अन्तिम रहतिये का मूल्यांकन किस मूल्य पर किया जाता है? अन्तिम खाते हेतु सम्पत्तियों के वर्गीकरण को संक्षेप में स्पष्ट कीजिये।
अन्तिम रहतिये का मूल्यांकन- व्यापारिक काल समाप्त होने पर विभिन्न प्रकार के माल को गिनकर नापकर अथवा तौलकर पृथक्-पृथक् सूचियों पर चढ़ाने की क्रिया को रहतिया की गणना करना कहा जाता है। अन्तिम रहतिये का मूल्यांकन लागत अथवा बाजार मूल्य दोनों में से जो कम हो के आधार पर किया जा सकता है। इस प्रकार रहतिया का मूल्यांकन निम्नलिखित में से किसी एक विधि द्वारा किया जाना चाहिए-
(i) लागत मूल्य, (ii) बाजार मूल्य, (iii) दोनों में से जो कम हो ।
लागत मूल्य से रहतिये का मूल्यांकन करते समय रहतिया की वास्तविक क्रय मूल्य में सभी प्रत्यक्ष व्यय जोड़ दिए जाते हैं। इस योग में बिके हुए माल की लागत को घटाकर अन्तिम रहतिया निकाल लिया जाता है। इसके लिए निम्न सूत्र का प्रयोग किया जा सकता है-
अन्तिम रहतिया का मूल्य प्रारम्भिक रहतिया+ शुद्ध क्रय + प्रत्यक्ष व्यय – बिके माल की लागत। कुछ व्यापारी प्रथम निर्गत विधि का भी प्रयोग करते हैं। इस विधि में यह मान लिया जाता है कि जिस माल का क्रय पहले किया गया है उसका उपयोग सबसे पहले कर लिया गया होगा तथा जो माल अंत में क्रय किया गया होगा वही रहतिये के रूप में बचा होगा। अतः जो रहतिया बचा होता है उसका मूल्यांकन अंतिम क्रय मूल्य के आधार पर किया जाता है।
इसी प्रकार कुछ व्यापारी औसत मूल्य के आधार पर अंतिम रहतिये का मूल्यांकन करते हैं इस विधि में अंत में बचे हुए विभिन्न प्रकार के माल की लागत का औसत निकालकर इसी मूल्य के आधार पर रहतिये का मूल्यांकन किया जाता है। इन प्रमुख विधियों के अतिरिक्त अन्य कई विधियों भी व्यापारियों द्वारा अपनायी जाती है।
सम्पत्तियों का वर्गीकरण (Classification of Assets) –
सम्पत्तियों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
1. स्थायी सम्पत्तियाँ- स्थायी सम्पत्तियों से अभिप्राय ऐसी सम्पत्तियों से है जो स्थायी प्रकृति (Fixed nature) की होती हैं और जिनका जीवन दीर्घकालीन होता है। ऐसी सम्पत्तियों को शीघ्र ही नगद में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। ऐसी सम्पत्तियां व्यावसायिक संस्था की आय बढ़ाती हैं। इन्हें पुनः बिक्री (resale) के लिए नहीं खरीदा जाता वरन् स्थायी प्रयोग के लिए खरीदा जाता है। अतः ऐसी सम्पत्तियों को पूँजीगत सम्पत्तियाँ (Capital Assets), दीर्घकालीन सम्पत्तियाँ (Long term Assets), ब्लाक सम्पत्तियाँ (Block Assets) भी कहा जाता है। उदाहरण-भूमि, भवन संयन्त्र (Plant), मशीनरी, फर्नीचर, कार, बस आदि इसके उदाहरण हैं।
2. अस्थायी सम्पत्तियाँ (Floating Assets)- ऐसी सम्पत्तियाँ जो स्थाई प्रकृति की नहीं होती हैं वरन् जिनमें समय-समय पर कमी या वृद्धि होती रहती है। उन्हें अस्थाई सम्पत्तियाँ कहा जाता है। चूंकि ऐसी सम्पत्तियों की प्रकृति लगातार बदलती रहती है अतः उन्हें चल सम्पत्तियाँ (Current Assets) या चक्रीय सम्पत्तियाँ (Circulating Assets) भी कहा जाता है।
उदाहरण- स्टॉक, विनिमय देनदार प्राप्त बिल, स्टोर्स आदि।
3. तरल सम्पत्तियाँ- जिन सम्पत्तियों को किसी भी समय आसानी व शीघ्रता से और कम से कम या बिना वाटे के नगद में परिवर्तित किया जा सके उन्हें तरल सम्पत्तियाँ कहा जाता है। उदाहरण- नगद शेष, बैंक में रोकड़ तथा अल्पकालीन बिल इसके उदाहरण हैं। तरल सम्पत्तियाँ चल सम्पत्तियों का अंग होती हैं।
4. नाशवान सम्पत्तियाँ- नाशवान सम्पत्तियों वे सम्पत्तियाँ होती हैं जो प्रयोग के कारण एक निश्चित अवधि के बाद समाप्त हो जाती हैं।
उदाहरण- पट्टे पर ली गयी सम्पत्तियाँ (Leasehold Properties) पेटेण्ट राइट (Patent Rights), खानें (Mines). पशुधन (Live stock), तेल के कुयें।
5. अवास्तविक सम्पत्तियाँ- वे सम्पत्तियाँ जो दृश्वगत नहीं होती हैं या जिनका कोई भौतिक आकार-प्रकार नहीं होता है। उन्हें अवास्तविक सम्पत्तियाँ कहा जाता है। अवास्तविक सम्पत्तियों को अमूर्त सम्पत्तियाँ (Intangible Assets) भी कहा जाता है। ऐसी सम्पत्तियों को चिट्ठे के सम्पत्ति भाग में इसलिए दिखाया जाता है कि किसी विशेष खाते के ये डेबिट बाकी होते हैं और जिनका आलेखन (Writing off) अब तक नहीं हुआ है। जाहिर है कि अवास्तविक सम्पत्तियों को कुछ निश्चित अवधि में अपलिखित (Write off) किया जाता है दूसरे शब्दों में एक निश्चित अवधि तक प्रत्येक वर्ष निश्चित राशि लाभ-हानि में हस्तान्तरित की जाती है।
उदाहरण- प्रारम्भिक व्यय Expenses). कापी राइट (Copy wright), ट्रेड मार्क (Trade Mark) लाभ-हानि खातों का नाम, शेष, पेटेण्ट अंशों के निर्गमन पर छूट (Discount on Issue of Shares), ख्याति इत्यादि।
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