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प्रेरणा के अर्थ, प्रकार व सिद्धान्त बताइये तथा शिक्षा में प्रेरणा के महत्व बताइये ।
प्रेरणा के अंग्रेजी शब्द मोटीवेशन की उत्पत्ति लेटिन भाषा के मोटम (Motum) धातु से हुई है जिसका अर्थ है मूव मोटर और मोशन जबकि मनोवैज्ञानिक अर्थ में ‘प्रेरणा’ से हमारा अभिप्राय केवल आन्तरिक उत्तेजनाओं से होता है जिन पर हमारा व्यवहार आधारित होता है इसमें बाह्य उत्तेजनाओं को कोई महत्व नहीं दिया जाता। इसकी कुछ प्रमुख परिभाषायें निम्न हैं-
(1) क्रैच एवं क्रचफील्ड, “प्रेरणा का प्रश्न, क्यों का प्रश्न हैं ?”
(2) गुड के अनुसार, “प्रेरणा, कार्य को आरम्भ करने, जारी रखने और नियमित करने की प्रक्रिया है।”
(3) ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन, “प्रेरणा एक प्रक्रिया है जिसमें सीखने वाले की आन्तरिक शक्तियाँ या आवश्यकताऐं उसके वातावरण में विभिन्न लक्ष्यों की ओर निर्देशित होती है।”
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि :-
- (1) प्रेरणा साध्य नहीं साधन है वह साध्य तक पहुँचने का मार्ग प्रस्तुत करती है।
- (2) अभिप्रेरणा अधिगम का मुख्य नहीं, सहायक अंग है।
- (3) प्रेरणा एक शक्ति है जो क्रिया का प्रारम्भ करती है तथा निर्देशन करती है।
- (4) प्रेरणा प्राणी की आन्तरिक स्थिति या अवस्था है।
- (5) प्रेरणा एक कल्पनात्मक प्रक्रिया है जो व्यवहार के निर्धारण से सम्बन्धित होती है।
- (6) प्रेरणा पर शारीरिक तथा मानसिक, बाह्य एवं आन्तरिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है।
अर्थात् व्यक्ति की आन्तरिक दशा (प्रेरक) की उपस्थिति में जब व्यक्ति कोई लक्ष्योन्मुख व्यवहार करता है तो उसे हम प्रेरणा कहते हैं।
इसे इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं-
प्रेरणा के मुख्यतः 4 पक्ष है :-
(i) आवश्यकताएँ (ii) अन्तर्वोद या चालक (iii) व्यवहार (iv) लक्ष्य
आवश्यकता:- व्यक्ति के शरीर में किसी वस्तु या पदार्थ की कमी को आवश्यकता कहते हैं।
बोरिंग व साथियों के अनुसार :- आवश्यकता प्राणी की वह आन्तरिक तनाव की अवस्था है जो प्राणी के जीवन क्षेत्र को विशिष्ट उद्दीपनों या लक्ष्यों के सापेक्ष संगठित करती है और उनकी प्राप्ति के लिए क्रिया उत्पन्न करती है।
आवश्यकताएँ : शारीरिक, सामाजिक व ल्यूडिक (जो शारीरिक व सामाजिक दोनों ही न हो) संवेगात्मक, ज्ञानात्मक आवश्यकताएँ हो सकती है।
बोरिंग, लैंगफील्ड व वील्ड के अनुसार :- चालक शरीर की आन्तरिक क्रिया या दशा है जो एक विशेष प्रकार के व्यवहार के लिए प्रेरणा प्रदान करती है।
अन्तर्नोद या चालक :- आवश्यकता के फलस्वरूप शरीर में रासायनिक एवं अन्य परिवर्तन होते है जिससे शरीर अन्तर्नोद की विशिष्ट स्थिति में पहुँच जाता है। अर्थात् व्यक्ति में आवश्यकता के कारण शरीर में उत्पन्न तनाव द्वारा उत्पन्न शक्ति या ऊर्जा (जो व्यक्ति को काम करने के लिए बाध्य करती है तथा उसके व्यवहार को दिशा प्रदान करती है।) को चालक या अन्तनोंद कहते हैं। जैसे शरीर में पानी की कमी होने के कारण व्यक्ति को प्यास लगती है। यहां प्यास चालक है जो पानी की तलाश का कार्य करती है। व पानी पीकर लक्ष्य को प्राप्त करता है
प्रेरकों के प्रकार :
शिक्षा मनोविज्ञान में प्रेरकों के अत्यन्त महत्व के कारण मनोवैज्ञानिकों ने अपने अपने ढंग से अभिप्रेरकों का वर्गीकरण किया है।
एम. के. थामसन ने प्रेरकों को दो भागों में बांटा है।
मैसलों ने जन्मजात व अर्जित प्रेरकों में विभाजन किया जन्मजात प्रेरक प्राकृतिक तथा अर्जित प्रेरक कृत्रिम के समान ही है। गैरेट ने (i) जन्मजात (ii) मनौवैज्ञानिक तथा (iii) सामाजिक प्रेरकों में विभाजन किया है।
गैरेट ने मनोवैज्ञानिक प्रेरकों में संवेगों को स्थान दिया है जैसे प्रेम, क्रोध, दुःख, आनन्द आदि ।
इसी प्रकार प्रेरणा का विभाजन भी किया गया है :
प्रेरणा के सिद्धान्त :-
प्रेरणा का क्या कारण है। इसके समाधान के लिये किये गये प्रयत्न प्रेरणा के सिद्धान्त कहलायें। इनमें मुख्य निम्न है।
(1) मैकडूगल का मूल प्रवृत्ति सिद्धान्त – इनके अनुसार कोई भी व्यवहार मूल प्रवृत्ति से प्रेरित होने पर ही किया जाता है।
(2) आनुवांशिकी पैटर्न सिद्धान्त – लौरेन्ज ने बताया कि प्रेरणा आनुवांशिक होती है।
( 3 ) मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त – यह सिद्धान्त सिगमंड फायड नेडिया का है। इनके अनुसार व्यक्ति के व्यवहार को अचेतन प्रेरक प्रभावित करता है, इन्होंने बताया कि मन में इद (Id) होता है जो आनन्द चाहता है तथा अहं (Ego) वास्तविकता के कार्य करता है व परम अहं (Super Ego) होता है जो आदर्शवादी होता है। ego, Id a Super ego में सन्तुलन करता है।
(4) मास्लो का आवश्यकता अनुक्रम सिद्धान्त – इनके अनुसार व्यक्ति की आवश्यकताएँ एक के बाद एक पदानुक्रमिक अवस्था में पूर्ण होती है सर्वप्रथम शरीर की आवश्यकता व उसके बाद सुरक्षा की व इसके बाद सामाजिक आवश्यकताएँ तथा सम्मान व अन्त में आत्मयथार्थता की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।
आत्मयथार्थता की आवश्यकता
शिक्षा में प्रेरणा का महत्व
शिक्षा के क्षेत्र में प्रेरणा का बड़ा महत्व है। यह महत्व निम्नांकित बिन्दुओं से स्पष्ट होता है-
1. अभिप्रेरणा द्वारा विद्यार्थी सीखने के लिये तत्पर होते हैं। अतः विद्यालय में शिक्षा तथा शिक्षण के कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिये छात्रों को आवश्यक मात्रा में प्रेरित किया जाये।
2. अभिप्रेरणा से छात्र-छात्राओं की रुचि सम्बन्धित कार्यों के प्रति बढ़ जाती है। अतः वे अधिगम के मार्ग में आ रही विभिन्न बाधाओं के बावजूद भी अधिगम करने में सफल हो जाते हैं।
3. यदि छात्र-छात्राओं को अभिप्रेरित कर दिया जाये तो वे पाठ्य-वस्तु पर अपना ध्यान लगाने में सफल हो जाते हैं।
4. शिक्षक पुरस्कार-दण्ड, प्रशंसा-निन्दा जैसे कृत्रिम प्रेरकों का प्रयोग करके बालकों के व्यवहारों में वांछित परिवर्तन ला सकता है।
5. क्रो तथा क़ो के शब्दों में, “प्रेरकों द्वारा विद्यार्थी अपनी सीखने की क्रियाओं में प्रोत्साहन प्राप्त करते हैं।”
6. विद्यार्थियों को सामाजिक कार्यों के प्रति प्रेरित करके उनमें सामाजिक मूल्यों का विकास किया जा सकता है।
7. विद्यार्थियों को अच्छे कार्यों के प्रति प्रेरित कर दिया जाये तो अनुशासनहीनता की समस्या का स्वतः ही समाधान हो जाता है।
8. विद्यार्थियों को स्वस्थ प्रतियोगिता के प्रति प्रेरित कर दिया जाये तो वे पढ़ाई तथा खेलकूदों में अधिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं।
9. प्रेरणा से बालकों की सुषुप्त आन्तरिक शक्तियों का सहज ही विकास किया जा सकता है।
10. अभिप्रेरणा से नैतिक व सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति छात्रों को सहज ही प्रेरित किया जा सकता है।
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