कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त (Theories of International Trade)

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त (Theories of International Trade)
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त (Theories of International Trade)

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त (Theories of International Trade)

यदि एक देश दूसरे देश की अपेक्षा प्रत्येक वस्तु अधिक सस्ती बना सकता है तब उसके लिए यह सबसे अधिक लाभदायक होगा कि वह केवल उसी वस्तु को उत्पन्न करने में लगा रहे जिसे उत्पन्न करने में दूसरे देश की अपेक्षा, उसे सबसे अधिक तुलनात्मक लाभ प्राप्त हो दूसरी ओर, घटिया देश के हित में यही होगा कि वह भी केवल उसी वस्तु को बनाए जिसमें उसे तुलनात्मक हानि सबसे कम हो।

-वैस्टेबिल

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के दो प्रमुख सिद्धान्त हैं–(1) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रतिष्ठित सिद्धान्त (Classical Theory of International Trade) यह सिद्धान्त ‘तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। (2) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आधुनिक सिद्धान्त (Modern Theory of International Trade)। यह ओहलिन का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सिद्धान्त’ के नाम से प्रसिद्ध है।

(1) तुलनात्मक लागत का सिद्धान्त (Theory of Comparative Costs) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रतिष्ठित सिद्धान्त अथवा तुलनात्मक लागत सिद्धान्त डेविड रिकार्डो द्वारा प्रतिपादित किया गया या। बाद में इसे जॉन स्टुअर्ट मिल, करेनेस तथा वैस्टेबिल ने विकसित किया। इसकी आधुनिक व्याख्या करने वालों में टॉजिंग (Taussig) तथा हैबरलर (Haberler) के नाम प्रमुख हैं।

व्याख्या (Explanation)- तुलनात्मक लागत सिद्धान्त इस बात पर आधारित है कि एक जैसी वस्तुओं की उत्पादन लागत विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न होती है। लागतों में अन्तर का कारण उत्पादन में विशिष्टीकरण तथा भौगोलिक श्रम-विभाजन होते हैं। विभिन्न राष्ट्रों की जलवायु, भीगोलिक स्थिति, खनिज सम्पदा तथा श्रम उत्पादकता में भिन्नता के कारण एक देश किसी वस्तु-विशेष का जबकि कोई अन्य देश किसी अन्य वस्तु का कम लागत पर उत्पादन कर सकता है। सामान्यतः प्रत्येक देश उसी वस्तु के उत्पादन में विशिष्टीकरण प्राप्त कर लेता है जिसके उत्पादन में उसे अपेक्षाकृत अधिक सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। अधिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से भी सभी देश उन वस्तुओं का निर्यात करते हैं जिनकी लागत अपेक्षाकृत कम होती है तथा उन वस्तुओं का आयात करते हैं जिनकी लागत अन्य देशों की अपेक्षा अधिक होती है। इस प्रकार विभिन्न राष्ट्रों की उत्पादन क्षमता तथा तुलनात्मक लागतों में अन्तर के कारण विशिष्टीकरण तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का जन्म होता है।

परिभाषाएँ (Definitions) (1) एडवर्ड्स (Edwards) के शब्दों में, “तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न देश उन वस्तुओं के उत्पादन पर ध्यान केन्द्रित करते हैं और उनका निर्यात करते हैं जिनमें उनको तुलनात्मक वास्तविक लाभ अधिकतम होते हैं तथा हानि न्यूनतम होती है तथा इनके स्थान पर उन वस्तुओं का आयात करते हैं जिनमें इनके लाभ न्यूनतम तथा हानि अधिकतम होती है।

(2) शौन (Shone) के अनुसार, “कोई देश उस वस्तु का निर्यात करेगा जिसमें उसे तुलनात्मक लाभ है तथा उस वस्तु का आयात करेगा जिसमें उसे तुलनात्मक हानि है1

(3) सैम्युअलसन (Samuelson) के मतानुसार, “प्रत्येक राष्ट्र उस वस्तु में विशिष्टता प्राप्त करेगा जिसमें उसे तुलनात्मक लाभ है और ऐसी वस्तु के आधिक्य के निर्यात से वह विदेशों से आयात करता है।

सिद्धान्त की आलोचना (Criticism)

ओहलिन, ग्राहम आदि आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने इस सिद्धान्त में निम्नलिखित दोष निकाले हैं-

(1) श्रम लागत की अव्यावहारिक मान्यता- यह सिद्धान्त मूल्य के श्रम सिद्धान्त (Labour Theory of Value) पर आधारित है जिसके अनुसार किसी वस्तु का मूल्य उसमें लगे श्रम-समय के आधार पर मापा जाता है। किन्तु वास्तव में वस्तु का मूल्य श्रम-समय पर नहीं बल्कि दी गई मजदूरी पर निर्भर करता है। आलोचकों के विचार में सिद्धान्त की व्याख्या श्रम लागत के आधार पर नहीं बल्कि कीमतों के आधार पर करनी चाहिए। कीमतों के आधार पर यह तय किया जाता है कि कौन-सा देश किन वस्तुओं का उत्पादन करेगा।

(2) स्विर लागतों की अवास्तविक मान्यता- यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि उत्पादन लागत स्थिर रहती है। किन्तु व्यवहार समान प्रतिफल का नियम (समान लागत नियम) लागू नहीं होता बल्कि प्रतिफल का नियम या घटने प्रतिफल का नियम लागू होता है।

(3) परिवहन लागतों के प्रभाव की उपेक्षा- तुलनात्मक लागत सिद्धान्त में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर परिवहन लागतों के पड़ने वाले प्रभावों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। कुछ वस्तुओं की परिवहन लागत उनकी उत्पादन लागत से अधिक होती है। प्रायः किसी वस्तु का आयात व नियंत तब तक नहीं किया जाता जब तक कि दो देशों की उत्पादन लागत में अन्तर वस्तु की परिवहन-नागत से अधिक नहीं होता। फिर कुछ ऐसे भी उदाहरण है जबकि किसी देश का एक क्षेत्र तो किसी वस्तु का आयात करता है जबकि दूसरा क्षेत्र उसका न केवल उत्पादन बल्कि निर्यात भी करता है।

(4) पूर्ण गतिशीलता की अवास्तविक मान्यता- रिकार्डो ने यह मान लिया था कि किसी देश के अन्दर तो उत्पत्ति के साधन पूर्णतया गतिशील होते हैं किन्तु दो देशों के मध्य पूर्णतया गतिहीन (immobile) होते हैं। ओहलिन ने इस मान्यता को अवास्तविक बताया है। व्यवहार में एक ही देश में उत्पादन के साधन विभिन्न क्षेत्रों तथा व्यवसायों में अनेक कारणों से पूर्णतया गतिशीत नहीं होते।

(5) विदेशी व्यापार पर नियन्त्रण-यह सिद्धान्त स्वतन्त्र व्यापार तथा पूर्ण प्रतियोगिता की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है। किन्तु आजकल विभिन्न राष्ट्र आत्मनिर्भरता प्राप्त करने तथा अपने विकसित उद्योगों को संरक्षण (protection) प्रदान करने हेतु अपने आवाती पर प्रतिबन्ध लगा देते हैं।

(6) पूर्ण विशिष्टीकरण सम्भव नहीं- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से सम्बद्ध दो असमान देशों (आकार तथा आर्थिक महत्त्व की दृष्टि से) के बीच पूर्ण विशिष्टीकरण सम्भव नहीं होता ग्राहम (Grahm) के विचार में यदि दो देशों में एक देश छोटा तथा दूसरा बड़ा है तो सम्भव है कि छोटा देश किसी एक वस्तु के उत्पादन में विशिष्टीकरण प्राप्त कर ले किन्तु बड़े देश के लिए ऐसा करना सम्भव न हो। यह भी सम्भव है कि छोटे देश के उत्पादन से बड़े देश की आवश्यकता ही पूर्ण न होती हो। फिर यह भी सम्भव है कि बड़ा देश जिस वस्तु के उत्पादन में पूर्ण विशिष्टीकरण प्राप्त कर चुका है उसका समस्त अतिरिक्त उत्पादन छोटे देश में न बेचा जा सके।

(7) विनिमय दर तथा व्यापार शर्तों का निर्धारण- यह सिद्धान्त यह स्पष्ट नहीं करता कि व्यापार करने वाले देशों के मध्य व्यापार की शर्तें तथा विनिमय दर किसे निर्धारित होती हैं।

(8) अल्प-विकसित राष्ट्रों पर लागू न होना- यह सिद्धान्त भारत जैसे अल्प-विकसित देशी पर लागू नहीं होता। यह सिद्धान्त स्वतन्त्र व्यापार की नीति का समर्थक है, जबकि अल्प-विकसित देशों में स्वतन्त्र व्यापार के स्थान पर संरक्षण की नीति अपनाई जाती है।

(9) मांग की मूल्य सापेक्षता की उपेक्षा- यह सिद्धान्त माँग की मूल्य सापेक्षता (elasticity of demand) के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर पड़ने वाले प्रभाव की अवहेलना करता है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार व्यापार की शर्तें उस देश के अनुकूल होंगी जिस देश की विदेशी वस्तुओं के लिए माँग अधिक मूल्य-सापेक्ष (more elastic) होगी तथा उस देश के प्रतिकूल होंगी। जिसकी विदेशी वस्तुओं के लिए माँग कम मूल्य-सापेक्ष (loss elastic) होगी।

(10) रक्षात्मक सामग्री- आजकल अनेक देश विदेशी-निर्भरता को समाप्त करने हेतु युद्ध-सामग्री का स्वयं ही उत्पादन करते हैं, हालांकि उसका कम मूल्य पर विदेशों से आयात किया जा सकता है।

(11) अनावश्यक तथा प्रमात्मक सिद्धान्त- ओहलिन (Ohlin) ने इस सिद्धान्त को अनावश्यक, अवास्तविक तथा जटिल माना है। यह सिद्धान्त अनेक अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित है। फिर यह सिद्धान्त केवल दो देशों के बीच दो वस्तुओं के व्यापार का ही अध्ययन करता है जबकि आयात निर्यात अनेक वस्तुओं का किया जाता है।

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Anjali Yadav

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