नियोजन के क्षेत्र (तत्त्वों) का वर्णन कीजिए।
नियोजन के तत्व अथवा संघटक या क्षेत्र (Elements of Components or Scope of Planning)
किसी व्यावसायिक उपक्रम की योजना के अन्तर्गत निम्नलिखित तत्वों का समावेश होता है-
(1) उद्देश्य निर्धारित करना— उद्देश्य किसी भी योजना के आधार पर होते हैं और उद्देश्य निर्धारण करना नियोजन क्रिया का सबसे पहला कदम है। यह कहा जाता है कि उद्देश्यों की स्पष्ट व्याख्या प्रबन्ध की सबसे बड़ी सफलता है। व्यावसायिक नियोजन में सबसे पहले योजना के उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं। सर्वप्रथम शुरू में पूरी संस्था के उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं और फिर विभागों एवं उपविभागों के उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं। उद्देश्यों का निर्धारिण होने के बाद सभी सम्बन्धित व्यक्तियों को उनसे परिचय कराया जाता है ।
प्रबन्ध के सभी कार्य उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये किये जाते हैं। उद्देश्य निर्धारण के महत्व को बताते हुए कुछ विद्वानों ने कहा है कि, “प्रभावपूर्ण प्रबन्ध का अर्थ ही, उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध है।”
उद्देश्य किसी भी उपक्रम के एक नहीं बल्कि अनेक होते हैं। किसी भी उपक्रम की अनेक व्यावसायिक आवश्यकताएँ होती हैं और उसी के अनुरूप उद्देश्यों को संतुलित करना पड़ता है। ड्रकर के अनुसार किसी भी व्यावसायिक उपक्रम में आठ ऐसे निम्न महत्वपूर्ण विभाग होते हैं जिनमें उद्देश्य निर्धारित किये जाने चाहिए।
(i) बाजार में प्रसिद्ध, (ii) उत्पादकता, (iii) नवप्रवर्तन, (iv) भौतिक तथा वित्तीय साधन, (v) लाभदायकता, (vi) प्रगति एवं विकास, (vii) लोक दायित्व तथा (viii) कर्मचारियों की कार्य प्रगति और उनका व्यवहार।’
उद्देश्यों का निर्धारण होने के बाद समय-समय पर उनकी समीक्षा होनी चाहिये। प्रबन्धकों को दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन आधार पर उद्देश्यों की व्याख्या करनी चाहिए उद्देश्य पूर्णतः स्पष्ट होने चाहिये ताकि आधिकारियों को आसानी से समझ में आ सकें। उद्देश्यों का निर्धारण होने से योजनाओं के कार्यान्वयन में आसानी होती है।
(2) नीति निर्माण – उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये नीतियाँ बनायी जाती है। नीति-निर्धारण भी योजना की प्रक्रिया में शामिल होता है। नीतियाँ वे सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित करती हैं जिनके अनुसार संस्था की उत्पादन, विक्रय, वित्त या कर्मचारी व्यवस्था संगठित की जावेगी। निर्णय लेते नीतियों से काफी सहायता मिलती है। नीतियाँ स्पष्ट एवं सुनिश्चित होनी चाहिये ।
(3) पूर्वानुमान — व्यावसायिक क्षेत्र में वर्तमान तथा भूतकालीन दशाओं का विश्लेषण कर भविष्य की घटनाओं का अनुमान लगाना पड़ता है। नियोजन की सफलता में पूर्वानुमान का महत्वपूर्ण योगदान होता है। योजना बनाते समय विभिन्न पूर्वानुमान लगाने पड़ते हैं, जैसे- उत्पादन लागत, विक्रय कर नीति, विस्तार कार्यक्रमों, मजदूरी की दरों, लाभांश नीति तथा पूँजी प्राप्त करने के स्रोत आदि। पूर्वानुमान के द्वारा भविष्य की सम्भावनाओं का अनुमान लगाकर नियोजन की जोखिमों को कम किया जाता है
(4) कार्यविधियों का निर्माण- विभिन्न भावी क्रियाओं को सम्पन्न करने का तरीका निश्चित करना ही कार्यविधियों का निर्माण होता है। हम यह भी कह सकते हैं कि कार्यविधि वह प्रणाली कातरीका है जिसके अनुसार कार्यवाही की जाती है। लक्ष्यों तथा नीतियों के निर्धारण का तब तक कोई महत्व नहीं होता जब तक उन्हें प्राप्त करने के तरीकों तथा उसके क्रम का निर्धारण न कर लिया जाये। कार्यविधि निर्धारण द्वारा विभिन क्रियाओं के सम्पादन की प्रणाली तय कर ली जाती है। यदि हम कार्यविधियाँ निश्चित न करें तो संस्था का संचालन ढंग से नहीं हो पायेगा, अकुशलता, अव्यवस्था तथा अनियमितता बढ़ेगी और अपव्यय को जन्म मिलेगा। कार्यविधि बनाने से कर्मचारियों तथा विभागों में समन्वय बढ़ता है तथा प्रबन्धकों को कर्मचारियों को कुशलता नापने के अच्छे मापदण्ड प्राप्त हो जाते हैं। कार्यविधि में यह भी निश्चित किया जाता है कि कोई काम किस क्रम से कब-कब तथा किसके द्वारा किया जायेगा। कार्यविधियों में लोच का गुण होना भी जरूरी रहता है।
(5) कार्यक्रम– कार्यक्रम एक ऐसी विशिष्ट योजना है जो किसी विशेष स्थिति का सामना करने के लिए बनायी जाती है। उदाहरणस्वरूप एक संस्था द्वारा अपने विकास का कार्यक्रम बनाना। कार्यक्रम किसी कार्य की संक्षिप्त योजना है जिसमें योजना के सम्बन्ध में बनायी गयी नीतियों, कार्यविधियों, नियमों तथा बजटों आदि का व्यापक वर्णन किया जाता है। कार्यक्रम इस प्रकार तय किये जाते हैं कि वे निर्धारित नीतियों के अनुरूप तथा नियत कार्यविधियों क अनुसार क्रियान्वित हो । कार्यक्रम अल्पकालीन, दीर्घकालीन, व्यापक अथवा सीमित अनेक प्रकार के हो सकते हैं।
(6) बजट निर्माण— इच्छित परिणामों को प्राप्त करने के लिए समय सामग्री, धन तथा अन्य साधनों के उपायों की योजना ही बजट होते हैं। बजट वास्तव में ऐसी योजना है जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति के लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं और इन्हें प्राप्त करने के लिए समय, धन और अन्य साधनों के व्यय के अनुमान किये जाते हैं। बजट को नियोजन एवं नियन्त्रण की महत्वपूर्ण युक्ति माना जाता है। बजट हमेशा भविष्य की व्यावसायिक क्रियाओं के लिये तैयार किये जाते हैं। बजटों के कारण संस्था के प्रबन्धक वास्तविक प्रगति को बजट द्वारा निर्धारित प्रगति से तुलना कर सकते हैं और गलतियों के लिये उत्तरदायित्व का निर्धारण कर सकते हैं। अगर बजट बना लिये जाते हैं तो अलग-अलग विभागों के लक्ष्यों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है।
(7) नियम- नियमों का निर्धारण भी नियाजन प्रक्रिया का एक अंग है। नियम एक ऐसा पूर्ण निर्णय है। जो यह बतलाता है कि अमुक परिस्थितियों में क्या करना है और क्या नहीं करना है। नियम कार्यविधि से – एक अर्थ में भिन्न होते हैं क्योंकि इनमें कार्य करने का क्रम नहीं दिया जाता। नियम एक प्रकार से योजनाओं के ही सबसे सरल रूप होते हैं। एक नियम के अनुसार एक निश्चित अवधि में एक निश्चित क्रिया की जानी चाहिए।
(8) कार्य करने के सर्वोत्तम तरीके का चयन करना- किसी भी योजना के अनेक युक्तिपूर्ण विकल्प होते हैं। योजना बनाते समय विभिन्न वैकल्पिक तरीकों की खोज की जाती है और फिर उनका परीक्षण एवं तुलनात्मक मूल्यांकन किया जाता है । विभिन्न विकल्पों के तुलनात्मक मूल्यांकन के पश्चात् कार्य करने के सर्वोत्तम तरीके का चुनाव किया जाता है। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्रबन्धक भिन्न-भिन्न कार्य मार्गों का तुलनात्मक मूल्यांकन करने तथा व्यवसाय के निर्णायक तत्वों को ध्यान में रखकर एक सर्वश्रेष्ठ कार्य-मार्ग का चुनाव कर लेते हैं।
(9) आवश्यक उपयोजनाओं का निर्माण- सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव हो जाने के बाद तथा पूरे व्यवसाय की योजना बन जाने के बाद विभिन्न विभागों की आवश्यक उपयोजनाओं का निर्माण किया जाता है।
(10) मोर्चाबन्दी – मोर्चाबन्दी एक ऐसी योजना है जो प्रतियोगिता की नीतियों से उत्पन्न विशेष परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिये बनायी जाती है। जब दो या दो से अधिक संस्थाएँ एक ही उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए प्रतियोगिता करती है तो वह इस बात का प्रयास करती है कि एकदूसरे की योजना का मुकाबला किया जावे। इस प्रकार एक अच्छी योजना वह है जो दूसरी संस्थाओं की योजनाओं को ध्यान में रखकर बनाई जावे । आज के युग में प्रबन्धकों को मोर्चाबन्दी करने में कुशल होना बहुत आवश्यक है। प्रबन्धकों को बाहरी मोर्चाबन्दी के साथ-साथ आन्तरिक मोर्चाबन्दी भी करनी पड़ती है।
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