कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

उपभोग : अर्थ, रूप (Consumption: Meaning, Forms)

उपभोग : अर्थ, रूप (Consumption: Meaning, Forms)
उपभोग : अर्थ, रूप (Consumption: Meaning, Forms)

उपभोग : अर्थ, रूप (Consumption: Meaning, Forms)

आश्यकताओं की प्रत्यक्ष सन्तुष्टि के लिए आर्थिक वस्तुओं तथा संगाओं का प्रयोग ही उपभोग है।

-प्रो. माईकल

उपभोग का अर्थ (Meaning of Consumption)

‘उपभोग’ वह आर्थिक क्रिया है जिससे मनुष्य की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि होती है। दूसरे शब्दों में, अर्थशास्त्र के अन्तर्गत किसी मानवीय आवश्यकता की सन्तुष्टि के लिए किसी वस्तु या सेवा में पाए जाने वाले तुष्टिगुण का प्रत्यक्ष प्रयोग ‘उपभोग’ कहलाता है।

परिभाषाएँ (Definitions) ‘उपभोग’ सम्बन्धी कुछ परिभाषाएँ नीचे प्रस्तुत है-

(1) मेयर्स (Mayers) के विचार में आवश्यकताओं की सन्तुष्टि हेतु वस्तुओं तथा सेवाओं का प्रत्यक्ष तथा अन्तिम प्रयोग ही उपभोग कहलाता है।

(2) वसु (Basu) के शब्दों में, “आर्थिक तुष्टिगुण का प्रयोग ही उपभोग है।”

(3) पेन्सन (Penson) के अनुसार, “आर्थिक दृष्टि से आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए धन के प्रयोग को उपभोग कहते हैं।”

(4) प्रो० एली के अनुसार, “विस्तृत अर्थों में उपभोग मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए आर्थिक वस्तुओं तथा व्यक्तिगत सेवाओं का प्रयोग है। भोजन करना, कपड़े पहनना, पैन से लिखना, दवाई पीना आदि आर्थिक क्रियाएँ उपभोग के उदाहरण हैं।

उपभोग के लक्षण (Features of Consumption)-उक्त परिभाषाओं से उपभोग के निम्न लक्षण प्रकट होते हैं-

(1) आवश्यकताओं की सन्तुष्टि- किसी वस्तु या सेवा के उपभोग से मनुष्य की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि होती है। उपभोग का अर्थ तुष्टिगुण को नष्ट करना नहीं होता, अर्थात् यदि दूध पीए जाने से पहले बिखर जाए अथवा कमीज पहने जाने से पहले ही जल जाए तो यह उपभोग नहीं हुआ। अतः उपभोग तब होता है जबकि किसी मानवीय आवश्यकता की सन्तुष्टि होती है।

(2) आवश्यकता की प्रत्यक्ष सन्तुष्टि- वस्तुओं तथा सेवाओं के उपभोग से मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि प्रत्यक्ष रूप से (directly) होती है, जैसे रोटी मनुष्य की भूख को प्रत्यक्ष रूप से तृप्त करती है। किन्तु कोयला प्रत्यक्ष रूप से भूख को तृप्त नहीं करता बल्कि पहले कोयले से रोटी पकाई जाती है और फिर भूख मिटाई जाती है। अर्थशास्त्र में, कोयले का इस प्रकार का प्रयोग, ‘उपभोग’ नहीं कहलायेगा वरन ऐसा प्रयोग उत्पादन प्रक्रिया का अंग होगा।

(3) तुष्टिगुण में कमी या इसकी समाप्ति- किसी वस्तु का उपभोग करने से उसके तुष्टिगुण में कमी आ जाती है। कुछ वस्तुएँ तथा सेवाएँ तो ऐसी होती हैं, जिनका उपभोग करने से उनका तुष्टिगुण तत्काल समाप्त हो जाता है, जैसे खाने-पीने की वस्तुएँ। इसके विपरीत, घड़ी, साइकिल, पुस्तक, पैन आदि टिकाऊ वस्तुओं का उपभोग करने पर उनका तुष्टिगुण धीरे-धीरे समाप्त होता है।

(4) सेवाओं का प्रयोग- सेवाओं से भी मानवीय आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष रूप से सन्तुष्टि होती है। इसलिए वस्तुओं की भाँति सेवाओं का प्रयोग भी उपभोग कहलाता है, जैसे डॉक्टर की सेवा, अध्यापक की सेवा, वकील की सेवा आदि।

उपभोग के अर्थ सम्बन्धी भ्रान्तियाँ

उपभोग के अर्थ के बारे में लोगों में अनेक प्रकार की गलत धारणाएँ पाई जाती जो निम्न प्रकार है-

(1) उपभोग का अर्थ केवल खाना-पीना नहीं- साधारण बोलचाल में उपयोग का अर्थ वस्तुओं के केवल खाने-पीने से लिया जाता है। किन्तु अर्थशास्त्र में इसका व्यापक अर्थ लिया जाता है। मेज, कुर्सी आदि टिकाऊ वस्तुओं का प्रयोग भी उपभोग कहलाता है।

(2) उपभोग का अर्थ वस्तु को नष्ट करना नहीं- कुछ लोग उपभोग का अर्थ वस्तु को नष्ट करने से लगाते हैं किन्तु वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य किसी पदार्थ को उत्पन्न या नष्ट नहीं कर सकता। मनुष्य तो केवल किसी पदार्थ के रूप, रंग, आकार आदि में परिवर्तन कर सकता है। उदाहरणार्थ, लकड़ी को जलाए जाने के बाद वह कोयला, राख, धुआँ आदि का रूप धारण कर लेती है।

(3) उपयोग का अर्थ तुष्टिगुण को नष्ट करना नहीं (उपभोग तथा विनाश में अन्तर)- कुछ लोगों के विचार में उपभोग का अर्थ वस्तुओं के तुष्टिगुण को नष्ट करना है। किन्तु यह धारणा भी एकदम गलत है। यदि तुष्टिगुण के नष्ट होने के साथ-साथ किसी मानवीय आवश्यकता को सन्तुष्टि होती है तभी तुष्टिगुण का नाश उपभोग कहलाएगा। उदाहरणार्थ, यदि खीर खाने से पहले ही बिखर जाती है तो यह उपभोग नहीं होगा। यह तो वस्तु (खीर) की बर्बादी होगी। इस प्रकार उपभोग तथा तुष्टिगुण के विनाश में जन्तर है।

उपभोग के स्वरूप (Forms of Consumption)

उपभोग के निम्न स्वरूप बताए गए है-

(1) शीघ्र उपभोग तथा मन्द उपभोग (Quick Consumption and Slow Consumption)-जब वस्तुओं का उपभोग करने से उनका तुष्टिगुण शीघ्र समाप्त हो जाता है तब उसे ‘शीघ्र उपभोग कहते हैं। फल, दूध, मिठाई, रोटी आदि नाशवान वस्तुओं का उपभोग इसी प्रकार का होता है। इसके विपरीत, जब वस्तुओं का उपभोग करने पर उनका तुष्टिगुण कुछ दिनों, मशीनों या वर्षों में धीरे-धीरे समाप्त होता है तो उसे ‘मन्द उपभोग’ कहते हैं। पुस्तक, पैन, कमीज, पैन्ट, फ्रिज, कार आदि टिकाऊ वस्तुओं का उपभोग काफी समय तक किया जाता है।

(2) प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष उपभोग या उत्पादक तथा अन्तिम उपभोग (Direct and Indirect Consumption or Productive and Final Consumption) जब किसी वस्तु या सेवा का उपभोग गनुष्य की प्रत्यक्ष आवश्यकता को सन्तुष्टि के लिए किया जाता है तब इसे ‘प्रत्यक्ष उपभोग’ अथवा ‘अन्तिम उपभोग कहते हैं, जैसे फल खाना, भोजन करना, दूध पीना आदि। किन्तु जब किसी वस्तु या सेवा का प्रयोग किसी अन्य वस्तु का उत्पादन करने के लिए किया जाता है तब इसे उत्पादक उपभोग’ अथवा अप्रत्यक्ष उपभोग कहते हैं, जैसे अनाज को चीज के रूप में प्रयोग करना।

(3) वर्तमान उपभोग तथा स्थगित उपभोग (Present Consumption and Postponed Consumption) जब वस्तुओं का प्रयोग तत्कालीन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए किया जाता है तब इसे वर्तमान उपयोग कहते हैं, जैसे भोजन करना, मिठाई खाना, आदि। इसके विपरीत, जव वस्तुएँ माची आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रखी जाती है तब इसे ‘स्वागत या भावी उपयोग करते हैं, जैसे गर्मी आने पर ऊनी कपड़ों को अगली सदी में पहनने के लिए उठाकर रख देना।

(4) भौतिक उपभोग तथा अभौतिक उपयोग (Material Consumption & Non-material Consumption) जब आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए वस्तुओं का उपयोग किया जाता है तब इसे ‘भौतिक उपभोग कहते हैं। इसके विपरीत, जय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि निजी सेवाओं द्वारा की जाती है तब इसे ‘अभौतिक उपभोग’ कहते हैं।

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Anjali Yadav

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