किराया क्रय पद्धति से क्या आशय है? किराया क्रय पद्धति की विशेषताएं बताइये ।
किराया क्रय पद्धति इस प्रणाली के अनुसार क्रय- विक्रय का कार्य एक अनुबन्ध के माध्यम से सम्पन्न होता है। इस अनुबन्ध के अनुसार एक पक्षकार (क्रेता) दूसरे पक्षकार (विक्रेता) को माल की कीमत का भुगतान किस्तों (instalment) में करने का वचन देता है। ये किस्तें एक निर्धारित अवधि की होती हैं जिसके भीतर इन किस्तों का भुगतान करने की शर्त होती है। किराया क्रय अनुबन्ध एक प्रकार का निक्षेप (Bailment) अनुबन्ध है। इस अनुबन्ध के अनुसार माल क्रेता को सुपुर्द कर दिया जाता है किन्तु इस पर स्वामित्व (Ownership) विक्रेता का ही बना रहता है चूँकि माल क्रेता को मिल जाता रु, इसलिए क्रेता माल का प्रयोग (उपयोग करने का अधिकारी हो जाता है और जब तक इस माल की अन्तिम किस्त नहीं चुका देता, वह माल का वास्तविक स्वामी नहीं बन सकता है। यदि क्रेता माल की किस्त का भुगतान नहीं कर पाता है तो विक्रेता को माल को वापस लेने का अधिकार होता है। क्रेता के द्वारा अब तक चुकायी गयी किस्तें माल के प्रयोग करने का किराया मान ली जाती है, इसीलिए इस पद्धति को किराया क्रय पद्धति कहा जाता है।
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किराया क्रय पद्धति की परिभाषाएँ
विषय वस्तु के अध्ययन की सुविधा के लिए किराया क्रय पद्धति की परिभाषाओं को निम्नांकित तीन शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है- (I) विभिन्न विद्वानों के अनुसार (II) भारतीय लॉ कमीशन के अनुसार (III) किराया क्रय अनुबन्ध अधिनियम, 1972 के अनुसार।
I. विभिन्न विद्वानों के अनुसार विलियम पिकिल्स (William Pickles) के अनुसार, “किराया क्रय पद्धति से आशय उस पद्धति से है जिसमें सम्पत्ति की प्राप्ति किस्तों में भुगतान द्वारा होती है; किस्सों की अवधि में सम्पत्ति पर स्वामित्व विक्रेता का होता है: अन्तिम किस्त भुगतान से पूर्व प्राप्त होने वाल भुगतान किराया स्वरूप माने जाते हैं तथा सम्पत्ति का स्वामित्व क्रेता को तब तक प्राप्त नहीं होता, जब तक अन्तिम किस्त का भुगतान न कर दिया जाय।”
II. भारतीय लॉ कमीशन (Indian law Commission) के अनुसार, “किराया क्रय ठहराव एक प्रकार का निक्षेप (Bailment) है, किरायेदार को कुछ शर्तों पर माल क्रय करने का अधिकार दिया जाता है, क्रय करना उसकी इच्छा पर निर्भर करता है, उसका उत्तरदायित्व नहीं होता, यदि वह क्रय पर ठहराव की शर्तें पूरी करता है तो माल पर स्वामित्व प्राप्त कर लेता यदि वह ठहराव की शर्तें पूरी नहीं करता तो उसे ठहराव की शर्तों के अनुसार माल लौटाना होता है और ठहराव समाप्त हो जाता है।”
III. किराया क्रय अनुबन्ध अधिनियम, 1972 की धारा 2 (C) के अनुसार- “किराया क्रय ठहराव से आशय एक ऐसे ठहराव से है जिसके अन्तर्गत माल किराये पर दिया जाता है और किरायेदार को अनुबन्ध की शर्तों के अनुसार माल क्रय करने का विकल्प (Option) रहता है तथा अनुबन्ध में यह शामिल रहता है :
- माल के स्वामी द्वारा माल की सुपुर्दगी क्रेता को इस शर्त पर दी जाती है कि वह (क्रेता) अनुबन्धित राशि का भुगतान सामायिक किस्तों (Periodical Instalments) में करेगा।
- माल के स्वामित्व का हस्तान्तरण ऐसे व्यक्ति (क्रेता) को अन्तिम किस्त के भुगतान पर प्राप्त होगा।
- ऐसे व्यक्ति (क्रेता) को माल के स्वामित्व के हस्तान्तरण से पूर्व अनुबन्ध भंग करने का अधिकार होगा।”
किराया क्रय पद्धति की मुख्य विशेषताएँ
किराया क्रय पद्धति की विषयवस्तु के अध्ययन एवं विश्लेषण से हम इसकी निम्नांकित विशेषताओं को दर्शा सकते हैं-
1. अनुबन्ध का होना (Arrangement for contract) – किराया क्रय पद्धति का जन्म अनुबन्ध से होता है जिसके दो पक्षकार होते हैं- पहला किराया क्रय विक्रेता (Hire Vendor or hire Seller), दूसरा किराया क्रेता (Hire Purchaser) ।
2. उधार या साख पर बिक्री (Sales on Credit) – क्रेता को साख सुविधा उपलब्ध कराने की दृष्टि से किराया क्रय पद्धति का जन्म हुआ है। इसमें माल की पूरी कीमत का भुगतान तत्काल नहीं किया जाता बल्कि ठहराव की शर्तों के अनुसार सामायिक किस्तों में किया जाता है।
3. किस्तों में भुगतान (Payment by Instalment) – इस पद्धति में माल की पूरी कीमत का भुगतान किस्तों में किया जाता है। अनुबन्ध की शर्तों के अनुसार किस्त की राशि एवं अवधि निर्धारित कर दी जाती है।
4. क्रेता को माल के प्रयोग का अधिकार (Hire Purchaser Possess Right to Use) – किराया क्रय अनुबन्ध के अन्तर्गत जैसे ही क्रेता द्वारा पहली किस्त का भुगतान विक्रेता को कर दिया जाता है, विक्रेता उसे माल सुपुर्द कर देता है और क्रेता को माल के प्रयोग का अधिकार प्राप्त हो जाता है। यह अधिकार तब तक बना रहता है जब तक कि क्रेता द्वारा किस्त भुगतान में किसी प्रकार की त्रुटि या अनियमितता न की जाय।
5. विक्रेता का स्वामित्व (Ownership with the Seller) – यद्यपि प्रथम किस्त के भुगतान के साथ ही माल क्रेता को सुपुर्द कर दिया जाता है। क्रेता माल का यथोचित उपयोग कर सकता है, उसे यह अधिकार मिल जाता है किन्तु स्वामित्व माल की अन्तिम किस्त के भुगतान से पूर्व तक विक्रेता का ही बना रहता है।
6. क्रेता का स्वामित्व (Ownership of the Purchaser) – माल की अन्तिम किस्त के भुगतान के साथ ही माल पर क्रेता को स्वामित्व प्राप्त होता है। यही कारण है कि विधानतः उसे माल के अनुचित प्रयोग का अधिकार नहीं होता। यथोचित प्रयोग के प्रवाह में यदि माल की टूट-फूट होती है तो मरम्मत का दायित्व विधानतः विक्रेता का रहता है। यदि पूरी किस्म चुकाये बिना ही माल क्रेता द्वारा अन्य पक्ष को बेच दिया जाये तो अन्य पक्ष को माल पर श्रेष्ठ स्वत्वाधिकार (Good Title) प्राप्त नहीं होता।
7. विक्रेता को माल वापस लेने का अधिकार (Right to take the Goods) – माल के किराया क्रय क्रेता द्वारा यदि नियत देय तिथि पर किस्त का भुगतान करने में लापरवाही की जाती है तो ऐसी दशा में विक्रेता को माल वापस लेने का अधिकार होता है क्योंकि विधानतः माल पर स्वामित्व अन्तिम किस्त के भुगतान के पूर्व तक विक्रेता का ही बना रहता है।
8. किस्तों का विक्रेता द्वारा हरण करना (To forfeit the Instalment Paid ) – क्रेता द्वारा देय तिथि पर निर्धारित किस्तों के भुगतान में त्रुटि किये जाने की दशा में विक्रेता को न केवल माल वापस पाने का अधिकार होता है वरन् उसे क्रेता द्वारा अब तक दत्त सभी किस्ते, माल के प्रयोग का किराया मानते हुए जब्त करने का भी अनुबन्धतः अधिकार होता है।
9. प्रत्याभूति-दाता से राशि का वसूल किया जाना (To Realise Money form the Guarantor)- किराया क्रय अनुबन्ध में क्रेता के पक्ष में यदि कोई प्रतिभूत है जिसने क्रेता के द्वारा किये गये भुगतान का उत्तरदायित्व लिया है और किस्तों का भुगतान समय पर नहीं हुआ है एवं रकम वसूल करने की सभी कार्यवाही असफल हो गयी है, तब विक्रेता इस रकम को प्रत्याभूति-दाता से वसूल करने का अधिकारी होता है।
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