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भारतीय ग्रामीण जीवन में सामाजिक परिवर्तन (Social Change in Indian Rurai Life)
“यद्यपि नगरीय समुदायों को अपेक्षा ग्रामीण समुदाय कम गतिशील होते हैं तथापि भारतीय समुदाय के रीति-रिवाज निरन्तर परिवर्तनशील है।”
-पटेल
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। परिवर्तन जीवन की मांग है। जहाँ कहीं जीवन है वहाँ परिवर्तन भी है। पूर्ण गतिहीनता का दूसरा नाम मृत्यु है। अतः मानव समुदायों में परिवर्तनों का आना स्वाभाविक है। यद्यपि नगरीय समुदायों की अपेक्षा ग्रामीण समुदाय कम गतिशील होते हैं किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उनमें गति होती ही नहीं। ग्रामीण समुदाय भी निरन्तर परिवर्तनशील हैं, चाहे उनमें परिवर्तन की गति कितनी ही मन्द क्यों न हो।
भारतीय ग्रामीण जीवन में सामाजिक परिवर्तन
गत वर्षों में भारतीय ग्रामों के सामाजिक जीवन में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। मुख्य परिवर्तन निम्न हैं-
(1) जाति व्यवस्था— ब्रिटिश शासन काल में गांवों में जाति व्यवस्था को बड़ा धक्का लगा। ब्रिटिश आर्थिक नीति तथा नए कानूनों के कारण विभिन्न जातियाँ अपने परम्परागत व्यवसाय को छोड़कर अन्य व्यवसाय करने लगीं। बहुत से ब्राह्मण तथा क्षत्रिय भी खेती करने लगे। जातीय पंचायतों का नियन्त्रण ढीला पड़ने लगा। आजकल गाँवों में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति से ही निश्चित न होकर अपने व्यक्तित्व, आर्थिक स्थिति तथा कामों से भी निश्चित होती है। यद्यपि उच्च जाति का होने के कारण ब्राह्मण को लोग नमस्कार करते हैं, किन्तु नीची जाति का धनी व्यक्ति भी कम सम्मान नहीं पाता। कहीं-कहीं तो उसका सम्मान निर्धन ब्राह्मण की अपेक्षा अधिक होता है। सरकारी कानूनों तथा सरकारी नीतियों का सहारा पाकर नीची जातियाँ अब अपने को नोचा नहीं समझतीं।
किन्तु राजनीतिक प्रभाव में आकर इन दिनों अधिकांश जातियाँ अपना-अपना संगठन फिर से सुदृढ़ करने में लगी है। इधर कुछ जातियों ने अपनी सभाएं करके अपने कुछ औपचारिक संगठन भी बना लिए हैं जो उनके हितों को सुरक्षित रख सकें। इस प्रकार जब एक और जाति व्यवस्था दुर्बल हो रही है तब दूसरी ओर वह सुदृढ़ होती नजर आ रही है। निहित राजनैतिक स्वार्थों के कारण जातिवाद बढ़ रहा है। पिछले चुनावों में यह देखा गया कि अधिकतर लोगों ने अपनी जाति के उम्मीदवारों को ही मत दिए। फिर राजनीतिक दल भी ऐसे व्यक्तियों को टिकट देते हैं जिनकी जाति का उनके चुनाव क्षेत्र में बाहुल्य होता है। चुने हुए व्यक्ति भी अपनी जाति के लोगों को लाभ पहुंचाने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक स्वार्थों के कारण देश में जातिवाद बढ़ता जा रहा है।
(2) जजमानी व्यवस्था- जजमानी व्यवस्था निश्चित रूप से टूट रही है। जजमानी व्यवस्था पुरोहित द्वारा यजमान के शोषण पर आधारित थी। भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किए गए हैं। सरकार भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए सतत प्रयत्नशील रही है। अब पिछड़े वर्गों में धीरे-धीरे आत्म-सम्मान की भावना आती जा रही है और उनके अन्य जातियों से जजमानी के सम्बन्ध टूटते जा रहे हैं। दूसरे गाँवों में भी जब वस्तु विनिमय व्यवस्था के स्थान पर मुद्रा का प्रचलन होने से जजमानी व्यवस्था को धक्का लगा है। तीसरे, जाति-पंचायतों की शक्ति क्षीण होने के कारण व्यवसायों के जाति पर निर्भर न रहने के कारण भी यह व्यवस्था टूट रही है। फिर परिवहन सुविधाओं के बढ़ जाने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में गतिशीलता बढ़ती जा रही है तथा गांव के लोग शहरों में जाकर नौकरी करने लगे हैं। इन सब के कारण भी अब भी कहीं-कहीं जजमानी-व्यवस्था के चिन्ह विद्यमान हैं।
(3) परिवार- यद्यपि अब भी गाँव में संयुक्त परिवार (joint family) सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं किन्तु अब उनका स्थान एकाकी परिवार लेते जा रहे हैं। सदस्यों पर परिवार का नियन्त्रण भी समाप्त होता जा रहा है।
(4) विवाह- परिवार के समान ही विवाह की संख्या भी परिवर्तित होती जा रही है। विवाह के क्षेत्र का विस्तार होता जा रहा है। यद्यपि जाति से बाहर विवाहों के उदाहरण अब भी बहुत कम है, किन्तु पास के गाँवों में और एक ही गाँव में भी विवाह होने लगे हैं। विवाह अब भी अधिकतर माता-पिता ही तय करते हैं किन्तु अब लड़के-लड़की विशेषकर लड़के की राय लेना बरा नहीं माना जाता। प्रेम-विवाहों और तलाकों की संख्या अभी भारत के गाँवों में नगण्य है। वर-चुनाव के आधार में भी कुछ परिवर्तन हो रहा है। यद्यपि विवाह के मामलों में अब खानदान को महत्व दिया जाता है, फिर भी लड़के की पढ़ाई, आर्थिक स्थिति तथा लड़के के रूप, गुण आदि को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। विवाहों में फिजूलखर्ची घटती जा रही है। अनेक कारणों से अब बारातें छोटी होती हैं। विवाहों के रीति-रिवाज में निरन्तर परिवर्तन हो रहे हैं। विवाह अब बड़ी आयु में ही किए जाते हैं। बाल विवाह की प्रथा लगातार घटने पर है। अब विधवा-विवाह भी होने लगे हैं।
(5) रीति-रिवाज़- ग्रामीण समाज में रीति-रिवाजों में निरन्तर परिवर्तन हो रहे हैं। जाति के पंचों का सम्मान घटता जा रहा है। मृत्यु, नामकरण आदि संस्कारों के अवसरों पर खर्चे कम हो रहे हैं। दहेज के कारण विवाह के खर्चे पढ़ रहे हैं। गाँवों में पर्दे का रिवाज अब भी काफी है किन्तु उसका कठोरता से पालन नहीं किया जाता। बालकों को पढ़ाने का रिवाज़ बढ़ता जा रहा है। लड़कियाँ भी पढ़ने लगी है। शिक्षा के प्रसार से अन्धविश्वास कम होता जा रहा है।
(6) खान-पान सम्बन्धी आदते- विभिन्न जातियों में परस्पर खान-पान सम्बन्धी नियम भी ढीले पड़ते जा रहे हैं। गाँवों में सब्जी, गेहूं आदि का प्रयोग निरन्तर बढ़ रहा है। चाय, धीनी, तम्बाकू आदि का प्रयोग गाँवों में निश्चित ही पहले की अपेक्षा बढ़ा है। अब अधिकांश ग्रामीण परिवारों में साल भर चाय पी जाती है। गाँवों में वनस्पति घी का प्रयोग भी बढ़ता जा रहा है।
(7) वेशभूषा- गाँव के स्त्री-पुरुष तथा बच्चों के पहनावे में परिवर्तन होता जा रहा है। पुरुषों में साफे के स्थान पर गांधी टोपी का रिवाज़ बढ़ रहा है। लड़कियों को फ्राक पहनाई जाती है। लड़के हॉफ पेन्ट पहनने लगे हैं। औरते चलाउज पहनने लगी है। लहंगों का रिवाज़ कम होता जा रहा है। अब लोग अधिकतर मिल का कपड़ा पहनते हैं जबकि पहले हाथ का बुना हुआ कपड़ा पहनते थे। गाँव की स्त्रियों में कृत्रिम सिल्क के कपड़ों, रोल्ड-गोल्ड के आभूषण तथा सस्ते प्रसाबन की खपत बढ़ती जा रही है। चाँदी के भारी जेवरों का रिवाज़ कम होता जा रहा है। पढ़े-लिखे नवयुवक कोट-पेन्ट पहने देखे जा सकते हैं। खादी का अत्यधिक प्रचार किए जाने के बावजूद गाँवों में मोटे कपड़े की खपत घटती और बारीक कपड़ों को खपत बढ़ती जा रही है।
(8) आवास- यद्यपि गाँवों में आवास की दशा अब भी बहुत खराब है किन्तु फिर भी मकान पहले से बेहतर होते जा रहे हैं। गाँवों में पक्के मकानों की संख्या बढ़ती जा रही है। मकान पहले से अधिक हवादार और साफ दिखाई पड़ते हैं। मकानों में आराम के साधन पहले से अधिक है। जहाँ जहाँ गाँवों में बिजली पहुंच गई है वहाँ समृद्ध परिवारों में रेडियो, टेलीविजन और बिजली के पंखे देखे जा सकते हैं। मकानों की नक्काशी का रिवाज कम होता जा रहा है। मकान बनाते समय अब रोशनी और हवा का भी ध्यान रखा जाता है। अधिकतर नए घरों में रसोई और उसके पुत्र निकलने की जगह देखी जा सकती है। कुछ घरों में अलग गुसलखाने भी मिलते हैं। गाँव में हाथ के नलों का रिवाज़ भी अब बढ़ता जा रहा है, परन्तु गाँवों में अब भी अधिकतर घरों में शौचालय नहीं होते। पहले घरों में फर्श कच्चे होते थे, अब बहुत से घरों में इंटों के या सीमेंट के फश देखे जा सकते हैं। मकानों में सीमेंट का इस्तेमाल अब निरन्तर बढ़ता जा रहा है। मकानों की छतें पहले फूस व खपरेल को होती थी, जब छतें पक्की होने लगी हैं। सम्पन्न परिवारों में मकानों की बैठकों में मेज-कुर्सी आदि देखी जा सकती हैं। पहले मकानों में देवी-देवताओं के ही अधिक दिखलाई पड़ते थे, अब गाँधी जी, सरदार पटेल, पं० नेहरू तथा अन्य नेताओं के चित्र भी देखे जा सकते हैं। पहले अधिकतर रोशनी के लिए कड़वे तेल का दिया जलाया जाता था, अब मिट्टी के तेल की लालटेन का रिवाज़ अधिक है। अनेक गाँवों में बिजली भी पहुँच गई है।
(9) सफाई- यद्यपि गाँवों में अब भी सफाई का बहुत कम ध्यान रखा जाता है, परन्तु फिर भी इस दिशा में पहले से कहीं अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। कभी-कभी स्कूलों, पंचायतों, विकास खण्डों अथवा अन्य सार्वजनिक संस्थाओं की ओर से पूरे गाँव की सफाई की जाती है। व्यक्तिगत सफाई की ओर भी पहले से अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। गाँव में नहाने और कपड़े धोने के साबन की खपत बढ़ती जा रही है। गोबर की खाद बनाने का प्रचार बढ़ने से अब गोबर और कूड़ा गलियों में सड़ता कम दिखलाई पड़ता है, परन्तु कुल मिलाकर अब भी गाँवों में सफाई की दिशा में थोड़ी ही उन्नति हुई है।
(10) रोग- सफाई में उन्नति होने पर तथा गाँवों में डॉक्टरों की संख्या बढ़ जाने से ग्रामीण जनता के स्वास्थ्य में सुधार हुआ है। यद्यपि औषधीय सुविधाएं पहले से निश्चित ही अधिक हैं, परन्तु दूसरी ओर नई-नई बीमारियाँ भी बढ़ी हैं। सरकार द्वारा सन्तति-निरोध और परिवार नियोजन के प्रचार के बावजूद भी अभी गाँवों में इस दिशा में विशेष जागृति नहीं फैली है, परन्तु गर्भ-निरोध के आसान उपायों के सुलभ होने से स्त्रियों के स्वास्थ्य की दशा पहले से अवश्य ही सुधरी है। देश में खाद्य समस्या के बने रहने के कारण गाँव के गरीब लोगों को पौष्टिक और पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता, उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। सरकार की ओर से टीकों और पेटेन्ट दवाइयों का प्रबन्ध होने से चेचक, मलेरिया आदि की रोकथाम अवश्य हुई है। पर्दे की प्रथा के घटने तथा मकानों की दशा सुधरने से स्त्रियों का स्वास्थ्य पहले से कुछ अच्छा कहा जा सकता है, परन्तु दूसरी ओर चाय, तम्बाकू, वनस्पति घी आदि का बढ़ता हुआ प्रयोग ग्रामीण लोगों के स्वास्थ्य के स्तर को गिरा रहा है।
(11) साक्षरता- गाँवों में स्त्री-पुरुष, लड़के-लड़कियाँ सभी में साक्षरता बढ़ रही है। बुनियादी शिक्षा तथा समाज शिक्षा बढ़ती जा रही है। अनेक राज्य तरकारे प्रत्येक गाँव में प्रत्येक बालक-बालिका के लिए मुफ्त अनिवार्य शिक्षा का आयोजन करने के लिए प्रयत्नशील हैं। गाँव के बहुत से युवक उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए नगरों में आने लगे हैं। बड़े-बड़े गाँवों में केवल हाई स्कूल ही नहीं, बल्कि इण्टरमीडिएट कॉलिज भी देखे जा सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक ग्रामीण संस्थाएँ, कृषि कॉलिज और डिग्री कॉलिज भी स्थापित किए गए हैं।
(12) आर्थिक क्षेत्र— गाँवों में रहन-सहन का स्तर बढ़ने से नई-नई वस्तुओं की माँग उत्पन्न हो रही है जिसके फलस्वरूप गाँवों में ऐसी वस्तुओं की दुकानें खुल रही हैं। शिक्षित ग्रामीण नवयुवकों का नौकरी की ओर अधिक झुकाब है। कृषि में आधुनिक औजारों का प्रयोग बढ़ रहा है। नए औजारों, नए बीजों और सहकारी तरीकों से कृषि उपज बढ़ी है। गाँवों में साख-समितियों, अनाज बैंकों और सहकारी बैंकों के खुलने से ग्रामीण ऋणग्रस्तता घटी है। सरकारी सहायता से कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिला है। प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है, परन्तु साथ ही चीजों के दाम भी बढ़े हैं। मध्यस्थों के हट जाने से किसानों तथा छोटे व्यवसायियों की दशा सुधरी है।
(13) राजनैतिक क्षेत्र- पंचायतों की स्थापना ने गाँधों में राजनीतिक चेतना बढ़ी है। वयस्क मताधिकार से गांव वाले भी सरकार के कार्यों की आलोचना करने लगे हैं। अब गावों में अखवार भी पहुंचते अखचार या रेडियों की सहायता से अब गाँव वालों का राजनैतिक ज्ञान बढ़ रहा है। परन्तु राजनतिक दलों ने गांव में फूट और गुटबन्दी को बढ़ावा दिया है। देश की आजादा के बाद अब गाँव वाले सरकारी कर्मचारियों से उतना नहीं डरते, जितना वे पहले डरते थे। पंचायतों के विद्यमान होने पर भी इधर गाँवों में मुकदमेबाजी बढ़ी है। राष्ट्रीय चेतना जागृत होने पर भी सामुदायिक भावना कम हुई है। सहकारिता के बढ़ने पर भी स्वार्थ तथा व्यक्तिवाद बढ़ता गया है।
(14) हरित क्रान्ति का प्रभाव- सन् 1967-68 तथा 1968-69 में देश में कृषि उत्पादन में असाधारण वृद्धि हुई जिसने भारतवासियों में एक नई आशा का संचार किया अनेक विद्वानों ने इस असाधारण वृद्धि को कृषि क्षेत्र में ‘हरित क्रान्ति’ (Green Revolution) के नाम से सम्बोधित किया। हरित क्रान्ति (Green Revolution) ने ग्रामीण जीवन में अनेक परिवर्तन किए हैं–(1) इस क्रान्ति के बाद से कृषि को एक लाभदायक व्यवसाय माना जाने लगा है। (ii) हरित क्रान्ति के फलस्वरूप यान्त्रिक खेती के क्षेत्र का विस्तार हुआ है जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में बेकारी फैलने का भय उत्पन्न हो गया है। (iii) इस क्रान्ति का लाभ मुख्यतः बड़े किसानों को ही मिला है, क्योंकि धन की कमी के कारण निर्धन किसान उन्नत बीज, रासायनिक खाद तथा कृषि यन्त्रों को पर्याप्त मात्रा में खरीदने में असमर्थ रहे हैं। (iv) हरित क्रान्ति ने मुख्यतः हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु के गांवों को ही प्रभावित किया है। हरित क्रान्ति के प्रभाव गेहूँ, मक्का, ज्वार तथा बाजरा तक ही सीमित रहे हैं। अतः हरित क्रान्ति से मुख्यतः इन फसलों की उगाने वाले किसानों को ही लाभ पहुंचा है।
(15) औद्योगीकरण के प्रभाव- सर्वप्रथम औद्योगीकरण (industrialisation) का अर्थ लिया जाए। संकुचित अर्थ में औद्योगीकरण’ का आशय निर्माण उद्योगों की स्थापना तथा इनके विकास से है। व्यापक अर्थ में औद्योगीकरण का आशय शक्ति, मशीनरी, आधुनिक तकनीक एवं संगठन-विधि के प्रयोग तथा पूंजी के बड़े पैमाने पर निवेश से है। देखा जाए तो औद्योगीकरण एक प्रकार से पूंजी के गहन तथा व्यापक प्रयोग की प्रक्रिया है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत देश का तीव्रता से औद्योगीकरण हुआ है। इस औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों के सामाजिक जीवन में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। औद्योगीकरण के फलस्वरूप गाँवों की आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई है, ग्रामीण प्रथाएँ तथा परम्पराएँ टूटने लगी हैं तथा ग्रामीण क्षेत्रों में जीवनयापन से जो सन्तोष मिलता था उसमें बहुत कमी आई है। औद्योगीकरण के कारण परम्परागत धन्धों तथा कुटीर व शिल्प उद्योगों का विनाश होता गया है।
औद्योगीकरण के कारण जाति व्यवस्था कमजोर होती गई है। बड़े-बड़े कारखानों में विभिन्न जातियों के लोग साथ-साथ काम करते रहते तथा खाते-पीते हैं। औद्योगीकरण के कारण संयुक्त परिवार छोटे होते गए हैं तथा एकाकी परिवारों की संख्या निरन्तर बढ़ती गई है। गाँव छोड़कर जो व्यक्ति शहर में जाकर उद्योग-धन्धों में लग जाते हैं, वे शहरों में ही अपना परिवार बसाकर रहने लगते हैं।
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