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भारत में पूँजी निर्माण (Capital Formation in India)
भारत एक विकासशील राष्ट्र है जहाँ श्रम का बाहुल्य किन्तु पूंजी की कमी है। विकसित राष्ट्रों की तुलना में भारत में पूँजी निर्माण की दर निम्न है जिस कारण देश का आर्थिक विकास वांछित गति से नहीं हो सका है। भारत में पूंजी निर्माण सम्बन्धी आंकड़ों का संकलन मुख्यतया केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन (CSO) तथा रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा किया जाता है। विदेशी पूंजी के अन्त: प्रवाह को ध्यान में रखकर सकल घरेलू पूंजी निर्माण की दर को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है।
भारत में पूंजी निर्माण की धीमी प्रगति के कारण
भारत में पूंजी की कमी अथवा पूंजी निर्माण की मन्द प्रगति के लिए मुख्यतया निम्न कारण उत्तरदायी हैं-
(I) बचत करने की शक्ति या योग्यता का अभाव-देश की जनता में बचत करने की शक्ति में कमी के प्रमुख कारण निम्नवत् हैं-
(1) निम्न प्रति व्यक्ति आय- स्वतन्त्रता प्राप्ति के लगभग 60 वर्ष के बाद भी भारत में अत्यधिक निर्धनता की स्थिति पाई जाती है। देश की जनसंख्या की तुलना में कुल राष्ट्रीय उत्पादन काफी कम है जिस कारण प्रति व्यक्ति आय बहुत कम है। अभी भी करोड़ों व्यक्ति निर्धनता की रेखा से नीचे जीवनयापन करते हैं। योजना आयोग द्वारा गठित सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली समिति ने दिसम्बर 2009 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस समिति ने उपभोग-व्यय के आधार पर वर्ष 2004-05 में देश की 37% जनसंख्या को निर्धनता-रेखा से नीचे माना है। देश में आय के अत्यन्त निम्न स्तर के कारण करोड़ों लोगों में बचत करने की सामर्थ्य ही नहीं है।
(2) धन का असमान वितरण-भारत में धन व आय के वितरण में भारी असमानता पाई जाती है जिस कारण समाज दो वर्गों में बंटा हुआ है। धनी वर्ग सम्पन्न होने के कारण पर्याप्त बचत कर सकता है किन्तु अपनी आय के एक बड़े भाग को वह अनुत्पादक कार्यों पर व्यय कर देता है। इसके विपरीत, निर्धन वर्ग की आय इतनी कम होती है कि वह बचत करने की स्थिति में ही नहीं होता।
(3) प्रदर्शन प्रभाव-अपने से अधिक सम्पन्न लोगों की महँगी उपभोग-आदतों को अपना लेना उपभोग क्षेत्र में प्रदर्शन प्रभाव’ (Demonstration Effect) कहलाता है। गत वर्षों में भारतवासियों का विकसित राष्ट्रों से सम्पर्क निरन्तर बढ़ा है। इसके परिणामस्वरूप देश में महँगी कारों, घड़ियों, फर्नीचर, टीवी कैमरों, ज्वैलरी आदि की माँग निरन्तर बढ़ी है जिसका घरेलू बचत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
(4) करों की अधिकता–देश में विकास योजनाओं को पूरा करने के लिए जनता पर विभिन्न प्रकार के भारी कर लगाए गए हैं। इससे जनता की बचत क्षमता कम हुई है जिस कारण पूँजी निर्माण की गति धीमी हुई है।
(5) जनसंख्या में तीव्र वृद्धि- भारत में वर्ष 1991 से 2001 तक की अवधि में जनसंख्या में लगभग 18 करोड़ की वृद्धि हुई, अर्थात् जनसंख्या वृद्धि का प्रतिशत औसत 1.8 रहा जो बहुत अधिक है। विकास योजनाओं के कारण जो प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है वह जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण लोगों के भरण-पोषण पर ही व्यय हो जाती है। परिणामतः बचतों तथा पूँजी निर्माण में कोई विशेष वृद्धि नहीं हो पाती।
(6) मुद्रा प्रसार- पंचवर्षीय योजनाओं में बजट के घाटे को पूरा करने के लिए घाटे की वित्त व्यवस्था को अपनाया गया है। इससे देश में मुद्रा-प्रसार (inflation) के कारण महँगाई में निरन्तर वृद्धि हुई है। कीमतों में वृद्धि से उपभोग-व्यय बढ़ा है जिसका लोगों की बचत क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
(II) बचत करने की इच्छा में कमी–निम्नलिखित कारण भारत में बचत करने की इच्छा को कम करते हैं-
(7) परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज-अधिकांश जनता सामाजिक परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों पर पर्याप्त धनराशि व्यय कर देती है जिस कारण बचत हतोत्साहित होती है।
(8) रूढ़िवादी प्रवृत्ति- देश की जनता में व्याप्त अन्धविश्वास, धार्मिक प्रवृत्तियों आदि के कारण उपभोग-व्यय बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त, अनेक देशवासी ‘सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श में विश्वास करते हैं। इन कारणों से बचत करने की इच्छा घटती है।
(9) शिक्षा का निम्न स्तर- वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार देश में साक्षरता दर 64.8 प्रतिशत है। इस प्रकार अभी भी देश में 35-2 प्रतिशत जनता निरक्षर है। अशिक्षित व्यक्ति बचत के महत्त्व को नहीं समझते तथा अपनी अधिकांश आय को उपभोग पर व्यय कर देते हैं।
(III) बचत सुविधाओं की कमी-यद्यपि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश में बचत करने की सुविधाओं में निरन्तर वृद्धि हुई है तथापि विकसित राष्ट्रों की तुलना में अभी भी कम हैं। इसके प्रमुख कारण निम्नवत हैं-
(10) वित्तीय संस्थाओं की कमी-देश में नियोजनकाल में बैंकिंग तथा बीमा सुविधाओं में निरन्तर वृद्धि हुई है। किन्तु देश के विशाल आकार को देखते हुए अभी भी देश में विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में बचत जमा करने वाली वित्तीय संस्थाओं की कमी है।
(11) योग्य उद्यमियों की कमी- देश में योग्य तथा कुशल उद्यमियों का अभाव है जो जोखिम लेकर नए-नए उपक्रम स्थापित कर सकें। परिणामतः देश में पूंजी निवेश की गति धीमी रहने के कारण पूंजी निर्माण को प्रोत्साहन नहीं मिल पाता।
(IV) अन्य कारण-भारत में पूंजी निर्माण की प्रक्रिया में निम्न कारण भी बाधक सिद्ध हुए हैं-
(12) औद्योगिक पिछड़ापन-देश में उद्योग-धन्धों के समुचित विकास के लिए आधारभूत संरचना का विकास आवश्यक होता है, जैसे परिवहन तथा संचार के उन्नत साधन, सस्ती तथा पर्याप्त बिजली इत्यादि देश के अनेक क्षेत्रों में इन आधारभूत सुविधाओं का आज भी अभाव है। देश के औद्योगिक पिछड़ेपन के कारण प्रति व्यक्ति आय तथा जनता की बचत क्षमता बहुत कम है।
(13) असन्तुलित आर्थिक विकास- स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश का आर्थिक विकास असन्तुलित ढंग से हुआ है। देश के कुछ क्षेत्र तो तीव्र गति से उन्नति कर गए हैं जबकि अनेक क्षेत्र आज भी बहुत अधिक पिछड़े हुए हैं। ऐसे क्षेत्रों में बहुत कम निवेश के कारण पूंजी निर्माण की गति धीमी रही है।
(14) निर्धनता का दुष्चक्र – भारतीय अर्थव्यवस्था आज भी निर्धनता के दुष्चक्र (vicious circle of poverty) में फँसी हुई है। इस दुष्चक्र के लागू रहने के कारण देश में पूर्ति पक्ष की दृष्टि से कम आय कम बचत कम निवेश → कम पूँजी निर्माण कम उत्पादकता कम आय का कुचक्र चलता रहता है। भारत जैसे अल्प-विकसित देशों में निर्धनता, अल्प-विकास व गरीबी का कारण व परिणाम दोनों है।
(15) सीमित बाजार- निम्न प्रति व्यक्ति आय के कारण जनता की क्रय-शक्ति निम्न रहती है जिस कारण वस्तुओं तथा सेवाओं की माँग कम रहती है। सीमित बाजारों (माँग) के कारण देश का उत्पादन तीव्र गति से नहीं बढ़ाया जा सकता जिस कारण पूंजी निर्माण की गति धीमी बनी रहती है।
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