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पूंजी का संचय या निर्माण (Capital Formation)
पूंजी निर्माण का अर्थ- पूंजी में होने वाली वृद्धि को पूंजी निर्माण’ कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, पूँजी निर्माण या संचय से अभिप्राय मशीनों, यन्त्रों, कच्चे माल, सामाजिक ऊपरी लागत तथा मनुष्य की उत्पादन क्षमता में वृद्धि करने से है। इसके लिए बचत का निवेश किया जाता है। जतः पूंजी का जन्म तभी होता है जबकि मनुष्य अपनी बचत को किसी उत्पादन कार्य (धनोत्पादन) में लगाता है। इस प्रकार पूंजी के निर्माण संचय के अन्तर्गत दो आती है—(1) धन की बचत तथा (II) बचत का उत्पादन कार्य में प्रयोग (निवेश करना)। बेनहम के शब्दों में कोई देश एक निश्चित अवधि में अपनी पूंजी में जितनी वृद्धि करता है उसे उस अवधि में होने वाला पूंजी निर्माण कहा जाता है।
पूँजी के निर्माण को प्रभावित करने वाले तत्त्व
किसी देश में पूंजी का संचय बचत की मात्रा पर निर्भर करता है बचत जितनी अधिक होगी, पूंजी का संचय भी उतना ही अधिक होगा। बचत की मात्रा या पूँजी का संचय मुख्यतया तीन घटकों (कारकों) पर निर्भर होता है–(I) बचत करने की शक्ति, [II] बचत करने की इच्छा, तथा (III) बचत करने की सुविधाएँ।
(I) बचत करने की शक्ति (Power to Save)-किसी देश में बचत करने की शक्ति मुख्यतया निम्न तत्त्वों पर निर्भर करती है-
(1) आय की मात्रा-किसी देश में लोगों की आय के अधिक होने पर उनकी बचत करने की शक्ति अधिक होगी। इसके विपरीत, आय का स्तर निम्न होने पर लोग कठिनाई से अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं की ही सन्तुष्टि कर पाते हैं जिस कारण वे पर्याप्त मात्रा में बचत नहीं कर पाते।
(2) प्राकृतिक संसाधन तथा उनका उचित उपयोग–किसी देश में धन का उत्पादन वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों की मात्रा तथा गुण पर निर्भर करता है। प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता तथा उनका उचित विदोहन (exploitation) होने पर राष्ट्रीय आय अधिक होगी। परिणामस्वरूप लोगों की बचत करने की शक्ति अधिक होगी।
(3) धन तथा आय का वितरण-धन तथा आय का समान वितरण बचत करने की शक्ति को घटाता है। इसके विपरीत, धन का असमान वितरण बचत शक्ति को बढ़ाता है क्योंकि देश के अधिकांश घन के कुछ ही लोगों के हाथों में केन्द्रित होने पर वे अधिक बचत कर सकते हैं। यह बात अल्प-विकसित तथा कम आय वाले देशों में विशेष रूप से लागू होती है।
(4) व्यय करने का ढंग—जो व्यक्ति अपनी आय को विवेकपूर्ण ढंग से व्यय करते हैं उनकी बचत करने की शक्ति अधिक होती है। किन्तु जो व्यक्ति अपनी आय को अन्धाधुन्च तथा अनावश्यक वस्तुओं व कार्यों पर व्यय कर डालते हैं वे बचत नहीं कर ते अथवा कम कर पाते हैं।
(5) सरकारी नीतियाँ- सरकार की कराधान नीति (taxation policy) का लोगों की बचत शक्ति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यदि सरकार आय-कर, सम्पत्ति कर, मृत्यु कर आदि को ऊँची दरों से वसूल करती है तो लोगों की बचत-शक्ति घट जाएगी। इन करों की दरों के कम होने पर लोगों की बचत-शक्ति बढ़ जाएगी। इसके अतिरिक्त सरकार की राष्ट्रीयकरण सम्बन्धी नीति का पूंजी निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
(6) कीमत-स्तर- यदि देश में वस्तुएँ तथा सेवाएँ महँगी हैं तो बचत-शक्ति कम होगी। इसके विपरीत, वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों के कम होने पर बचत-शक्ति अधिक होगी।
(7) व्यापार की मात्रा-किसी देश का आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार जितना अधिक उन्नत होगा वहीं लोगों की आय भी अधिक होगी। परिणामतः उनकी बचत-शक्ति अधिक होगी।
(8) आर्थिक विकास का स्तर- कोई राष्ट्र जितना अधिक विकसित होगा वहाँ राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय उतनी ही अधिक होगी। फलस्वरूप लोगों की बचत करने की शक्ति अपेक्षाकृत अधिक होगी।
(II) बचत करने की इच्छा (Will to Save)-कोई व्यक्ति बचत तभी कर पाता है जबकि उसमें बचत करने की इच्छा होती है। बचत करने की इच्छा निम्न बातों पर निर्भर करती है-
(1) दूरदर्शिता- भविष्य सदैव अनिश्चित होता है। इसलिए बुद्धिमान तथा दूरदर्शी व्यक्ति भविष्य में बेकारी, बीमारी, दुर्घटना, वृद्धावस्था, व्यापार में बाटा आदि का सामना करने के लिए वर्तमान में बचत करते हैं। इस प्रकार दूरदर्शिता बचत करने की इच्छा को बढ़ाती है।
(2) पारिवारिक मोह-स्वभाव से ही मनुष्य में अपने परिवार के प्रति स्नेह होता है। अपने जीवन काल में ही वह अपने परिवार के अन्य सदस्यों को सुखी देखना चाहता है। इसके लिए उसे अपने बच्चों तथा परिवार के अन्य सदस्यों की शिक्षा, विवाह आदि की विन्ता रहती है। यह चिन्ता उसे बचत करने के लिए प्रेरित करती है ताकि उसकी मृत्यु के बाद भी उसका परिवार संचित धनराशि से मुखी जीवन व्यतीत कर सके।
(3) व्यक्ति का स्वभाव-कुछ व्यक्ति स्वभाव से कंजूस होते हैं और रूखा-सूखा खाकर भी बचत करते हैं। देखा जाए तो बचत करना ऐसे लोगों की आदत होती है। इसके विपरीत, खर्चीले स्वभाव के व्यक्ति बचत नहीं कर पाते।
(4) सामाजिक प्रतिष्ठा पाने की इच्छा-आजकल जिस व्यक्ति के पास जितना अधिक धन होता है समाज में उसका उतना ही अधिक सम्मान तथा प्रभाव होता है। अतः कुछ व्यक्ति समाज में अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने तथा अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए बचत द्वारा अधिक धन का संचय करते हैं।
(5) ब्याज कमाने का उद्देश्य- अनेक व्यक्ति व्याज कमाने के लिए भी बचत करते हैं। व्याजदर जितनी अधिक होती है ऐसे लोग उतनी ही अधिक बचत करते हैं।
(6) व्यवसाय में सफलता की इच्छा- कोई उद्योग या व्यवसाय प्रारम्भ करने तथा उसका विस्तार करने के लिए पूंजी की आवश्यकता पड़ती है। वस्तुतः किती व्यवसाय में सफलता, अन्य बातों के अलावा, उसमें लगाई गई पूंजी पर भी निर्भर करती है। में पूंजी जितनी अधिक होगी लाभ-प्राप्ति की सम्भावना उतनी ही अधिक होगी। अतः व्यवसाय में सफलता पाने के लिए कुछ लोग अधिकाधिक बचत करते हैं।
(7) सामाजिक सुरक्षा- यदि किसी देश में सामाजिक सुरक्षा की अच्छी व्यवस्था है तो यहाँ के व्यक्तियों में बचत की इच्छा कम होगी। जिस देश में सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी योजनाओं का अभाव होता है। यहाँ पर लोग बीमारी, बेकारी, वृद्धावस्था आदि का सामना करने के लिए वर्तमान में बचत करते हैं।
(8) सामाजिक रीति-रिवाज- सामाजिक रीति-रिवाजों के कारण लोगों को अपनी लड़कियों का विवाह, बुजुर्ग व्यक्तियों की मृत्यु पर प्रतिभोज आदि अवसरों पर बड़ी मात्रा में धनराशि व्यय करनी पड़ती है। ऐसे कार्यों को ठीक प्रकार से सम्पन्न करने के लिए भी लोग बचत करते हैं।
(9) परोपकार की भावना- कुछ व्यक्ति परोपकार, लोकहित तथा धर्म के कार्यों पर धनराशि व्यय करने के लिए भी बचत करते हैं। उदाहरणार्थ, कुछ लोग मन्दिर, धर्मशाला, गऊशाला, अनाथालय, विद्यालय आदि की स्थापना करने की भावना से बचत करते हैं।
(III) बचत करने की सुविधाएँ (Facilities to Save)—किसी देश में पूजी निर्माण के लिए बचत करने की शक्ति तथा इच्छा के अतिरिक्त वहाँ बचत करने की सुविधाओं का भी होना आवश्यक है। पूंजी निर्माण के लिए निम्नांकित सुविधाएं होनी चाहिए-
(1) शान्ति और सुरक्षा- यदि देश में ज्ञान्ति व सुरक्षा का वातावरण है तो वहाँ बचत को प्रोत्साहन मिलेगा। इसके विपरीत, यदि देश में दंगे-फसाद होते रहते हैं, लोगों को जान व माल की सुरक्षा का उचित प्रबन्ध नहीं है या बाह्य आक्रमण का भय बना रहता है तो लोग बचत करने के बजाय अपनी आय को वर्तमान आवश्यकताओं की सन्तुष्टि पर ही व्यय कर देंगे।
(2) मुद्रा का प्रयोग- किसी देश में बचत को मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि वहाँ मुद्रा का कितना तथा किस प्रकार प्रयोग किया जाता है। पिछड़े देशों में मुद्रा के साथ-साथ वस्तु विनिमय प्रणाली का भी प्रचलन होता है। वस्तु-विनिमय प्रणाली में बचत केवल वस्तुओं के रूप में की जा सकती है। चूंकि वस्तुएँ नाशवान होती हैं इसलिए उनका संचय ठीक प्रकार से तथा दीर्घ काल तक नहीं किया जा सकता है। अतः ऐसे देशों में बचत कम हो पाती है।
(3) बैंकिंग तथा वित्तीय संस्थाओं का विकास-वचनों को प्रोत्साहन तभी मिलेगा जब देश में बचतों को एकत्रित करने वाली संस्थाओं, जैसे बैंक, बीमा कम्पनियों डाकघर आदि का समुचित विकास होगा। बैंकों, डाकघरों आदि में बचतों को न केवल सुरक्षित रखा जा सकता है बल्कि उन पर ब्याज के रूप में जाय भी प्राप्त होती है।
(4) निदेश की सुविधाएँ-पूंजी के निवेश के लिए देश में उद्योग, व्यापार, व्यवसाय आदि का विस्तार होना चाहिए।
(5) योग्य व ईमानदार व्यापारी तथा उद्योगपति- जिस देश में योग्य व ईमानदार व्यापारी तथा उद्योगपति होते हैं, वहाँ पूंजी-संचय को प्रोत्साहन मिलता है, क्योंकि लोग उनकी कुशलता तथा ईमानदारी में विश्वास करके अपनी बचत को बिना संकोच के उन्हें प्रदान कर देते हैं।
(6) मुद्रा के मूल्य में स्थायित्व- वर्तमान युग में पूंजी का संचय (बचत) मुद्रा के रूप में ही किया जाता है। मुद्रा के मूल्य के स्थिर रहने से बचत को प्रोलाहन मिलता है। इसके विपरीत, किसी देश में कीमतों में वृद्धि होने पर मुद्रा की क्रय-शक्ति घट जाती है। इसका बचत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
(7) राष्ट्रीयकरण का भय-यदि देश में राष्ट्रीयकरण (अपनाई जा रही है अथवा निकट भविष्य में अपनाए जाने की आशंका है तो उद्योगपतियों व व्यापारियों की बचत तथा निवेश करने की प्रवृत्ति कम होगी।
(8) अनुकूल सरकारी नीतियाँ- किसी देश में पूंजी निर्माण के लिए सरकार का सहयोग परमावश्यक होता है। सरकार विभिन्न उपायों द्वारा पूंजी निर्माण प्रक्रिया को तीव्र कर सकती है–(1) सरकार छोटे-छोटे कस्बों तथा गाँवों में बैंकों तथा डाकघरों की अधिकाधिक शाखाएं खुलवाकर जनता की बचतों को एकत्रित करा सकती है। (ii) सरकार नए उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान करके तथा उन्हें करों से मुक्त करके पूंजी निर्माण में वृद्धि कर सकती है। (iii) सरकार द्वारा परिवहन, संवादवाहन तथा शक्ति के साधनों के विकास से देश में कृषि, उद्योग-धन्धों तथा व्यापार का विकास व विस्तार होता है। परिणामतः देश में पूंजी का स्टॉक निरन्तर बढ़ता जाता है।
(9) प्राकृतिक आपदाएँ– यदि किसी देश में बारम्बार भूकम्प, बाढ़, सूखा आदि प्राकृतिक विपत्तियाँ (natural calamities) में आती रहती हैं तो वे देश के आर्थिक विकास में बाधक होती है जिस कारण निवेश प्रेरणा के घटने तथा बचत सुविधाओं में कमी होने के कारण पूंजी निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
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