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पारिश्रमिक भुगतान की कार्य दर पद्धति ( Price Rate System) के गुण- दोषों सहित विवेचना कीजिए।
कार्य दर पद्धति (Piece Rate System)– इस पद्धति के अन्तर्गत श्रमिकों को उनके द्वारा किये गये कार्यों के आधार पर मजदूरी दी जाती है। मजदूरी की दर कार्यानुसार पूर्व में ही निर्धारित कर दी जाती है, चाहे श्रमिक उस कार्य को कितने ही समय में पूरा करें। उदाहरण के लिए, यदि कोई श्रमिक 8 घण्टे में 10 इकाइयों का उत्पादन करता है और उसे 5 रु. प्रति इकाई मजदूरी दी जाती है तो उसकी मजदूरी 50 रु. (10×5) होगी।
लाभ (Advantages)
इस पद्धति के लाभ निम्नलिखित हैं-
( 1 ) उत्पादन में वृद्धि (Increase in Production)— चूँकि इस पद्धति के अनुसार मजदूरी श्रमिकों द्वारा किये गये कार्य के आधार पर दी जाती है, अतः अधिक मजदूरी पाने के लिए वे अधिक परिश्रम करते हैं, फलतः उत्पादन अधिक होता है।
( 2 ) प्रति इकाई लागत में कमी (Decrease in Cost per Unit) — इस पद्धति के अन्तर्गत कार्यहीन समय (Idle Time) का पारिश्रमिक नहीं देना पड़ता है जिससे प्रति इकाई लागत कम होती है।
(3) कुशल श्रमिकों को प्रेरणा (Incentive to Skilled Workers)- जो श्रमिक अधिक कुशल होते हैं, इस पद्धति के अन्तर्गत अधिक पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं। अतः उन्हें अधिक काम करने की प्रेरणा मिलती है।
( 4 ) निरीक्षण व्यय में कमी (Low Inspection Cost) — इस पद्धति के अन्तर्गत श्रमिकों के कार्य पर निरीक्षण की आवश्यकता नहीं होती है। वस्तुतः वे स्वयं निरीक्षित होते हैं।
( 5 ) कार्य की स्वतन्त्रता (Freedom to Work)— उनके कार्यों पर निरीक्षकों का अंकुश नहीं होता है जिससे वे स्वतन्त्र होकर कार्य का निष्पादन करते हैं।
( 6 ) यन्त्रों का सदुपयोग (Proper Utilization of Machines)– इस पद्धति के अन्तर्गत यन्त्र कभी बेकार नहीं पड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, वे यन्त्रों का प्रयोग भी सावधानी से करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यदि असावधानी से काम करने पर यन्त्र में खराबी आ जायेगी तो उन्हें उस अवधि में बैठना पड़ जायेगा और उनका श्रम व्यर्थ में बर्बाद होगा।
(7) कुशल व अकुशल श्रमिकों में भेद (Difference between Skilled and Unskilled Workers)– इस पद्धति के अन्तर्गत कुशल एवं अकुशल श्रमिकों में स्वतः ही भेद हो जाता है जिसका कुशल श्रमिकों को लाभ मिलता है।
दोष (Disadvantages)
इस पद्धति के मुख्य दोष निम्नलिखित हैं-
(1) निम्न किस्म का उत्पादन (Low Quality Production)– इस पद्धति के अन्तर्गत प्रत्येक श्रमिक का उद्देश्य अधिक से अधिक काम कर अधिक पारिश्रमिक प्राप्त करने का होता है जिससे उत्पाद की किस्म घटिया होती है।
( 2 ) स्वास्थ्य में गिरावट (Down Fall of Health)— अधिक पारिश्रमिक पाने की होड़ में श्रमिक बिना आराम किये कार्य करते हैं। अतः उनके स्वास्थ्य में गिरावट आना स्वाभाविक है।
(3) पारस्परिक सहयोग का अभाव (Lack of Mutual Co-operation ) – इस पद्धति के अन्तर्गत श्रमिक दो वर्ग में बँट जाते हैं—(i) कुशल श्रमिक वर्ग एवं (ii) अकुशल श्रमिक वर्ग। कुशल श्रमिक अधिक मजदूरी प्राप्त करते हैं, जबकि अकुशल श्रमिक कम। अकुशल श्रमिकों में ईर्ष्या की भावना पनपने लगती है। अतः ऐसी परिस्थिति में उनके बीच पारस्परिक प्रेम का अभाव होना एक सामान्य बात है।
(4) सामग्री का दुरुपयोग (Misuse of Material)- प्रत्येक श्रमिक अधिक से अधिक काम करने के लिए प्रयासरत रहता है जिससे सामग्री की बर्बादी होती है।
(5) कलात्मक वस्तुओं के उत्पादन के लिए अनुपयुक्त (Not Useful for the Production of Artistic Commodities) — इस पद्धति के अन्तर्गत कलात्मक वस्तुओं का निर्माण किया जाना सम्भव नहीं है क्योंकि कलात्मक वस्तुओं के उत्पादन में जल्दीबाजी की कोई गुंजाइश नहीं होती है।
(6) मजदूरी दर के निर्धारण में कठिनाई (Difficulties in the Determination of Wage Rate)- इस पद्धति के अन्तर्गत मजदूरी दर का निर्धारण एक जटिल काम है। क्योंकि किसी एक ही काम को अलग-अलग श्रमिकों के द्वारा अलग-अलग समय में पूरा किया जाता है। उदाहरणतः, यदि एक श्रमिक किसी खास काम को 1 घण्टे में करता है तो उसी काम को कोई दूसरा श्रमिक डेढ़ घण्टे में भी पूरा कर सकता है। अतः मजदूरी दर निर्धारण में कठिनाई होती है।
प्रयोग का क्षेत्र (Area of Application)
इस पद्धति का प्रयोग निम्नलिखित क्षेत्रों में उपयुक्त समझा जाता है—
- जहाँ कलात्मक कार्य का उत्पादन न हो;
- जहाँ समय-नियन्त्रण असम्भव हो,
- यदि निर्माण कार्य में समानता हो;
- जहाँ वस्तु की इकाइयाँ लगभग समान हो।
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