“संचार” अथवा सम्प्रेषण से आप क्या समझते हैं? संचार का सिद्धान्त तथा इस का चक्र क्या है? व्याख्या कीजिए।
संचार तथा जनसंचार – प्रो. के. एल. कुमार के शब्दों में-“मानव-समूहों के लिये यह आवश्यक है कि उनमें आपस में वैचारिक आदान-प्रदान हो। जब एक मानव-समूह दूसरे मानव-समूह को प्रभावित करना चाहता है तो वह ‘संचार’ को ही अपनाता है। संचार की प्रक्रिया ही सामाजिक एकता व सामाजिक संगठन की निरन्तरता का आधार है। संचार एक प्रक्रिया है जो कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य घटित होती है तथा इसके माध्यम से अभिवृत्तियों, इच्छाओं, एवं सूचनाओं आदि का आदान-प्रदान होता है।”
‘एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक सूचनाओं के आदान-प्रदान की कला ‘संचार’ कहलाती है। लेकिन जब एक व्यक्ति या कई व्यक्तियों द्वारा यह कार्य व्यापक स्तर पर होता है या दूसरे शब्दों में, इनके द्वारा सूचनाओं का आदान-प्रदान कई व्यक्तियों या समूहों या समाजों से एक ही समय एवं एक साथ होता है, तब यह प्रक्रिया ‘जनसंचार’ कहलाती है। जैसे छपी हुई सामग्री, रेडियो, टी.वी. अथवा अन्य दृश्य-श्रव्य सामग्री आदि।”
पॉल लीगन्स के मतानुसार – “संचार वह क्रिया है जिसके द्वारा दो या अधिक लोग, विचारों, तथ्यों, आवश्यकताओं, प्रभावों आदि का इस प्रकार विनिमय करते हैं कि संचार प्राप्त करने वाला व्यक्ति संदेश के अर्थ, उद्देश्य तथा उपयोग को भली-भाँति समझ लेता है। “
डॉ. ए. आर. शर्मा एवं डॉ. सुधा शर्मा के शब्दों में- “संचार एक प्रक्रिया है जो कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य घटित होती है तथा इसके माध्यम से अभिवृत्तियों, आदशों और सूचनाओं आदि का आदान-प्रदान होता है।”
प्रो. के. एल कुमार के शब्दों में, “संचार सभी मानवीय कार्यों और अंतःक्रियाओं का मूलाधार है। इसका अर्थ है-ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से विचार, सूचना व आदेशों का सम्प्रेषण। यह संदेश दूसरे व्यक्ति तक निर्बाधित व अपरिवर्तित रूप से संप्रेषित होना चाहिए।”
दहामा के अनुसार- “संचार वह क्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने अनुभवों, ज्ञान, भावनाओं आदि का एक-दूसरे से आदान-प्रदान करते हैं। अत: इसमें उद्देश्य, अर्थ तथा सूचनाओं का बोध ग्रहण करते हैं।”
एन्डरसन के अनुसार, “सम्प्रेषण एक गत्यात्मक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति चेतन या अचेतन रूप से दूसरों से संज्ञानात्मक ढाँचे को सांकेतिक रूप में उपकरणों अथवा साधनों द्वारा प्रभावित करता है।” इस परिभाषा में गत्यात्मक प्रक्रिया से अभिप्राय व्यक्तियों की अन्तःक्रिया की प्रकृति से है।
लूगीस और वीगल के अनुसार- “संचार प्रक्रिया में सामाजिक व्यवस्था द्वारा निर्णय, सूचना एवं निर्देश दिए जाते हैं तथा इसमें ज्ञान, भाव-विचारों, अभिवृत्तियों को निर्मित किया जाता है अथवा परिवर्तन किया जाता है।”
डॉ. ए. कुमार के अनुसार- “मानव समूहों के लिए यह आवश्यक है कि उनमें आपस में वैचारिक आदान-प्रदान हो। जब एक मानव समूह दूसरे मानव समूह को प्रभावित करना चाहता है तो वह ‘संचार’ (सम्प्रेषण) को ही अपनाता है। संचार की प्रक्रिया ही सामाजिक एकता व सामाजिक संगठन की निरन्तरता का आधार है। संचार एक प्रक्रिया है जो कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य घटित होती है तथा इसके माध्यम से अभिवृत्तियों, इच्छाओं, आदर्शों एवं सूचनाओं आदि का आदान-प्रदान होता है।’
डब्ल्यू. आर. स्प्रीगल के शब्दों में, “विद्यालय अथवा संस्था में होने वाले अधिकांश संघर्ष मूलभूत नहीं होते वरन् उद्देश्यों को गलत समझने तथा तथ्यों की अवहेलना से होते हैं। “
इसीलिये सम्प्रेषण को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि “सूचना देने की प्रक्रिया व एक से दूसरे व्यक्ति को समझना सम्प्रेषण है।”
कीथ डेविस के विचारानुसार, “सम्प्रेषण सूचनाओं एवं समझ को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाने की प्रक्रिया है।”
न्यूमैन तथा समर के मतानुसार, “सम्प्रेषण, तथ्यों, विचारों, मतों या भावनाओं का दो या अधिक व्यक्तियों को विनिमय है।”
मैक फारलेण्ड के विचार में “मनुष्यों के मध्य अर्थपूर्ण अन्तर्क्रिया की प्रक्रिया सम्प्रेषण है।”
गिब्सन व इवेन्सविच के शब्दानुसार, “समान प्रतीकों के प्रयोग द्वारा सूचनाओं व समझ का संचारण ही सम्प्रेषण है।”
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द्वि-मार्गी सम्प्रेषण की अवधारणा
सम्प्रेषण अपने विचारों को दूसरे के मस्तिष्क तक पहुँचाने की कला है जिसमें शब्दों अथवा अन्य किन्हीं प्रतीकों को माध्यम के रूप में प्रयोग किया जाता है। सम्प्रेषण तभी पूर्ण माना जाता है जब वह प्राप्तकर्ता के साथ समरूपता स्थापित कर लें अर्थात् कहने वाला व्यक्ति जो कुछ कहना चाहता है, ग्रहण करने वाला व्यक्ति वही समझकर ग्रहण कर लेता है। अतः सम्प्रेषण में सन्देश के साथ-साथ समय का भी विनिमय होता है।
सम्प्रेषण चाहे किसी भी प्रकार का हो तभी पूर्ण होता है जब सन्देश प्राप्तकर्ता ने सन्देश को समझकर ग्रहण कर लिया है। जब प्राप्तकर्त्ता सन्देश पर प्रतिक्रिया नहीं करता तब तक संदेश अपूर्ण माना जाता है। मौखिक सन्देश में सुनने वाले की प्रतिक्रिया को व्यक्त कर देता है। व्यावसायिक संगठन में सम्प्रेषण का उद्देश्य केवल सूचना देना नहीं होता है वरन् तद्नुसार कार्यवाही करने के लिए प्रेरित करना भी है। संदेश देने वाले के आचरण, व्यवहार तथा भावना पर भी सन्देश पाने वाली की प्रतिक्रिया निर्भर करती है। वस्तुतः सन्देश प्राप्तकर्ता की प्रतिक्रिया ही द्विमार्गी सम्प्रेषण अवधारणा कहलाती है। व्यावसायिक सम्प्रेषण की प्रभावशीलता सन्देश ग्रहण कर्त्ता की प्रतिक्रिया पर निर्भर करती है। प्रतिक्रिया जितनी तीव्र व प्रबल होगी सम्प्रेषण उतना ही प्रभावी माना जाता है। बिना प्रतिक्रिया के यह जाना ही नहीं जा सकता है कि सन्देश ग्रहण हुआ है।
साधारण शब्दों में सम्प्रेषण का आशय सूचना या सम्मति के लिखित या मौखिक आदान-प्रदान से है। दो या दो से अधिक व्यक्तियों में तथ्यों, विचारों, अनुमानों या संवेगों के परस्पर आदान-प्रदान करने को सम्प्रेषण कहते हैं।
- कर्मचारियों में काम का न्यायपूर्ण आवंटन, उचित वेतन दरों तथा अनुशासन आदि द्वारा वफादारी बनाये रखना।
- संस्था में प्रस्तावित विकास तथा प्रगति के सम्बन्ध में कर्मचारियों को अवगत कराते रहना तथा उनकी अभिरुचि बनाये रखना।
- सहयोगपूर्ण अनुशासन तथा निर्णयों में औचित्य बनाये रखकर निष्पक्षता बनाये रखना।
कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने की निम्नलिखित दो विधियाँ हैं-
1. वित्तीय अभिप्रेरण- वित्तीय अभिप्रेरण आर्थिक प्रलोभन पर आधारित है। इसमें कर्मचारियों से कार्य करवाने हेतु उनको प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक लाभ का प्रलोभन दिया जाता है। आज के इस भौतिक युग में यह एक अत्यन्त प्रभावपूर्ण युक्ति है। इसको मौद्रिक उत्प्रेरण भी कहते हैं। मुद्रा के माध्यम से कर्मचारी अपनी को सन्तुष्ट कर सकते हैं और समाज में प्रतिष्ठा अर्जित कर सकते हैं। वित्तीय अथवा मौद्रिक वित्तीय अथवा मौद्रिक उत्प्रेरण में निम्न को शामिल करते हैं- (i) वेतन (ii) बोनस, (iii) लाभांश-भागिता, (iv) पेन्शन, (v) अवकाशकालीन वेतन (vi) विभिन्न निःशुल्क सेवायें, (vii) प्रोविडेन्ट, फण्ड, (viii) जीवन बीमा आदि।
2. अवित्तीय अभिप्रेरणा – अवित्तीय अभिप्रेरणायें दिन-प्रतिदिन की अभिप्रेरणायें होती हैं जो कर्मचारी की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करती हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि कर्मचारी केवल मुद्रा के लिये ही कार्य नहीं करते। मुद्रा उनके लिए एक आवश्यक प्रत्यय है जिससे वे अपनी तथा अपने परिवार एवं आश्रितों की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, लेकिन वे इससे भी अधिक अपनी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करना चाहते हैं। अतः प्रबन्धकों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे कर्मचारियों को और अतिरिक्त प्रेरणायें दें। इस प्रकार की प्रेरणाओं को अवित्तीय अभिप्रेरणा की संज्ञा दे सकते हैं। अवित्तीय प्रेरणायें वे हैं, जिनका धन से कोई सम्बन्ध नहीं होता। ये प्रेरणायें मनोवैज्ञानिक होती हैं जिनसे मनुष्य की आन्तरिक भावनायें सन्तुष्ट होती हैं। डूबिन के मतानुसार, “अवित्तीय प्रेरणायें मानसिक पुरस्कार हैं या कार्य संगठन में स्थिति की वृद्धि करती हैं।” अवित्तीय प्रेरणाओं में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-i
(i) सहभागिता- कर्मचारियों के साथ विचार-विमर्श करके, निर्णय व प्रबन्ध में उनको भागीदार बनाकर तथा उनसे परामर्श और सुझाव आमंत्रित करके उनको मानसिक सन्तुष्टि प्रदान की जा सकती है। सहभागिता कर्मचारियों के अहम् की भावना को संतुष्ट करती है जो वित्तीय उत्प्रेरणा द्वारा सम्भव नहीं होता।
(ii) कुशल नेतृत्व- कर्मचारियों का अभिप्रेरण कुशल नेतृत्व पर निर्भर करता है यदि कर्मचारियों से सम्बन्धित फोरमैन, अधीक्षक तथा प्रबन्ध अधिकारी उनको कुशल तथा सबल नेतृत्व प्रदान करते हैं तो इससे कर्मचारी अभिप्रेरित होते हैं।
(iii) लक्ष्य- प्रत्येक प्रयास किसी लक्ष्य से उत्प्रेरित होकर किया जाता है। अतः कर्मचारियों को लक्ष्य से भली-भाँति परिचित कराना चाहिए तथा उनको यह अनुभव भी करा देना चाहिए कि लक्ष्य प्राप्त होने से ही उनको लाभ होगा। ऐसी स्थिति में वे लक्ष्य से प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।
पारस्परिक आदान-प्रदान को सम्प्रेषण कहते हैं। इसमें दो मस्तिष्कों का होना आवश्यक होता है। इसमें यदि दो मस्तिष्क नहीं होंगे तो सम्प्रेषण नहीं हो सकेगा।
यदि पहले व्यक्ति का विचार दूसरा व्यक्ति अच्छी तरह से नहीं समझ पाता है अथवा उसके अनुसार कार्य नहीं कर सकता है तो फिर सम्प्रेषण का कोई महत्व नहीं रह जाता है। उदाहरण के लिये यदि छात्रों को कॉलेज का घण्टा धीमी आवाज से बजने के कारण सुनाई नहीं दे तो फिर उसका होना अथवा न होना महत्वहीन ही है। आधुनिक वैज्ञानिक युग में विकास के तार, टेलीफोन और रेडियो जैसे साधन उपलब्ध कराकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक विचारों का सम्प्रेषण अधिक सुगम बना दिया है। सम्प्रेषण के हन साधनों के विस्तार के कारण अब विचारों का आदान-प्रदान करना काफी सुगम हो गया है।
सम्प्रेषण को सम्प्रेषण, संचार, सम्वादवाहन आदि अनेक नामों से भी जाना जाता है।
1. रेडफील्ड के अनुसार, “संवादवाहन से तात्पर्य उस व्यापक क्षेत्र से है जिसके माध्यम से मानव तथ्यों एवं सम्मतियों का आदान-प्रदान करते हैं। टेलीफोन, तार, रेडियो या इसी प्रकार के तकनीकी साधन संवादवाहन नहीं हैं।”
2. फ्रेड जी. मायर के अनुसार, “सम्प्रेषण शब्दों, पत्रों अथवा सूचना, विचारों, सम्मतियों का आदान-प्रदान करने का समागमन है।”
सम्प्रेषण का महत्त्व
परिभाषाओं के आधार पर संचार का महत्त्व निम्नांकित बिन्दुओं में व्यक्त किया जा सकता है-
- आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति का ज्ञान, बिना संचार के माध्यमों के नहीं हो सकता है।
- बिना संचार के सामाजिक सहयोग सम्भव नहीं है।
- बिना संचार के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
- संचार के बिना आधुनिक सभ्यता का अस्तित्व नहीं रह सकता है।
- संचार के माध्यमों की सहायता से विश्व के देश दूसरे को प्रगति में सहायक होते हैं।
संचार के तत्व –
सम्प्रेषण के प्रतिमान या चक्र को समझने में संचार के निम्नांकित तत्व सहायक होते हैं-
1. संचार-संदर्भ-
- (अ) मनोवैज्ञानिक (औपचारिक या अनौपचारिक)।
- (ब) भौतिक (कक्ष, गैलरी या उपकक्ष) ।
- (स) समयावधि (दिन का समय व समय की अवधि) ।
- (द) सामाजिक (लोगों के परस्पर प्रतिष्ठा धारित सम्बन्ध ) ।
2. शोर या बाधा – यह वह बाधा है जो संदेश विरूपित कर देती है। यह बाधा या शोर संदेश के प्रेषक व ग्राहक से परे भी हो सकती है।
3. संकेतन – यह वह प्रक्रिया है जिसमें सम्प्रेषक संदेश के विचार या भावना को व्यक्त करने हेतु संकेतों को प्रयुक्त करता है।
4. विसंकेतन/अर्थापन- यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा संदेश-ग्राहक स्रोत द्वारा संप्रेषित संकेतों का अर्थ निकाल कर संदेश ग्रहण करता है।
5. संदेश – स्रोत द्वारा सम्प्रेषित शाब्दिक या अशाब्दिक संकेत जिनमें शब्द, आकृतियाँ, भाव-भंगिमाएँ, अंग-संचालन आदि सम्मिलित हैं।
6. पृष्ठ-प्रेषण – यह संदेश के ग्राहक द्वारा संदेश-प्रेषक को भेजा गया प्रत्युत्तर या प्रतिक्रिया है।
7. माध्यम या मार्ग- वह मार्ग जिसके द्वारा संदेश प्रेषित किया जाता है। ये मार्ग ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं। जैसे- नेत्र, कान, स्पर्श, स्वाद व गंध की इन्द्रियाँ ।
8. ग्रहणकर्ता – वह व्यक्ति जो संदेश का अर्थ लगाएगा।
9. संकेत-चिन्ह – यह चिन्ह किसी वस्तु का संकेतक होता है। यह शाब्दिक या अशाब्दिक दोनों प्रकार का होता है।
10. स्त्रोत – वह व्यक्ति या वस्तु जो शाब्दिक या अशाब्दिक संकेत किसी ग्राहक को प्रेषित करता है। जब यह स्रोत व्यक्ति है तो वह सम्प्रेषक भी कहलाएगा।
सम्प्रेषण के सिद्धान्त –
सम्प्रेषण की प्रक्रिया प्रत्येक उपक्रम में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। अत: यह निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर सम्पन्न की जानी चाहिये। एक प्रभावी सम्प्रेषण प्रक्रिया में निम्नलिखित सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिये-
1. ध्यानाकर्षण का सिद्धान्त – सम्प्रेषण का मुख्य ध्येय दूसरे पक्ष को अपने विचार समझा देना है, केवल व्यक्त कर देना नहीं। यह तभी सम्भव होगा जबकि सन्देश प्राप्तकर्ता उसमें रूचि लें। इस सम्बन्ध में यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक व्यक्ति का भाव-बोध का स्तर अलग-अलग होता है और वह अपनी भावनाओं के आधार पर ही सोचता है।
2. स्पष्टता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण करते समय सन्देश बिल्कुल स्पष्ट भाषा में दिया जाना चाहिये, जिससे कि संदेश प्राप्त करने वाला उसको ठीक उसी अर्थ में समझ सकें जिस भाव से कि सन्देश देने वाले ने उसे प्रेषित किया है। उसमें किसी अन्य अर्थ के निकाले जाने की गुंजाइश न हो। जहाँ कहीं आवश्यक हो उदाहरण देकर बात को स्पष्ट किया जाना चाहिये।
3. पर्याप्तता का सिद्धान्त – इसका आशय है कि सूचनायें पर्याप्त होनी चाहियें, अपूर्ण नहीं, अपूर्ण सूचनाओं का प्रभाव तो सूचनायें न देने से भी अधिक खतरनाक होता है। इससे कार्य में निरन्तरता समाप्त हो जाती है और कार्य रुक जाता है तथा भ्रम पैदा हो जाता है।
4. सतर्कता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण संगठन की नीतियों, उद्देश्यों व कार्यक्रमों के विपरीत नहीं होना चाहिये। विभिन्न सूचनाएँ एक दूसरे की विरोधी नहीं होनी चाहिये। परस्पर विरोधी सूचनायें भ्रम उत्पन्न करती हैं और उससे कार्य बिगड़ सकता है।
5. शिष्टता एवं शालीनता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण में सूचनायें शिष्ट एवं शालीन होनी चाहिये। उन्हें सम्प्रेषण करते समय शिष्ट भाषा का प्रयोग करना चाहिये जिससे सुनने वाला व्यक्ति सूचना को ध्यान से सुने तथा उससे प्रभावित हो वे। आवश्यकता पड़ने पर कठोर भाषा का प्रयोग भी करना चाहिये जिससे व्यक्ति लापरवाही न करे।
6. संगतता का सिद्धान्त- सम्प्रेषण करते समय इस सिद्धान्त का पालन करना चाहिये कि सूचनायें संगत हों अर्थात् वे परस्पर विरोधी न हों। सूचनायें उपक्रम की नीतियों, योजनाओं तथा उद्देश्यों के अनुरूप ही होनी चाहिये।
7. अनौपचारिकता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण की प्रभावी प्रक्रिया के लिये यह आवश्यक है कि संगठन में अनौपचारिक सम्बन्धों का भी विकास किया जाये। कभी कभी संगठन में अनौपचारिक सम्प्रेषण की प्रक्रिया भी अधिक प्रभावी होती हैं।
8. समयानुकूलता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण की प्रक्रिया में समयानुकूलता होनी चाहिये अर्थात् कोई भी सूचना सम्प्रेषण उचित समय पर किया जाना चाहिये। यदि सम्प्रेषण का कार्य समय बीतने के बाद किया जाता है तो सूचनायें व्यर्थ होंगी।
9. सम्प्रेषण पथ का सिद्धान्त – सम्प्रेषण श्रृंखला को भली प्रकार निश्चित किया जाना चाहिये। इसका श्रमिकों के सामूहिक मनोबल तथा सम्प्रेषण की प्रभावशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सम्प्रेषण पथ का आशय उस पथ से है जिससे होकर सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है।
10. निरन्तर प्रक्रिया का सिद्धान्त – सम्प्रेषण की प्रक्रिया भी अधिक प्रभावी होती है।
11. समन्वय का सिद्धान्त – प्रभावी सम्प्रेषण की प्रक्रिया के लिये यह आवश्यक है कि प्रशासन के विभिन्न अंगों में समन्वय हो। इसके साथ ही सहयोग प्राप्त करना चाहिये जिससे कि वे सूचना के अनुसार आसानी से कार्य कर सके।
उपरोक्त सिद्धान्तों के आधार पर ही सम्प्रेषण प्रभावशाली हो सकता है तथा समस्यायें न्यूनतम हो सकती हैं।
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