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प्रबन्ध की प्रकृति | Nature of Management in Hindi

प्रबन्ध की प्रकृति | Nature of Management in Hindi
प्रबन्ध की प्रकृति | Nature of Management in Hindi

प्रबन्ध की प्रकृति की विवेचना कीजिए।

प्रबन्ध की प्रकृति (Nature of Management)

एक दर्शन के रूप में प्रबन्ध एक निरन्तर परिवर्तनशील धारणा है। सामूहिक क्रियाओं में बदलते हुए स्वरूप के साथ-साथ इस शब्द ने नया परिवेश पाया है। यही कारण है कि प्रबन्ध की प्रकृति के सम्बन्ध में विभिन्न प्रबन्ध विद्वानों ने समय-समय पर विभिन्न विचार प्रकट किए हैं जिनको अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हम निम्न वर्गों में रख सकते हैं-

(1) प्रबन्ध कला अथवा विज्ञान के रूप में (Management as an Art or a Science ) – प्रबन्ध कला है या विज्ञान अथवा दोनों ही है, इस तथ्य की सत्यता का पता लगाने के लिये यह आवश्यक है कि पहले हम कला व विज्ञान दोनों का अलग-अलग अध्ययन करें।

प्रबन्ध कला के रूप में (Management as an Art) – किसी भी कार्य को सर्वोत्तम विधि से सम्पन्न करना ही कला है। प्रबन्ध भी एक ऐसी क्रिया है। इसमें संस्था में लगे व्यक्तियों से प्रभावशाली ढंग से कार्य करना होता है इसके लिये प्रबन्धक समय-समय पर महत्वपूर्ण निर्णय लेते हैं अर्थात् नियोजन, संगठन, नियन्त्रण, नियुक्तियाँ, निर्देशन एवं अभिप्रेरणा आदि अनेक क्रियाएँ करते हैं। संस्था के कर्मचारियों को पूर्ण सन्तुष्ट रखते हुये अधिक कार्य कुशलता से कार्य करवाना कुशल प्रबन्धक का ही कार्य है और वह वास्तव में एक कला है जो कि दीर्घकालीन अनुभव एवं अभ्यास से आती है। आधुनिक तीव्र प्रतिस्पर्धा एवं भौतिकवादी युग में प्रबन्ध के लिये यह आवश्यक हो गया है कि नवीन वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करे अन्यथा अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो सकतीं। प्रबन्ध सिद्धान्तों, नियमों, तकनीकी विश्लेषणों एवं विधियों को प्रयोग में लाना ही प्रबन्ध को कला के रूप में मान्यता प्रदान करता है।

प्रबन्ध विज्ञान के रूप में (Management as a Science) – किसी विषय का व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध अध्ययन विज्ञान है। यह कारण एवं परिणाम के सम्बन्धों पर आधारित सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है, जो सर्वव्यापी होते हैं। इसी प्रकार प्रबन्ध एक क्रमबद्ध ज्ञान है, जो अध्ययन एवं प्रयोगों पर आधारित है, निरन्तर अनुसंधान के फलस्वरुप प्रबन्ध विज्ञान के सिद्धान्त भी निरन्तर बढ़ते जा रहे है, जिनके ज्ञान के अभाव में कोई भी प्रबन्धक अपने प्रबन्ध कार्य को ठीक प्रकार से नहीं कर सकता। परन्तु इसके फलस्वरुप भी प्रबन्ध को भौतिक विज्ञान एवं रसायन विज्ञान के सिद्धान्तों की तरह सार्वभौमिकता प्राप्त नहीं है। इसीलिए प्रबन्धकीय विज्ञान को सामाजिक विज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है।

प्रबन्ध कला एवं विज्ञान दोनों के रूप में (Management as both as Art and Science) – प्रबन्ध विज्ञान ही नहीं वरन् कला भी है। प्रबन्ध जहाँ विज्ञान के रूप में सिद्धान्तों एवं नियमों का प्रतिपादन करता है वहाँ कला के रूप में इन सिद्धान्तों एवं नियमों को व्यावहारिक रूप में प्रयोग करता है। एक कुशल प्रबन्धक के लिए विज्ञान एवं कला दोनों पक्ष उसी प्रकार आवश्यक हैं जिस प्रकार एक चिकित्सक के लिए औषधिशास्त्र का ज्ञान एवं उसका उपयोग दोनों आवश्यक है। रॉबट एन० हिलकर्ट के अनुसार, “ प्रबन्ध क्षेत्र में कला एवं विज्ञान दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं।” इस प्रकार यह कहा जा सकता है प्रबन्ध एक ऐसी क्रिया है जिससे पूर्वनिर्धारित उद्देश्यों को कला एवं विज्ञान के सहयोग से प्राप्त किया जा सकता है। अतः यह स्पष्ट है कि प्रबन्धकीय कौशल के लिए प्रबन्ध, कला एवं विज्ञान का एक महत्वपूर्ण सम्मिश्रण है।

(2) प्रबन्ध जन्मजात प्रतिभा के रूप में (Management as an inborn Ability) – प्रबन्धकीय कौशल एवं ज्ञान जन्मजात होता है जो व्यक्ति को अपने पूर्वजों से विरासत में मिलता है। प्रबन्ध की यह पद्धति 18 वीं शताब्दी में तो सही हो सकती है किन्तु आधुनिक युग में जहाँ प्रबन्धकीय प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति उद्योगों का सफल संचालन कर रहे है। यह कहना बिल्कुल तर्कपूर्ण तथा न्यायसंगत नहीं होगा कि प्रबन्ध एक जन्मजात प्रतिभा है। वास्तविकता तो यह है कि प्रबन्ध एक अर्जित प्रतिभा है, यद्यपि व्यक्तिगत रूचि तथा संस्कार कुशल प्रबन्धक बनाने में सहायक अवश्य होते हैं।

(3) प्रबन्ध एक प्रक्रिया के रूप में (Management as a Process) – कुछ प्रबन्ध विद्वानों ने प्रबन्ध को एक प्रक्रिया के रूप में माना है। इन विद्वानों के अनुसार, प्रबन्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें नियोजन, संगठन, समन्वय, अभिप्रेरणा तथा नियन्त्रण सम्मिलित हैं तथा इनका निष्पादन व्यक्तियों एवं साधनों के उपयोग द्वारा उद्देश्यों को निर्धारित एवं प्राप्त करने के लिये किया जाता है।

(4) प्रबन्ध एक पेशे के रूप में (Management as a Profession) – औद्योगिक क्रान्ति ने प्रबन्धकीय विचारधारा में परिवर्तन किया है जहाँ पहले प्रबन्ध को जन्मजात प्रतिभा समझा जाता था वहाँ आज प्रबन्ध को पेशे के रूप में समझा जाता है। वर्तमान समय में प्रबन्ध एक ऐसी कला के रूप में विकसित हुआ है जिसके लिए विशिष्ट ज्ञान और चातुर्य की आवश्यकता है और वह ज्ञान और चातुर्य एक निश्चित विधि से प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिये प्रबन्ध को पेशे के रूप में माना जाता है।

(5) प्रबन्ध एक प्रणाली के रूप में (Management as a System) – वर्तमान भीमकाय उत्पादन के युग में व्यावसायिक जटिलताओं पर विजय पाने के लिए संस्थाओं का प्रबन्ध पद्धति विचारधारा के आधार पर करना चाहिये। इस विचारधारा के अनुसार प्रत्येक संस्था के संगठन के व्यक्तियों का एक समूह होता है जिनमें परस्पर अनौपचारिक सम्बन्ध होता है इन व्यक्तियों में से प्रत्येक व्यक्ति अपना अलग-अलग उद्देश्य लेकर नहीं चलता अपितु संगठन के उद्देश्यों के अनुसार ही अपना कार्य करता है।

(6) प्रबन्ध एक सार्वभौमिक क्रिया के रूप में (Management as a Universal Activity) – कुछ प्रबन्धक विचारकों का मत है कि प्रबन्ध सार्वभौमिक क्रिया है अर्थात् प्रत्येक कार्य में प्रबन्ध तत्व आवश्यक है। इन विद्वानों के अनुसार, प्रत्येक व्यावसायिक तथा गैर व्यावसायिक संस्था को अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये तथा व्यवसाय के कुशल व सफल संचालन के लिये नियोजन, संगठन, समन्वय, निर्णयन तथा निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। प्रबन्ध तत्व स्कूल, कॉलेज, कृषि फार्म, सरकारी कार्यालय, व्यावसायिक संस्था, क्लब, गिरजाघर, मन्दिर, मस्जिद, खेल का मैदान आदि का अलग-अलग हो सकता है किन्तु उनमें अधिकांश बातें समान होती हैं इसीलिये विद्वानों ने प्रबन्ध को सार्वभौमिक क्रिया के रूप में माना है।

(7) प्रबन्ध एक निर्देशन के रूप में- प्रबन्ध एक निर्देशन ही है क्योंकि प्रबन्ध अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को कार्य सौंपने एवं उनका उत्तरदायित्व निर्धारित करने के पश्चात् समय-समय पर उनकी क्रियाओं का निर्देशन करता रहता है। आधुनिक प्रबन्ध अपना अधिकांश समय अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को निर्देशन देने में ही व्यय करता है। इसी कारण प्रबन्ध को मूलतः निर्देशन कहा जाता है।

(8) प्रबन्ध एक सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में (Management as Responsibility)— आज औद्योगिक क्षेत्र के बढ़ते हुए स्वरूप के साथ-साथ प्रबन्ध न केवल अपने स्वामी के a Social प्रति उत्तरदायी है अपितु समूचे समाज के प्रति भी उत्तरदायी है। अन्य शब्दों में प्रबन्ध का मूल उद्देश्य केवल लाभ कमाना ही नहीं है बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों की रूचि को ध्यान में रखते हुए उन्हें न्यूनतम लागत पर श्रेष्ठ वस्तुएँ उपलब्ध कराना है।

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Anjali Yadav

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