कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

भारत में हरित क्रान्ति (Green Revolution in India)

भारत में हरित क्रान्ति (Green Revolution in India)
भारत में हरित क्रान्ति (Green Revolution in India)

भारत में हरित क्रान्ति (Green Revolution in India)

हरित क्रान्ति शब्द सन् 1988 में होने वाले उस आश्चर्यजनक परिवर्तन के लिए प्रयोग में लाया जाता है जो भारत में खाद्यान्न के उत्पादन में हुआ था तथा जो अब भी जारी है।

-जे०जी० हारर

 

हरित क्रान्ति का अर्थ (Meaning of Green Revolution)

सन् 1967-68 तथा 1968-69 में देश के कृषि उत्पादन में असाधारण वृद्धि हुई जिसने भारत में एक आशा का संचार किया तथा कृषि क्षेत्र में फैली निराशा का अन्त किया अनेक विद्वानों ने कृषि उत्पादन में हुई इस असाधारण वृद्धि को कृषि क्षेत्र में हरित क्रान्ति के नाम से सम्बोधित किया। कुछ विचारकों ने यह मत प्रकट किया कि अब देश कृषि क्रान्ति के द्वार पर पहुँच गया है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि उत्पादन में 22-2% वृद्धि हुई थी जबकि द्वितीय योजनावधि में यह वृद्धि 21-7% रही। तीसरी योजना में कृषि उत्पादन बढ़ने के स्थान पर 7.5% घट गया किन्तु सन् 1967-68 में कृषि उत्पादन सन् 1966-67 की अपेक्षा 25% अधिक हुआ। कृषि उत्पादन में हुई इस असाधारण वृद्धि को ही कृषि क्रानि हरित क्रान्ति’ कहा गया। दूसरे शब्दों में, ‘हरित क्रान्ति’ से अभिप्राय कृषि उत्पादन में होने वाली उस भारी वृद्धि से है जो नई कृषि नीति अपनाने के परिणामस्वरूप सन् 1967-68 से प्रारम्भ हुई।

हरित क्रान्ति के कारण (Causes of Green Revolution)

भारत में कृषि क्षेत्र में प्रारम्भ हुई हरित क्रान्ति के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं-

(1) कृषि क्षेत्र में वृद्धि- सन् 1950-51 में कुल बोया गया क्षेत्रफल 13 करोड़ हेक्टेयर था जो अब बढ़कर लगभग 17 करोड़ हेक्टेयर हो गया है। गत वर्षों में खाद्यान्नों का कुल क्षेत्रफल निरन्तर बढ़ा है। सन् 2009-10 में यह क्षेत्रफल 121.33 मिलियन हेक्टेयर था। बेकार भूमि को खेतीयोग्य बनाया गया है तथा भूमि कटाव से बेकार हुयी भूमि को भी कृषि योग्य बनाया गया है।

सन् 1970-71 में खाद्यान्न का कुल उत्पादन 1.084 लाख टन था जो सन् 2003-04 में बढ़कर 2,135 लाख टन और 2010-11 में बढ़कर 241.56 मिलियन टन हो गया था।

(2) रासायनिक खाद का अधिकाधिक प्रयोग- भारत में कृषि व्यवसाय में रासायनिक खाद का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया है। सन् 1965-66 में केवल 5 लाख टन रासायनिक खाद (fertilisers) का प्रयोग किया गया था। किन्तु उसके बाद से इसका प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया है। रासायनिक खाद का प्रयोग बढ़कर 1967-68 में 10.3 लाख टन, 1968-69 में 17.5 लाख टन तथा 1969-70 में 20.8 लाख टन हो गया। 1983-84 में 77.10 लाख टन तथा सन् 2009-10 में लगभग 264 लाख टन रासायनिक खाद का प्रयोग किया गया।

(3) उन्नत बीजों का अधिकाधिक प्रयोग- देश के कृषि उत्पादन में असाधारण वृद्धि करने में अधिक उपजाऊ बीजों का विशेष योगदान है। भारत में उन्नत बीजों का प्रयोग मुख्यतः सन् 1966 से प्रारम्भ किया गया था तथा इनका प्रयोग गेहूँ, चावल, बाजरा, मक्का, तथा ज्वार व रागी फसलों के उत्पादन में किया गया था।

उन्नत बीजों के प्रयोग के फलस्वरूप प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन में असाधारण वृद्धि हुई है। मैसूर में चावल की प्रति हेक्टेयर सामान्य उपज 5,500 किलोग्राम थी जो बढ़कर 13,000 किलोग्राम हो गयी। इसके अलावा गेहूं की प्रति हेक्टेयर उपज उन्नत बीजों के प्रयोग के कारण बढ़कर 2,755 किलोग्राम हो गई। इसी प्रकार चावल तथा मक्का की प्रति हेक्टेयर उपज बढ़कर क्रमशः 1990 तथा 1,785 किलोग्राम हो गयी है।

उन्नत बीजों के अधीन क्षेत्रफल सन् 1966-67 में केवल 19 लाख हेक्टेयर था किन्तु उसके बाद यह क्षेत्रफल निरन्तर बढ़ता गया है। सन् 1994-95 में 713 लाख हेक्टेयर भूमि में उन्नत बीज बोए गए जबकि 1999-2000 में 760 लाख हेक्टेयर भूमि में उन्नत बीजों का प्रयोग किया गया 2008-09 में किसानों में 215.81 लाख क्विंटल उन्नत प्रमाणित बीजों का वितरण किया गया। वर्ष 2011-12 में उन्नत बीजों के उत्पादन तथा वितरण सम्बन्धी योजनाओं के लिए ₹350 करोड़ का आवंटन किया गया ।

(4) सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि– सन् 1965-66 में देश में 320 लाख हेक्टेयर भूमि के लिए सिंचाई की सुविधाएँ उपलब्ध थीं। सन् 1984-85 के अन्त एक देश का कुल सिंचित क्षेत्रफल बढ़कर 675 लाख हेक्टेयर हो गया था। सन् 1995-96 में सिंचाई की क्षमता बढ़कर 894.4 लाख हेक्टेयर हो गई थी। सन् 1951 में केवल 18 प्रतिशत भूमि पर सिंचाई की व्यवस्था थी, अब 40 प्रतिशत भूमि के लिए सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध है। मार्च 2010 में सिंचाई क्षमता बढ़कर लगभग 108.2 मिलियन हेक्टेयर हो गयी थी।

(5) आधुनिक कृषि यन्त्रों का अधिकाधिक प्रयोग– पिछले कुछ वर्षों में कृषि व्यवसाय में आधुनिक यन्त्रों का प्रयोग काफी बढ़ा है जिसके फलस्वरूप वर्ष में एक से अधिक फसल लेना सम्भव हो गया है। छोटे किसानों को सहकारी संस्थाओं, विकास खण्डों, बैंकों आदि से कृषि यन्त्रों को खरीदने के लिए कम ब्याज पर ऋण दिए गए हैं। विभिन्न राज्यों में इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 17 कृषि उद्योग निगम स्थापित किए गए हैं। कई राज्यों में ट्रैक्टर आदि कृषि यन्त्र किराए पर देने के लिए कृषि सेवा केन्द्र खोले गए हैं।

(6) कई फसलें – सिंचाई की उचित व्यवस्था के फलस्वरूप अब अधिकांश भूमि पर एक वर्ष में कई फसलें उगाई जाने लगी हैं। विभिन्न सिचित क्षेत्रों में बहुफसलीय खेती (multiple cropping) की जाने लगी है। गत वर्षों में बहुफसलीय खेती को व्यापक स्तर पर लोकप्रिय बनाने के प्रयास किए गए हैं।

(7) साख सुविधाएँ- अब किसानों को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक साख-सुविधाएँ प्राप्त होने लगी हैं। कृषि विकास हेतु किसानों को कम ब्याज पर उचित मात्रा में ऋण दिलाने के लिए सहकारी साख समितियों की स्थापना की गई है तथा भूमि विकास बैंकों की संख्या में वृद्धि की गई है। इस समय देश में लगभग 92 हजार प्राथमिक सहकारी साख समितियां तथा 1,440 प्राथमिक भूमि विकास बैंक है। राष्ट्रीयकरण के बाद से व्यापारिक बैंकों ने कृषि के लिए पहले से कहीं अधिक कर्जे दिए हैं। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों तथा किसान सेवा समितियों ने भी किसानों को साख-सुविधाएँ प्रदान की है। कृषि वित्त सम्बन्धी सर्वोच्च संस्था राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक की स्थापना की गई है। सन् 2010-11 में कृषि क्षेत्र को लगभग 4,26,531 करोड़ ₹ की संस्थागत साख प्रदान की गयी।

(8) विपणन सुविधाएँ- अब कृषि उत्पादन के विपणन में पर्याप्त सुधार हो गया है। इसके लिए विशेष रूप से तीन दिशाओं में प्रयत्न किए गए हैं-(i) नियमित मण्डियाँ- ऐसी मण्डियों का प्रबन्ध सरकार द्वारा नियुक्त बाजार समितियों करती हैं। देश में 7,566 मण्डियों को नियमित किया जा चुका है। (ii) सहकारी विपणन समितियाँ- ये समितियों अपने सदस्यों की उपज को उचित कीमत पर बेचती है तथा मण्डार व गोदाम की सुविधाएँ भी प्रदान करती हैं। इस समय देश में लगभग 6,777 प्राथमिक सहकारी विपणन समितियों कार्य कर रही है। (iii) कीमत समर्थन नीति- इस व्यवस्था के अन्तर्गत सरकार किसानों को उनकी उपज का न्यूनतम मूल्य दिलाने का विश्वास दिलाती है। यह नीति गेहूं, चावल, कपास, चना आदि अनाजों पर लागू की गई है।

(9) उन्नत तकनीक- पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत खेती के वैज्ञानिक ढंग अपनाने पर विशेष रूप से बल दिया गया है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न कार्यक्रमों के अन्तर्गत किसानों को खेती की उन्नत विधियों का प्रशिक्षण दिया जाता है। उदाहरणार्थ, सन् 1961 में गहन कृषि जिला कार्यक्रम (Intensive Agricultural District Programme) प्रारम्भ किया गया जो आजकल विभिन्न राज्यों में चलाया जा रहा है। भारत सरकार ने कृषि के विकास के लिए ‘एकीकृत ग्रामीण विकास योजना’ (Integrated Rural Development Scheme) प्रारम्भ की है।

(10) पौधों का संरक्षण- भारत में फसलों में लगने वाली बीमारियों की रोकथाम के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयत्न किए जा रहे हैं। इस कार्य के लिए 14 केन्द्रीय फसल संरक्षण केन्द्र स्थापित किए गए हैं। आजकल देश में 50 कीटनाशक दवाइयों का उत्पादन किया जाता है।

(11) कृषि शिक्षा तथा अनुसन्धान- स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से कृषि समस्याओं के समाधान हेतु सरकार ने कृषि शिक्षा तथा अनुसन्धान पर विशेष ध्यान दिया है। देश में कृषि शिक्षा के प्रसार के लिए आजकल 33 राजकीय कृषि विश्वविद्यालय है तथा इम्फाल में एक केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय है। कृषि अनुसन्धान के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद’ है जिसके पास 45 अनुसंधान केन्द्र तथा प्रयोगशालाएँ हैं। इसके अतिरिक्त, देश के चुने हुए 100 जिलों में कृषक शिक्षा तथा परीक्षण कार्य भी चल रहा है। देश की कृषि अनुसंधान संस्थाओं द्वारा नए व उन्नत बीज, खेती के नए ढंग, पौध संरक्षण आदि के सम्बन्ध में निरन्तर खोज की जा रही है।

(12) भूसंरक्षण (Soil Conservation) देश में भूसंरक्षण कार्यक्रम अपनाया गया है जिसके दो अंग हैं–(1) कृषि योग्य भूमि को क्षरण से रोकना, तथा (2) ऊबड़-खाबड़ भूमि को समतल बनाकर खेती योग्य बनाना। देश की 35 लाख हेक्टेयर क्षारीय भूमि में से 6.4 लाख हेक्टेयर भूमि को खेती योग्य बनाया जा चुका है।

(13) भूमि परीक्षण- हरित क्रान्ति को सफल बनाने हेतु भूमि परीक्षण कार्यक्रम अपनाया गया है। इसके अन्तर्गत सरकारी प्रयोगशालाओं में विभिन्न क्षेत्रों की मिट्टी का परीक्षण करके यह ज्ञात किया जाता है कि विभिन्न किस्म की मिट्टियों में किस प्रकार की खाद का प्रयोग किया जाए तथा कौन-से बीज बोए जाएँ जिससे कृषि उत्पादन में आशातीत वृद्धि हो सके। जिन मिट्टियों में अम्ल, क्षार या लवण पाया जाता है उन्हें कृषि योग्य बनाने के लिए प्रयोगशालाएँ सलाह देती हैं।

(14) भूमि सुधार- स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सरकार ने कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिए अनेक भूमि सुधार किए हैं, जैसे—(1) जमींदारी प्रथा को समाप्त कर दिया गया है। (ii) काश्तकारी प्रथा में सुधार करने के लिए विभिन्न राज्यों में कानून पारित किए गए हैं। (iii) भूमि की जोतों की उच्चतम सीमाएँ निर्धारित की गई है। (iv) लगभग 613 लाख हेक्टेयर भूमि की चकबन्दी कर दी गई है।

(15) ग्रामीण विद्युतीकरण (Rural Electrification)-कृषि कार्यों के लिए बिजली उपलब्ध कराने तथा ग्रामीण जनजीवन के स्तर को ऊपर उठाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युतीकरण पर गत वर्षों में निरन्तर ध्यान दिया गया है। प्रथम योजना के प्रारम्भ में केवल 3,000 गाँवों में बिजली थी। वर्तमान में देश के कुल 5,87.258 गाँवों में से लगभग 1.25 लाख गाँव ही ऐसे हैं जो विद्युतीकृत नहीं हैं।

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Anjali Yadav

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