औद्योगिक क्रांति के राजनीतिक प्रभावों की विवेचना कीजिए।
औद्योगिक क्रांति ने न केवल आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र को ही प्रभावित किया बल्कि उसने राजनीतिक क्षेत्र को भी जबरदस्त रूप से प्रभावित किया। सामाजिक शोषण के विरूद्ध अधिनियम मध्यम वर्ग का राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष तथा संसदीय सुधार स्वतन्त्र व्यापार नीति उपनिवेशवाद की सफलता और राजनीतिक सुदृढ़ता इत्यादि औद्योगिक क्रांति के परिणाम कहे जा सकते हैं। संक्षेप में राजनीतिक प्रभावों का विवरण इस प्रकार हैं-
(i) राजनीतिक सुदृढ़ता:- औद्योगिक क्रांति की सबसे महत्वपूर्ण देन हैं, औद्योगिक देशों की राजनीतिक सुदृढ़ता। औद्योगिक क्रांति से राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय से वृद्धि हुई। यातायात के साधनों का विकास हुआ, संचार व्यवस्था में उन्नति हुई, व्यापारिक क्रांति से आर्थिक व्यवस्था को स्थायित्व मिला। इन सबने मिलकर राजनीतिक सुदृढ़ता को बल प्रदान किया। चूंकि प्रत्येक देश की विस्तारवादी नीति की सफलता उसके आर्थिक साधनों पर निर्भर हैं अतः अधिक सम्पन्न देश औपनिवेशिक विस्तार में सफल रहे।
(ii) औद्योगिक देशों में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा :- यद्यपि उपनिवेशों की स्थापना का कार्य औद्योगिक क्रांति से बहुत पहले से ही शुरू हो चुका था परन्तु अमेरिका के स्वतन्त्रता संघर्ष के कारण जब इंग्लैण्ड के हाथों से उसके 13 उपनिवेश निकल गये तो यूरोपीय देशों में उपनिवेशों को स्थापित करने की प्रवृति में थोड़ी शिथिलता आ गयी।
औद्योगिक क्रांति ने एक बार पुनः यूरोपीय देशों में उपनिवेशों की स्थापना हेतु राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का दौर शुरू कर दिया। औद्योगिक क्रांति के कारण उत्पादन की मात्रा बढ़ने लगी परन्तु यूरोप में अपेक्षित कच्चे माल की कमी थी अतः कच्चे माल को प्राप्त करने के लिए उपनिवेशों की स्थापना तथा स्थापित उपनिवेशों की सुरक्षा के लिए सैनिक व्यवस्था आवश्यक थी। उत्पादित माल को खपाने के लिए बाजारों की आवश्यकता थी और इस आवश्यकता की पूर्ति भी उपनिवेशों से हो सकती थी। अतः उपनिवेशों को स्थापित करने अथवा अविकसित देशों का राजनीतिक नियन्त्रण प्राप्त करने की प्रवृति को बल मिला। इसी को साम्राज्यवाद कहते हैं। इस दौड़ में इंग्लैण्ड सबसे आगे निकल गया। फ्रांस, हॉलैण्ड, बेल्जियम, पुर्तगाल और रूस ने भी अपने-अपने साम्राज्य का विस्तार किया। परन्तु इस दौड़ में जर्मनी और इटली काफी पीछे रह गये क्योंकि एक राष्ट्रीय शक्ति के रूप में इसका उदय 1870 ई. के बाद हुआ था। अतः स्वाभाविक था कि इन दोनों राष्ट्रों में एक दूसरे के प्रति मनमुटाव पैदा हो। इससे प्रत्येक देश को अपनी सुरक्षा की चिन्ता लग गई और उसने अपने विरोधी देश के विरुद्ध अपने मित्र देशों के साथ सैनिक संधियाँ कर ली जिसका परिणाम यह हुआ कि संसार दो परस्पर विरोधी गुटों में बट गया और प्रथम तथा द्वितीय महायुद्ध लड़े गये।
(iii) विदेश नीतियों में परिवर्तन:- औद्योगिक क्रांति ने यूरोप के औद्योगिक देशों की विदेश नीतियों को भी प्रभावित किया। पहले ये देश धार्मिक युद्धों अथवा जातीय युद्धों में अधिक उलझे हुए थे। अब धर्म तथा जाति की बात गौण हो गई और उसके स्थान पर उपनिवेशों तथा अविकसित देशों के नियन्त्रण अथवा राष्ट्रीय हितों की बात अधिक महत्वपूर्ण हो गई।
(iv) मध्यम वर्ग का राजनीतिक उत्कर्ष:- औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने में तथा उसमें अधिकाधिक लाभ उठाने वाला मध्यम वर्ग ही था। क्रांति के फलस्वरूप शिक्षा और धन दोनों ही क्षेत्रों में मध्यम वर्ग मध्यकालीन कुलीनों एवं सांमतों से काफी आगे निकल गया था परन्तु जहां तक राजनीतिक अधिकारों का सवाल था मध्यम वर्ग की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आ पाया था। उसके पास किसी प्रकार के राजनीतिक अधिकार नहीं थे। संसद तथा प्रशासन में उसका प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर था यद्यपि प्रशासन को करो के रूप में इस वर्ग से काफी आय होती थी। अतः इस वर्ग में अधिकारों को प्राप्त करने तथा कुलीनों के साथ समानता का दर्जा लेने की तीव्र ईच्छा हुई थी। यह एक आश्चर्य की बात है कि औद्योगिक क्रांति सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में हुई थी परन्तु अमेरिका के मध्यम वर्ग को सबसे पहले राजनीतिक अधिकार प्राप्त हुए। उसके बाद फ्रांस ने मध्यम वर्ग को अधिकार प्रदान किये थे।
(v) श्रमिकों का संघर्ष:- श्रमिकों को अपने अधिकारों के लिए निरन्तर संघर्ष करना पड़ा। राबर्ट ओवन जैसे साहसी सुधारक ने उनका पक्ष लेकर सुधारों की मांग की। शुरू में ओबन को काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। सर्वप्रथम काम के घन्टों को लेकर श्रमिकों ने संघर्ष किया। सर्वप्रथम 1802 में एक कानून बनाकर निर्धन तथा अनाथ बच्चों के लिए केवल 62 घन्टों का काम निर्धारित किया गया। 1819 में एक अन्य कानून पास कर काम के लिए न्यूनतम आयु को निर्धारित किया गया। इन सुधारों से मजदूरों तथा श्रमिकों में जागृति हुई तथा इनका आत्मविश्वास बढ़ा।
श्रमिकों ने अपनी समस्याओं के समाधान के लिए एक जुट होने का निश्चय किया। उनके सामने दो रास्ते थे-(i) संयुक्त होकर अपने मालिकों से मांग करना और दूसरा राजनीतिक कार्यवाही करना। अतः श्रमिकों ने यूनियन बनाने का निश्चय किया यद्यपि यूनियन का गठन करना इतना आसान भी न था अतः यूनियन का गठन चोरी छिपके होने लगा था। 1825 में उदारवादी नेताओं के फलस्वरूप इंग्लैण्ड की संसद ने यूनियन बनाने की अनुमति प्रदान कर दी थी। 1834 में सबको मिलाकर एक नेशनल यूनियन की स्थापना की गई। 1875 ई. में फ्रांस ने यूनियनों को कानूनी मान्यता प्रदान कर दी थी। 1881 ई. में संयुक्त राज्य अमेरिका में अमेरिकी मजदूर फेडरेशन की स्थापना हुई। अधिकांश यूनियनों की रूचि आठ घण्टे प्रतिदिन काम, कारखानों की अधिक सफाई, काम पर सुरक्षा की स्थिति, अच्छा वेतन, बालश्रम आदि को बन्द करना आदि था।
(vi) समाजवाद का राजनीतिक विचारधारा के रूप में उदय:- मजदूरों की स्थिति सुधारने के लिए जो आन्दोलन चलाया गया वो समाजवाद के रूप में एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में उदय हुआ। समाजवाद का अर्थ हैं-समाज में समानता की स्थापना करना। समानता का अर्थ हैं-आर्थिक और राजनीतिक समानता। अवसरों की समानता उपलब्ध कराना। समान कार्य के लिए समान वेतन उपलब्ध कराना। इस दिशा में सबसे पहले एक अंग्रेज उद्योगपति राबर्ट ओवन ने कदम बढ़ाया। उसने अपनी न्यू लेनार्क स्काटलैण्ड बस्ती को एक आदर्श बस्ती के रूप में बदल दिया। न्यू लेनार्क में उसने अपने उद्योगों में मालिकाना अधिकार और मुनाफा मजदूरों और प्रबन्धकों के बीच बाँट दिया था।
फ्रांस में चार्ल्स कूटया और क्लूडे हेनरी सासीमोन ने यह विचार प्रतिपादित किया कि सरकार सम्पत्ति का प्रबन्ध सम्भाले और सभी लोगों के बीच इसका बंटवारा कर दें। 1848 में पेरिस क्रांति के समय लुई ब्लांक ने प्रस्ताव रखा कि पेरिस शहर के बेरोजगारों के लिए सरकार को कारखानें खोलने चाहिए।
समाजवादी विचारधारा को अमर रूप प्रदान करने का श्रेय दो प्रमुख जर्मन सोशलिस्टो काल मार्क्स (1818-1883) और फ्रेडरिक एंगेल्स को दिया जाता हैं। 1848 ई. में उन दोनों ने मिलकर कम्यूनिस्ट घोषणा पत्र का प्रकाशन करवाया था। इसमें मजदूरों की निर्धन स्थिति को सुधारने संबंधी विचारों का प्रतिपादन किया गया। 1867 ई. में मार्क्स ने दास कैपिटल नामक पुस्तक की पहली जिल्द प्रकाशित की। इस पुस्तक के शेष दो खण्ड उसकी मृत्यु के बाद उसके मित्र ऐग्लस ने प्रकाशित करवाये। इन पुस्तकों में उसने बहुत विस्तार के साथ अपने सिद्धान्तों को स्पष्ट किया था जो मार्क्सवादी समाजवादी या साम्यवाद के रूप में पुकारे गये।
कार्लमार्क्स ने अपना सम्पूर्ण जीवन साहित्य साधना तथा श्रमिकों के उत्थान में लगाया। मार्क्सवाद के प्रयत्नों से ही श्रमिकों में समाजवाद की भावना का प्रचार प्रसार हुआ। वैज्ञानिक होने के नाते मार्क्स की विचारधारा व्यक्तिवाद एवं अन्य वादों से सर्वथा अलग हैं। यदि पूंजी और श्रम में निहित तत्वों का गंभीर अध्ययन और विश्लेषण ही कार्ल मार्क्स का वैज्ञानिक समाजवाद कहा जा सकता हैं। मार्क्स के अनुसार किसान व मजदूर के हाथ में शक्ति आनी चाहिए। जब राज्य शक्ति जनता के हाथ में होगी तो भूमि एवं पूंजी पर व्यक्तियों का स्वामित्व बना रहेगा। सब लोग काम करने लगेंगे तो स्वयं एक वर्ग विहीन समाज का निर्माण हो जायेगा जिसमें कोई किसी का शोषण नहीं कर सकेगा।
कार्ल मार्क्स ने 1864 ई. में पूंजीवाद के विरूद्ध सभी देशों के मजदूरों को “अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ” में बांधने का प्रयास किया। यह संगठन “प्रथम इन्टरनेशनल ” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विभिन्न कारणों से 1876 में प्रथम इन्टरनेशनल भंग हो गया। कुछ वर्षों बाद द्वितीय इन्टरनेशनल की स्थापना की गयी और पूंजीवादी विचारों को समाप्त करने का प्रयास किया गया। यूरोप के अधिकांश देशों में समाजवादी दलों का निर्माण एवं प्रसार होने लगा। 1906 ई. तक जर्मनी, बेल्जियम, आस्ट्रिया, फ्रांस, रूस, इंग्लैण्ड और अमेरिका में समाजवादी दलों का निर्माण हो चुका था। 1917 ई. में रूस की राज्य क्रांति और साम्यवादी शासन की स्थापना से समाजवाद को बहुत बल प्राप्त हो चुका था।
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