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सुधारात्मक (उपचारात्मक) शिक्षण का अर्थ, परिभाषाएँ एवं आवश्यकता

सुधारात्मक (उपचारात्मक) शिक्षण का अर्थ, परिभाषाएँ एवं आवश्यकता
सुधारात्मक (उपचारात्मक) शिक्षण का अर्थ, परिभाषाएँ एवं आवश्यकता

सुधारात्मक (उपचारात्मक) शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

सुधारात्मक (उपचारात्मक) शिक्षण का अर्थ- उपचारात्मक शिक्षा द्वारा छात्रों की दुर्बलताओं अथवा कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास किया जाता है।

क्रो व क्रो के अनुसार, “निदानात्मक परीक्षणों द्वारा छात्र की कमजोरियों की जानकारी की जाती है तथा उन्हें दूर करने के लिये उपचारात्मक शिक्षा का प्रयोग किया जाता है। “

उपचारात्मक शिक्षा में शिक्षक इस बात का प्रयास करता है कि छात्रों द्वारा जो त्रुटियाँ भूतकाल में हुई हैं, उनकी पुनरावृत्ति न हो। इस शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार की विधि ज्ञात करने का प्रयास करना है, जो छात्रों को अपनी पिछली भूलों को दूर करने और भावी त्रुटियों से बचाने में सहायता दे सके।

उपचारात्मक शिक्षण की परिभाषाएँ- उपचारात्मक शिक्षण की विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई निम्नलिखित परिभाषाएँ हैं-

ब्लेयर तथा जोन्स के अनुसार, “उपचारात्मक शिक्षण मूलतः एक उत्तम शिक्षण ” है, जो छात्र को अपने मानसिक स्तर के अनुरूप प्रगति करने का अवसर देता है तथा प्रेरणा की आन्तरिक विधियों के द्वारा उसे क्षमता के बढ़े हुए मानदण्ड तक पहुँचाता है। यह कठिनाइयों के सतर्कतापूर्ण निदान पर आधारित तथा छात्रों की आवश्यकताओं एवं रुचियों के अनुकूल होती है।”

क्लार्क और स्टार के अनुसार, “उपचारात्मक शिक्षा उसे कहते हैं जो बालक बालिकाओं के लिये विशेष रूप से होती है, जिन्होंने निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नहीं किये है।….. उपचारात्मक शिक्षा केवल अच्छा शिक्षण है जिसे बालक तथा उसकी आवश्यकताओं पर केन्द्रित किया जाता है। प्रायः यह सामान्य शिक्षण की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती है, क्योंकि यह अधिक केन्द्रित होता है और इससे अच्छा मार्गदर्शन होता है।”

सुधारात्मक शिक्षण की आवश्यकता

सुधारात्मक शिक्षण की आवश्यकता- पूर्व में शिक्षा का स्वरूप पुस्तक प्रधान था तथा शिक्षण प्रक्रिया में बालक की अपेक्षा पाठ्यक्रम या पुस्तकीय ज्ञान को विशेष महत्त्व दिया जाता था।

बालक विषय को ठीक प्रकार से समझ रहा है या नहीं अथवा उसे अध्ययन करते समय किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है आदि के विषय में कोई भी जानने का प्रयास नहीं करता था। बालक द्वारा की जाने वाली भूलों के क्या कारण हैं इसे अध्यापक जानना आवश्यक नहीं मानते थे।

परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान के प्रवेश ने स्थिति को बदल दिया। आज शिक्षण-प्रक्रिया में अध्यापक और पाठ्यक्रम से अधिक महत्त्व बालक को दिया जाता है। यदि बीसवीं शताब्दी को बालक की शताब्दी कहा जाये तो अनुचित न होगा। अब शिक्षा का समस्त आयोजन बालक की विभिन्न आवश्यकताओं और रुचियों को ध्यान में रखकर किया जाता है।

आज शारीरिक और मानसिक दोषों वाले बालकों की शिक्षा तथा उनकी कठिनाइयों की ओर भी ध्यान दिया जाता है। अतः बालक सामान्य बालकों के समान ज्ञानार्जन सरलतापूर्वक नहीं कर पाते और कक्षा में अपने साथियों से पिछड़ जाते हैं। उपचारात्मक शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार के बालकों के लिये ही की जाती है।

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Anjali Yadav

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