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अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सिद्धान्त में सुधार (Improvement)
रिकार्डो द्वारा प्रतिपादित तुलनात्मक लागत सिद्धान्त में समय-समय पर विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने संशोधन किए हैं जिनमें जे० एस० मिल, कैरनेस तथा बैस्टेबिल के नाम प्रमुख है। इस सिद्धान्त में मुख्यतः निम्न सुधार किए गए हैं-
(1) मुद्रा के रूप में उत्पादन लागत का माप– रिकार्डों ने उत्पादन लागत को श्रम-लागत के आधार पर मापा था। किन्तु व्यवहार में ऐसा करना सम्भव नहीं होता, क्योंकि एक तो वस्तु के उत्पादन में श्रम के अतिरिक्त भूमि, पूंजी, संगठन तथा उद्यम का भी प्रयोग होता है। दूसरे, श्रम की सभी इकाइयाँ समान नहीं होती। अतः उत्पादन लागत श्रम के आधार पर नहीं बल्कि मुद्रा के आधार पर मापी जानी चाहिए।
(2) परिवहन लागत का प्रभाव- आधुनिक जर्वशास्त्रियों के विचार में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर परिवहन व्यय का भी प्रभाव पड़ता है। हैवरलर (Haberler) के शब्दों में, “किसी वस्तु का आयात व निर्यात उस समय तक नहीं किया जायेगा जब तक दो देशों में उसकी उत्पादन लागत का अन्तर उसके एक देश से दूसरे देश के परिवहन-व्यय से अधिक न हो। किसी देश की नियांत क्षमता उसकी तुलनात्मक लागत पर ही नहीं वरन् परिवहन लागत पर भी निर्भर करती है।”
(3) अनेक देश तथा अनेक वस्तुएँ- प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने तुलनात्मक लागत-सिद्धान्त की व्याख्या केवल दो देशों तथा दो वस्तुओं के आधार पर की थी। सिद्धान्त की इस कमी को दूर करते हुए बैस्टेबिल ने अपनी व्याख्या में अनेक देशों तथा अनेक वस्तुओं को शामिल किया है।
(4) उत्पादन लागत पर मजदूरी का प्रभाव-इस सिद्धान्त के अनुसार जिस देश में मजदूरी कम है। भी कम होगी ऐसा देश उन देशों को वस्तुओं का निर्यात करके लाभ उठायेगा जहाँ मजदूरी अधिक है। किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्री उत्पादन लागत इस मत के विरोधी हैं। उनके विचार में उच्च मजदूरी से श्रमिकों की कुशलता बढ़ जाती है। इसलिए कहा जाता है, “उच्च मजदूरी निम्न मजदूरी है तथा निम्न मजदूरी उच्च मजदूरी है।” अतः उच्च मजदूरी निर्यात व्यापार में बाधक नहीं होती।
(5) घटते प्रतिफल नियम तथा बढ़ते प्रतिफल नियम का लागू होना- रिकार्डो ने अपने सिद्धान्त को स्थिर प्रतिफल या स्थिर लागत नियम’ पर आधारित किया था किन्तु वास्तविक जीवन में उत्पादन को बढ़ाने पर घटते प्रतिफल का नियम या बढ़ते प्रतिफल का नियम लागू होता है। वैस्टेबिल या टॉजिंग ने सिद्धान्त की व्याख्या में इस बात को ध्यान में रखा है।
(6) माँग की मूल्य सापेक्षता का प्रभाव- रिकाडों ने यह भी स्पष्ट नहीं किया कि दो देशों के मध्य दो वस्तुओं की विनिमय-दर कैसे निर्धारित की जाती है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के विचार में यह (विनिमय दर) एक वस्तु की दूसरे देश में माँग की मूल्य सापेक्षता पर निर्भर करती है।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आधुनिक सिद्धान्त (Modern Theory of International Trade)
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन स्वीडन के अर्थशास्त्री बर्टिल ओहलिन (Bertil Ohlin) ने किया है। इसलिए इसे ओहलिन का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सिद्धान्त’ भी कहते हैं। ओहलिन पर वालरस (Walras), परेटो (Pareto) तथा कैंसल (Cassel) के मूल्य के सामान्य सन्तुलन सिद्धान्त (General Equilibrium Theory of Value) का काफी प्रभाव था ओहलिन ने ‘मूल्य के सामान्य सन्तुलन सिद्धान्त का प्रयोग करके ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आधुनिक सिद्धान्त प्रस्तुत किया है।
आन्तरिक व्यापार तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में केवल मात्रा का अन्तर- प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के विचार में, आन्तरिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में कुछ मौलिक अन्तर हैं जिस कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए एक पृथक सिद्धान्त की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु ओहलिन के अनुसार आन्तरिक व्यापार तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। दोनों में केवल मात्रा (degree) का अन्तर है न कि जाति या प्रकार (kind) का उनके विचार में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तो आन्तरिक व्यापार का केवल एक विशिष्ट रूप है। अतः जो सिद्धान्त आन्तरिक व्यापार की व्याख्या करता है वह जन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की भी व्याख्या करता है। इस प्रकार ओहलिन ने प्रतिष्ठित सिद्धान्त की आलोचना की तथा मूल्य के सामान्य सन्तुलन सिद्धान्त के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का विश्लेषण किया। ओहलिन (Ohlin) के विचारानुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तथा आन्तरिक व्यापार सिद्धान्त में कोई महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है बल्कि यह अन्तर एक बाजार के लिए कीमत सिद्धान्त तथा अनेक बाजारों में लागू होने वाले कीमत सिद्धान्तों में है।
अन्तर्राष्ट्रीय मूल्य का निर्धारण- ओहलिन के विचार में अन्तर्राष्ट्रीय मूल्य का निर्धारण उसी प्रकार किया जा सकता है जिस प्रकार आन्तरिक व्यापार में वस्तुओं की कीमतें निर्धारित की जाती है। आन्तरिक व्यापार के अन्तर्गत कीमतों का निर्धारण माँग और पूर्ति के सामान्य सन्तुलन के आधार पर किया जाता है। इस सिद्धान्त को बिना किसी विशेष परिवर्तन के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर भी लागू किया जा सकता है।
ओहलिन ने बताया कि व्यक्तिगत श्रम विभाजन तथा क्षेत्रीय विभाजन में कोई अन्तर नहीं होता। जिस प्रकार व्यक्तियों की योग्यताओं तथा रुचियों में अन्तर के कारण उनके द्वारा भित्र-भित्र वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है, उसी प्रकार विभिन्न क्षेत्रों या देशों में उत्पादन की मात्रा तथा किस्म में अन्तर के कारण अन्तक्षेत्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार होता है।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का कारण : राष्ट्रों की कीमतों में सापेक्ष अन्तर- ओहलिन के विचार में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार इसलिए होता है क्योंकि दो क्षेत्रों या दो देशों की वस्तुओं की कीमतों में सापेक्ष अन्तर (relative difference) होता है। वस्तुओं की कीमतों में सापेक्ष जन्तर उत्पादन के उपादानों की सापेक्ष दुर्लभता (relative scarcity) के कारण होता है। इससे विभिन्न राष्ट्र भिन्न-भिन्न वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टीकरण प्राप्त कर लेते हैं। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए जोहलिन ने इंग्लैण्ड तथा आस्ट्रेलिया का उदाहरण दिया है। आस्ट्रेलिया में भूमि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है किन्तु वहाँ श्रम तथा पूंजी की कमी है। परिणामतः यहाँ भूमि सस्ती है किन्तु श्रम तथा पूंजी महँगी है। अतः आस्ट्रेलिया में ऐसी वस्तुओं का उत्पादन कम लागत पर किया जा सकता है जिसके लिए भूमि की अधिक मात्रा में तथा बम व पूँजी की कम मात्रा में आवश्यकता पड़ती है। इसलिए आस्ट्रेलिया में गेहूँ, ऊन आदि का उत्पादन सस्ता होगा क्योंकि इनके उत्पादन में भूमि की अधिक आवश्यकता पड़ती है। इसके विपरीत, इंग्लैण्ड में पूजी तो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है किन्तु भूमि की वहीं कमी है। अतःण्ड में उन वस्तुओं को कम लागत पर बनाया जा सकता है जिनमें भूमि की कम तथा पूंजी की अधिक आवश्यकता पड़ती है। अतः इंग्लैण्ड में औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन सस्ता होगा। परिणामतः आस्ट्रेलिया गेहूँ का निर्यात करेगा और औद्योगिक वस्तुओं का आयात करेगा। इसके विपरीत, इंग्लैंण्ड गेहूँ का आयात करेगा तथा औद्योगिक वस्तुओं का निर्यात करेगा अतः दो देशों में वस्तुओं की कीमतों में सापेक्ष अन्तर, जो उत्पादन के उपादानों के सम्मरण (supply) में सापेक्ष अन्तर के कारण होता है, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को जन्म देता है।
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