत्म के विकास के प्रयास करने चाहिए। इन प्रयासों में निम्न का उल्लेख किया जा सकता है-
- बालक को पूर्ण स्नेह तथा प्यार दिया जाय।
- बालक के अस्तित्व व सुझावों को स्वीकार किया जाय।
- बालकों के व्यक्तित्व को पूर्ण सम्मान दिया जाय।
- बालक की आवश्यकताओं की ओर समुचित ध्यान दिया जाय।
- परिवार को पारस्परिक क्लेश व संघर्ष से दूर रखा जाय।
- परिवार में अनुशासन तथा नियन्त्रण न बहुत कठोर हो और न बहुत ढीला हो।
- प्रत्येक बालक की ओर व्यक्तिगत ध्यान दिया जाय।
- परिवार के अन्य सदस्य अपने चरित्र को ऊँचा रखे तथा बालकों के सम्मुख अच्छे आदर्श प्रस्तुत करें।
- बालकों की योग्यताओं तथा क्षमताओं का ध्यान रखकर उन्हीं के अनुसार उन्हें शिक्षा दिलाई जाय।
- परिवार का सम्पूर्ण वातावरण सुन्दर, सौम्य तथा सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए।
आत्म के विकास में अध्यापक की भूमिका
बच्चे के सकारात्मक आत्म के विकास में अध्यापक की भूमिका निम्नवत् हो सकती है:-
1. अध्यापक माता-पिता के स्थानापन्न के रूप में :- प्राथमिक कक्षाओं में अध्यापक कई घण्टों तक माँ का स्थान लेते हैं। कक्षा एक और दो में विशेष रूप से और अन्य प्राथमिक कक्षाओं में सामान्य रूप से बच्चे अध्यापक को माँ से बड़ा स्थान देते हैं। इस तरह अध्यापक के विचार, भावनाओं, प्रतिक्रियाओं तथा व्यवहार का बच्चे पर गहरा प्रभाव पड़ता है। एक माँ बच्चे को ‘मूर्ख’ कह सकती है पर इससे बच्चे के आत्म को ज्यादा हानि नहीं पहुँचती, पर यदि अध्यापक उसे ‘मूर्ख’ कहता है तो यह बच्चे के लिए अन्तिम सत्य बन जाता है। यह पूरे विद्यालयी जीवन में बच्चे के मस्तिष्क में जमा रहेगा। अतः अध्यापकों को बच्चों के प्रति अपने व्यवहार में बड़ा सावधान रहना चाहिए। उन्हें सतर्क रहकर बच्चे के साथ व्यवहार करना चाहिए।
2. व्यंग्य पूर्ण टिप्पणी या कटाक्ष से परिहार करना :- यह सत्य है कि किसी पर कटाक्ष करने या किसी का मखौल उड़ाने से उसका आत्म-प्रत्यय बुरी तरह प्रभावित होता है तथा उसके अधिगम व्यवहार पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। यह बात विशेषकर बाधित/वंचित समुदायों के बच्चों के लिए और भी सत्य है। कभी-कभी अध्यापक बच्चों के नाम व्यंग्यपूर्ण ढंग से रखते हैं या कोई व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी कर देते हैं; जैसे किसी बच्चे को ‘भगोड़ा’ कहना या उस पर व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी करना। ऐसा करने पर उसके सहपाठी उसी नाम से बच्चे को चिढ़ाते रहते हैं। इससे उसका आत्म घटता है। अतः अध्यापकों को व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी करने या व्यंग्यपूर्ण ढंग से नाम रखने से बचाना चाहिए तथा ध्यान रखना चाहिए कि अन्य बच्चे उसको चिढ़ाये नहीं।
3. लेबल या नामांकन करने से बचना- कभी-कभी अध्यापक बच्चों के लिए ‘पिछड़ा बच्चा’, ‘बैक बेन्चर’, ‘लेट लतीफ’ जैसे पदों का प्रयोग करते हैं। ऐसे पदों का बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। शरीर पर लगा घाव उतनी पीड़ा नहीं देता जितना वाणी द्वारा दिया हुआ घाव। कई लेबल मनोवैज्ञानिक समस्या उत्पन्न कर देते हैं। बच्चों को अध्यापक ऐसे लेबल इसलिए देता है क्योंकि बच्चे कक्षा में समस्याएँ उत्पन्न करते हैं पर बजाय ऐसे लेबल लगाने के अध्यापक को बच्चे की समस्या को समझना चाहिए और उसकी समस्या का निराकरण मनोवैज्ञानिक ढंग से करना चाहिए। अध्यापक किसी भी बच्चे को जो पूर्ण रूप से दूसरों पर निर्भर रहता हो, असभ्य हो, गैर जिम्मेवार हो उसे आत्मनिर्भर, सभ्य एवं जिम्मेवार बना सकता है। अतः अध्यापक को इस दृष्टि से प्रयास करना चाहिए और बच्चों के आत्म को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।
4. शैक्षिक उपलब्धि में सुधार करना- शैक्षिक उपलब्धि एवं आत्म में सकारात्मक संबंध होता है। जिन बच्चों का आत्म सकारात्मक होता है उनकी शैक्षिक उपलब्धि अधिक होती है। नकारात्मक आत्म बच्चों को अधिगम परिस्थितियों से हटाता है। यह उनमें अक्षमता एवं हीन भावना उत्पन्न करता है। यदि अध्यापक बच्चों के नकारात्मक आत्म को सकारात्मक आत्म में बदल दे तो उनकी शैक्षिक उपलब्धि अच्छी हो जायेगी। उत्तम मानसिक स्वास्थ्य, परम्पराएँ, सकारात्मक पुनर्बलन का उपयोग, व्यक्तिनिष्ठ अध्ययन, सफलता के लिए अवसर आदि सकारात्मक आत्म को बढ़ाने में मदद करते हैं और परिणामस्वरूप शैक्षिक उपलब्धि को बढ़ाने में भी मदद करते हैं।
उपर्युक्त लिखित उपाय किये जाने पर छात्रों के आत्म के विकास में योगदान दिया जा सकेगा। आत्म के विकास में अध्यापकों एवं माता-पिता की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। आत्म का विकास अच्छा होने पर छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
आत्म का विकास एवं विद्यालय
बालक के आत्म का विकास बालक के द्वारा अर्जित सामाजिक अनुभवों से होता है। उसे ये अनुभव सर्वप्रथम परिवार से प्राप्त होते हैं। परिवार में माता-पिता, भाई-बहनों के सम्पर्क में सामाजिक अनुभव प्राप्त होते हैं। इन अनुभवों का बालक के आत्म पर प्रभाव पड़ता है। परिवार के पश्चात् विद्यालय ही ऐसा प्रमुख स्थान है जहाँ बालक के आत्म का निर्माण होता है। अतः विद्यालय का बालक के आत्म के निर्माण में महत्ती योगदान होता है। यह योगदान निम्नवत् रूप से प्राप्त होता है:
1. नये साथी संगियों से सम्पर्क – विद्यालय में बालक का सम्पर्क नये संगी साथियों से होता है। उनके साथ अपनी तुलना करने से उसके आत्म का निर्माण होता है। साथियों का उसके प्रति दृष्टिकोण से उसका आत्म प्रभावित होता है। साथियों की टिप्पणियों का उसके आत्म पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
2. अध्यापक का बर्ताव – परिवार में बालक की स्थिति उसकी विद्यालय में स्थिति से भिन्न होती है। परिवार में वह अपने माता-पिता का दुलारा होता है; पर विद्यालय में अध्यापक के लिए उतना दुलारा नहीं हो सकता। अध्यापक के लिए सभी बच्चे समान होते हैं। अतः बच्चे को अन्य बच्चों के मध्य अपनी स्थिति का बोध होता है। यही बोध उसके आत्म का निर्माण करता है।
3. शैक्षिक उपलब्धि – बालक की विद्यालय में शैक्षिक उपलब्धि का आत्म के निर्माण में प्रभाव पड़ता है। यदि उसकी शैक्षिक उपलब्धि अच्छी हुई तो उसका आत्म भी उच्च होगा।
4. सहशैक्षिक कार्यों में उपलब्धि – पाठ्य सहगामी क्रियाओं में सफलता या विफलता का बच्चे के आत्म पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन गतिविधियों में सफल रहने वाले बच्चों का आत्म सदैव उच्च रहता है।
5. भावी शैक्षिक आकांक्षाओं एवं निष्पादन का प्रभाव – मोर्स (Morse) एवं लाँग (Long) के अनुसार बच्चे के आत्म प्रत्यय पर उसकी भावी शैक्षिक अकांक्षाओं एवं निष्पादन का भी काफी प्रभाव पड़ता है। बालक विद्यालय में रहकर ऐसी आकांक्षाएँ अपने मन में संजोता है। अध्यापक की प्रेरणा से उसमें इन आकांक्षाओं का जन्म होता है। ऐसे कई अध्ययन हुए हैं जिनमें आकांक्षाओं एवं आत्म के मध्य संबंध ज्ञात किया। गया है। उन सब के निष्कर्ष इसी ओर संकेत करते हैं।
6. विद्यालय वातावरण का प्रभाव – विद्यालय के समग्र वातावरण का प्रभाव भी बालक के आत्म निर्माण पर पड़ता है। विद्यालय के भवन, प्रयोगशाला, क्रीड़ागन, पुस्तकालय व अन्य सुविधाओं का प्रत्यय निर्माण पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। समृद्ध वातावरण वाले विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों का आत्म उच्च होता है। जबकि विपन्न वातावरण वाले विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों में हीन भावना होती है।
7. छात्र- अध्यापक संबंध का प्रभाव – बालकों के आत्म पर छात्र-अध्यापक संबंधों का प्रभाव पड़ता है। यदि अध्यापक छात्रों के व्यक्तित्व को सम्मान देते हैं, उन्हें स्नेह करते हैं तथा उनकी सहायता करते है तो बालकों के आत्म पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत यदि संबंध ठीक नहीं हुए तो आत्म पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
8. पाठ्यक्रम, परीक्षा प्रणाली, सहगामी क्रियाएँ- आदि भी आत्म निर्माण के सहायक कारक हैं।
9. अधिगम प्रक्रिया – अधिगम प्रक्रिया भी बालक के आत्म को प्रभावित करती है। अधिगम में प्रतिपुष्टि, पुनर्बलन, सफलता का अहसास आदि ऐसे तत्त्व हैं जिनका बालक के आत्म पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
विद्यालयों द्वारा आत्म के विकास के लिए किये जाने वाले उपाय – विद्यालयों की बच्चों के आत्म के विकास में भूमिका को सभी स्वीकार करते हैं। विद्यालयों को इस दृष्टि से निम्नांकित कार्य करना चाहिए।
- शिक्षकों के प्रभाव का बच्चों के आत्म-विश्वास को विकसित करने में उपयोग करना चाहिए।
- विद्यालय पाठ्यक्रम में सम्मिलित ज्ञान, कौशल व अवबोध को विभिन्न विषयों के माध्यम से विद्यार्थियों के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहिए।
- छात्र-शिक्षक संबंधों को इस तरह बनाना कि उनका प्रभाव आत्म के विकास पर अनुकूल पड़े।
- अध्यापक अभिभावक बैठकों का आयोजन करके विद्यार्थियों के बाह्य वातावरण के संबंध में जानकारी प्राप्त करना ।
- शिक्षण विषयों की विषय वस्तु की जीवन में उपयोगिता पर बल देना भी आत्म के विकास में सहायक रहता है।
- बालकों के अन्तर वैयक्तिक संबंध, प्रभावपूर्ण सम्प्रेषण एवं समूह में कार्य करने के अवसर प्रदान करना।
- चिन्तन, कौशल, सामाजिक जागरुकता, समस्या समाधान एवं निर्णय लेने जैसी कुशलताओं का विकास करना।
- बालकों को भावी भूमिकाओं के निर्वहन करने योग्य बनाना।
- ज्ञान, अभिवृत्तियों और मूल्यों से संबंधित अधिगम प्रदान करने की व्यवस्था करना।
- विद्यार्थियों को अपनी सफलताओं, विफलताओं शक्तियों, दुर्बलताओं एवं आकांक्षाओं को पहचानने में बालकों की मदद करना।
- क्षेत्र पर्यटन, प्रयोजना कार्य, सामुदायिक कार्यों का आयोजन करना ।
- सहशैक्षणिक गतिविधियों का आयोजन करना।
- स्वनिर्देशन, स्वपर्यवेक्षण आदि हेतु छात्रों को प्रेरित करना ।
- विद्यालयी व्यवस्था को ऐसा बनाना कि छात्रों को आत्म के विकास की प्रेरणा मिले।
- बालकों के अकांक्षा स्तर को बढ़ाने का प्रयास करना।
- छात्रों को निराशा, तनाव, कुण्ठा एवं मानसिक संघर्ष से बचाने का प्रयास करना।
- विभिन्न क्षेत्रों में ख्याति प्राप्त लोगों से मिलने एवं परिचर्चा करने के अवसर प्रदान करना।
- अच्छे पुस्तकालय की सुविधा उपलब्ध कराना।
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