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लेखांकन सिद्धान्तों की सीमाएँ | Limitations of Accounting Principles

लेखांकन सिद्धान्तों की सीमाएँ | Limitations of Accounting Principles
लेखांकन सिद्धान्तों की सीमाएँ | Limitations of Accounting Principles

लेखांकन सिद्धान्त की सीमाएं बताइये।

लेखांकन सिद्धान्तों की सीमाएँ

किसी भी विधि के सिद्धान्त सार्वभौमिक नहीं हो सकते, उसी तरह लेखांकन के सिद्धान्त भी सापेक्षिक हैं। इसकी निम्नलिखित सीमाएँ हैं :

(1) सिद्धान्तों की पूर्ण सूची का अभाव (Absence of Complete set of Principles) – अब तक लेखांकन सिद्धान्तों की कोई पूर्ण सूची तैयार नहीं हो सकी है। कई बार विभिन्न जटिल समस्याओं में लेखाकार अपने विवेक के आधार पर निर्णय करते हैं जिससे लेखाविधियों में एकरूपता स्थापित नहीं हो पाती है। अपूर्णता के कारण ये सिद्धान्त सर्वमान्य एवं सर्वग्राह्य भी नहीं हो पा रहे हैं।

अमेरिकन इन्स्टीट्यूट ऑफ सर्टिफाइड पब्लिक एकाउण्टेण्ट्स लेखांकन के कुछ सिद्धान्तों की सूची प्रस्तुत की है, किन्तु वह भी पूर्ण नहीं मानी गयी हैं।

(2) लेखांकन सिद्धान्तों पर सामान्य स्वीकृति का अभाव (Lack of General Acceptability on Accounting)- व्यवसाय की प्रकृति एवं परिस्थिति के अनुसार लेखांकन सिद्धान्त पृथक्-पृथक् महत्व रखते हैं। व्यावसायिक संस्थाएँ अपनी इच्छानुसार इन सिद्धान्तों का प्रयोग करती हैं। कोई भी इकाई इन सिद्धान्तों के पालन के लिए बाध्य नहीं होती। एक ही उद्योग में अलग-अलग लेखाकारों द्वारा अलग-अलग सिद्धान्तों को उचित ठहराकर खाते तैयार किये जाते हैं जिससे ये सिद्धान्त व्यापक स्वीकृति से वंचित हैं।

(3) सिद्धान्तों के प्रतिपालन में भिन्नता (Difference in the Application of Principles) – लेखांकन सिद्धान्तों को लागू करने के कई ढंग हैं। अब तक जो भी सिद्धान्त प्रतिपादित हुए हैं उन्हें सभी लेखाकार समान रूप से व्यवहार में नहीं लाते व्यवसाय की प्रकृति, आवश्यकता एवं सुविधा को ध्यान में रखकर लेखांकन सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है जिससे जटिलता उत्पन्न होती है तथा लाभ-हानि का निर्धारण प्रभावित होता है। लेखांकन सिद्धान्तों के प्रयोग में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि किसी विशेष समस्या के समाधान में व्यावसायिक संस्था किस विशेष सिद्धान्त का प्रयोग करेगी।

लेखांकन की वैकल्पिक विधियों के प्रयोग से लाभ-हानि के परिणामों में भिन्नता के साथ ही उनकी आपसी तुलना सम्भव नहीं हो पाती। जैसे, सामग्री के निर्गमन एवं मूल्यांकन, ह्रास के आयोजन की कई विधियाँ हैं, अशोध्य एवं संदिग्ध ऋणों के लिए बट्टा तथा आयोजन, करों के लिए प्रावधान के कई वैकल्पिक ढंग हैं। इससे संस्था के लाभ-हानि एवं आर्थिक स्थिति में भिन्नता आती हैं तथा खातों की तुलना सम्भव नहीं हो पाती।

(4) भावी अनुमानों का भ्रामक होना (Uncertain Estimates)- लेखांकन के कुछ सिद्धान्त भावी अनुमानों पर आधारित होते हैं। ये अनुमान सदैव सही नहीं होते। इससे व्यवसाय की सही आर्थिक स्थिति प्रकट नहीं हो पाती। जैसे, स्थायी सम्पत्ति पर ह्रास की गणना सम्पत्ति के अनुमानित जीवन काल के आधार पर की जाती है। यदि जीवन काल का अनुमान गलत हो तो ह्रास की राशि भी गलत होगी। परिणामस्वरूप चिट्ठो में सम्पत्ति का सही मूल्य प्रकट नहीं हो सकेगा।

(5) मौद्रिक व्यवहारों का लेखांकन (Accounting of Monetary Transactions)- लेखांकन में केवल वे व्यवहार ही सम्मिलित हो पाते हैं। जिनका मूल्य मुद्रा में निश्चित किया जा सके। व्यवसाय के स्वामी का स्वास्थ्य, कर्मचारियों की कार्यकुशलता एवं ईमानदारी भी व्यवसाय के परिणाम को प्रभावित करती है जिस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।

(6) सीमित क्षेत्र (Limited Scope) – लेखांकन सिद्धान्तों का क्षेत्र सीमित होता है। ये सिद्धान्त केवल व्यवहारों के लेखांकन तथा वित्तीय विवरणों तक ही सीमित होते हैं। इसे लेखांकन की सभी विधाओं में लागू नहीं किया जा सकता।

(7) पूँजीगत एवं आयगत मदों में अन्तर स्पष्ट न होना (Improper Differentiation in Capital & Revenue Items)- लेखांकन के सिद्धान्त पूँजीगत एवं आयगत मदों में अन्तर स्पष्ट नहीं कर पाते। यह बहुत कुछ व्यवसाय की परिस्थितियों एवं उद्देश्यों पर निर्भर करता है। पूँजी एवं आगम में स्पष्ट अन्तर न हो पाने से खाते वास्तविक परिणाम एवं आर्थिक स्थिति स्पष्ट नहीं कर पाते।

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Anjali Yadav

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