उत्पादन के उपादान (Factors of Production)
अर्थ (Meaning)- उत्पादन के उपादानों या साधनों से अभिप्राय उन वस्तुओं तथा सेवाओं से है जिनके सहयोग से किसी वस्तु या सेवा का उत्पादन किया जाता है। बेनहम (Benham) के शब्दों में, “कोई भी वस्तु या सेवा जो किसी भी स्तर पर उत्पादन कार्य में सहयोग प्रदान करती है, उत्पादन का उपादान कहलाती है।”
प्रो० उल्मर (Ulmer) के अनुसार, “उत्पादन की प्रक्रिया में शामिल होने वाली सेवाओं के स्रोतों के उपादान को उत्पादन कहा जाता है। इन उपादानों को मुख्यतया भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन तथा उद्यम के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।”
उपादानों की संख्या-यद्यपि उत्पादन के उपादानों की संख्या को लेकर अर्थशास्त्रियों में प्रारम्भ से ही मतभेद रहा है, किन्तु आजकल प्रचलित मत के अनुसार उत्पादन के पाँच उपादान है- (1) भूमि, (2) श्रम, (3) पूंजी (4) संगठन तथा (5) उद्यम |
(1) भूमि (Land)- डॉ० मार्शल के अनुसार, “भूमि का अर्थ केवल पृथ्वी की ऊपरी सतह से नहीं है, वरन् उन सभी पदार्थोंों तथा शक्तियों से है जो प्रकृति ने मनुष्य को उसकी सहायता के लिए भूमि, पानी, हवा, प्रकाश तथा ताप के रूप में निःशुल्क प्रदान की है। दूसरे शब्दों में, ‘भूमि’ से अभिप्राय उन समस्त प्राकृतिक संसाधनों से है जो प्रकृति की ओर से मनुष्य को पृथ्वीतल पर, उसके नीचे तथा उसके ऊपर निःशुल्क प्राप्त होते हैं। इस प्रकार अर्थशास्त्र में पर्वत, मैदान, नदियों, खनिज पदार्थ, जलवायु आदि सभी ‘भूमि’ है।
(2) श्रम (Labour) -श्रम के अर्थ को मार्शल ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “श्रम से अभिप्राय मनुष्य के आधिक कार्य से है, चाहे वह हाथ से किया जाए या मस्तिष्क से। दूसरे शब्दों में, वे सभी शारीरिक तथा मानसिक प्रयत्न श्रम कहलाते हैं जो धन-प्राप्ति के लिए या किसी आर्थिक उद्देश्य से किए जाते हैं।
(3) पूंजी (Capital) पूँजी मनुष्य के द्वारा उत्पन्न किए गए धन का वह भाग है जो अधिक धन उत्पन्न करने में सहायक होता है, जैसे कच्चा माल, ट्रॅक्टर, यन्त्र, मशीन इत्यादि मार्शल के शब्दों में, “प्रकृति की समस्त निःशुल्क देन के अतिरिक्त वह सब सम्पत्ति जिससे आय प्राप्त होती है, पूंजी कहलाती है।”
(4) संगठन (Organisation)– ‘संगठन’ उत्पादन का एक ऐसा उपादान है जो भूमि, श्रम तथा पूंजी को उचित मात्रा दि अनुपात में जुटाता है तथा इनके द्वारा किए जाने वाले उत्पादन कार्य का निरीक्षण करता है।
(5) उद्यम (Enterprise)—प्रत्येक उत्पादन कार्य में, चाहे वह छोटा हो या बड़ा कुछ न कुछ जोखिम अवश्य होता है। हो सकता है कि भविष्य में माल के न विकने के कारण हानि उठानी पड़े। किसी उत्पादन कार्य में निहित जोखिम उठाने के कार्य को ही ‘उद्यम’ कहते हैं। यदि कोई व्यक्ति या फर्म जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं होगी, तो उत्पादन कार्य सम्भव नहीं हो पायेगा। होन (Haney) के विचारों में, “उत्पादन में जोखिम उठाने वाला उपादान उद्यम होता है।” प्रो० नाइट के मत में, “उद्यम के अन्तर्गत अनिश्चितता वहन करने का कार्य आता है।”
प्रो० पेन्सन (Penson) ने पाँचों उपादानों को दो मुख्य भागों में बाटा है-(1) मानवीय प्रयत्न तथा (ii) चाहा प्रयत्न मानवीय प्रयत्नों के अन्तर्गत उन्होंने श्रम संगठन तथा उद्यम को शामिल किया है, जबकि बाढा प्रयत्नों में भूमि तथा पूँजी को सम्मिलित किया गया है।
उत्पादन के उपादानों का वर्गीकरण (Classification)-उत्पादन के उपादानों की संख्या के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में प्रारम्भ से ही बाद-विवाद रहा है। इस सम्बन्ध में मुख्यतः निम्न तीन प्रकार के दृष्टिकोण पाए जाते हैं-
(1) प्रारम्भिक दृष्टिकोण-प्रतिष्ठित (प्राचीन) अर्थशास्त्रियों ने उत्पादन के केवल दो मौलिक उपादान बताए थे-भूमि तथा श्रम | जे० एस० मिल (J. S. Mill) ने इन्हें उत्पादन के प्राथमिक तथा सर्वमान्य कारक (उपादान) माना। चेपमेन ने इन्हें अत्यन्त आवश्यक साधन (Agents) बतलाया। इन विद्वानों के विचार में पूंजी, संगठन तथा उद्यम उत्पादन के पृथक् तथा मौलिक उपादान नहीं है। पूंजी तो पिछली बचत का परिणाम है तथा यह भूमि और श्रम के संयुक्त कार्य का प्रतिफल होती है। कुछ विद्वानों ने पूंजी। को संचित-श्रम (Stored-up Labour) बतलाया है। ‘संगठन’ तथा ‘उद्यम’ को इन विचारकों ने ‘विशिष्ट श्रम’ कहकर पुकारा जिस कारण इन्हें पूर्व उपादान मानने की कोई आवश्यकता अनुभव नहीं की गई।
(2) प्रचलित मत (पाँच उपादान)-प्राचीन काल में उत्पादन का पैमाना बहुत छोटा था जिस कारण विद्वानों ने ‘भूमि’ तथा ‘श्रम’ के अतिरिक्त किसी अन्य उपादान को मान्यता प्रदान करने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की। किन्तु जैसे-जैसे मनुष्य की आवश्यकताएँ बढ़ती गई तथा उत्पादन का पैमाना बड़ा होता गया, वैसे-वैसे पूंजी का महत्त्व बढ़ता गया क्योंकि पूंजी के अभाव में बड़े पैमाने पर उत्पादन करना सम्भव नहीं था। परिणामतः पूंजी को उत्पादन का तीसरा उपादान माना जाने लगा। ज्यों-ज्यों आर्थिक सभ्यता का विकास होता गया वैसे-वैसे उत्पादन कार्य जटिल होता गया जिस कारण भूमि, श्रम तथा पूंजी को उचित मात्रा में जुटाने तथा उनके द्वारा किए जाने वाले उत्पादन कार्य का निरीक्षण करने के कार्य भी महत्वपूर्ण हो गए। परिणाम यह हुआ कि ‘संगठन’ को उत्पादन के चौधे उपादान के रूप में मान्यता मिल गई। उत्पादन के पैमाने के और अधिक विशाल तथा जटिल होने पर उत्पादन प्रणाली में जोखिम तथा अनिश्चितता का अंश भी बढ़ता गया। इसके फलस्वरूप ऐसे व्यक्तियों अथवा व्यक्तियों के समूह की आवश्यकता पड़ी जो उत्पादन कार्य में निहित जोखिम को उठा सकें। इस कार्य को न तो साधारण श्रमिक ही कर सकते थे और न ही संगठनकर्त्ता परिणाम यह हुआ कि ‘ज्यम’ को उत्पादन का पाँचयों उपादान माना जाने लगा। इस प्रकार आजकल प्रचलित मत के अनुसार उत्पादन के पाँच उपादान है- (1) भूमि, (2) श्रम, (3) पूंजी (4) संगठन तथा (5) उदद्यम |
(3) आधुनिक वर्गीकरण-आस्ट्रियन अर्थशास्त्री बीजर (Wieser) ने उत्पादन के समस्त उपादानों को दो वर्गों में बाँटा है (i) विशिष्ट उपादान (Specific Factors) तथा (ii) अविशिष्ट उपादान (Non-Specific Factors)। विशिष्ट उपादान ये होते हैं जिनका उपयोग किसी विशिष्ट कार्य में ही किया जा सकता है, जैसे रेलवे इंजन को केवल रेलगाड़ी चलाने के काम में लाया जा सकता है। अविशिष्ट उपादान वे होते हैं जिनका उपयोग विभिन्न कार्यों में किया जा सकता है, जैसे-श्रम, बिजली की मोटर आदि ।
अनगिनत साधन (उपादान) – जब हम बेनहम (Benham) के विचार को लेते हैं। प्रो० येनहम ने उपादानों के परम्परागत वर्गीकरण की कटु आलोचना की है तथा बताया है कि उत्पादन के उपादान केवल पाँच ही नहीं बल्कि अनगिनत होते हैं। भूमि के विभिन्न टुकड़ों की उपजाऊ शक्ति समान नहीं होती, प्रत्येक श्रमिक की कुशलता एक सी नहीं होती तथा प्रत्येक पूँजीगत पदार्थ की क्षमता समान नहीं होती। इस प्रकार भूमि, श्रम तथा पूँजी के अनगिनत उप-भेद होते हैं। इन सब उप-भेदों को बेनहम ने उत्पादन के भिन्न तथा पृथक् उपादान माना है। किन्तु बेनहम का यह विचार अत्यन्त जटिल है जिस कारण आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने इसे कोई महत्त्व प्रदान नहीं किया है।
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