जे० के० मेहता की परिभाषा की आलोचना (Criticism)
मेहता की परिभाषा की कटु आलोचना की गई है तथा उसमें मुख्यतया निम्न दोष निकाले गए हैं —
(1) अर्थशास्त्र की उपयोगिता की समाप्ति- मेहता का विचार अर्थशास्त्र की बर्बादी की नींव डालता है। यदि ऐसे समाज की स्थापना हो जायेगी (पहले तो सम्भव ही नहीं) जिसमें आवश्यकताओं का उन्मूलन हो जायेगा तो फिर किसी प्रकार के आर्थिक विज्ञान की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
(2) अर्थशास्त्र को धर्म व दर्शन से जोड़ना गलत- मेहता ने अर्थशास्त्र को व्यर्थ ही धर्म तथा दर्शनशास्त्र से अत्यधिक सम्बन्धित कर दिया है। इससे तो अर्थशास्त्र का क्षेत्र भी अनिश्चित हो जायेगा।
(3) लौकिक उन्नति का अध्ययन- प्रो० मेहता ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में दर्शनशास्त्र तथा धर्मशास्त्र के सिद्धान्तों का जो प्रयोग किया है वह सर्वथा अनुचित है, क्योंकि अर्थशास्त्र का सम्बन्ध ऐहिक (लौकिक) उन्नति से है जबकि धर्मशास्त्र का सम्बन्ध पारलौकिक उन्नति से है।
(4) सभ्यता की प्रगति की विरोधी-मेहता की परिभाषा सभ्यता की उन्नति के विपरीत है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानवीय आवश्यकताएँ बढ़ती हैं न कि घटती हैं।
(5) इच्छारहित मानव की कल्पना निराधार- मेहता का दृष्टिकोण व्यावहारिक नहीं है क्योंकि आवश्यकताविहीनता के लक्ष्य को प्राप्त करना साधारण जनता के लिए सम्भव नहीं है।
(6) परस्पर विरोधी विचार- प्रो० मेहता ने अपनी परिभाषा में परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किए हैं। एक ओर तो वे आवश्यकताओं को समाप्त करने की बात करते हैं जबकि दूसरी ओर वे अधिकतम सन्तुष्टि की बात करते हैं। अधिकतम सन्तोष के लिए तो अधिकाधिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि आवश्यक है।
(7) आर्थिक नियोजन तथा विकास विरोधी-आजकल कई राष्ट्रों में प्राकृतिक संसाधनों के सर्वोत्तम विदोहन (exploitation) द्वारा तीव्र आर्थिक विकास के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आर्थिक नियोजन की नीति को अपनाया जा रहा है। इसके विपरीत, मेहता ने आवश्यकताओं से मुक्ति पाने की समस्या को आर्थिक समस्या माना है। इस दृष्टि से मेहता की परिभाषा व्यक्तिगत, सामाजिक तथा राष्ट्रीय विकास में बाधक है।
निष्कर्ष (Conclusion)- मैतिकता तथा दार्शनिकता पर आधारित जे० के० मेहता द्वारा दी गई अर्थशास्त्र की परिभाषा का आधुनिक भौतिकवादी युग में, कोई व्यावहारिक महत्त्व नहीं है। आवश्यकताओं के समाप्त होने पर तो मनुष्य पुनः आदिम अवस्था में पहुँच जायेगा।
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