मानसिक स्वास्थ्य से आप क्या समझते हैं? उन कारकों का उल्लेख कीजिए जो बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को स्थिर करते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य का शाब्दिक अर्थ है, ‘मन की स्वस्थता’ । स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन विद्यमान रहता है। यह सर्वविदित सत्य है। मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों से स्पष्ट किया है कि मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति वातावरण एवं अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समायोजन करने में सफल रहता है और समाज में अन्य व्यक्तियों के साथ संतोषजनक समायोजित व्यवहार करता है। मानसिक स्वास्थ्य के अर्थ को विभिन्न विद्वानों ने भिन्न प्रकार से स्पष्ट करने का प्रयास किया है। यथा
कुप्पूस्वामी स्वास्थ्य के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, “मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ किसी के दैनिक जीवन में भावनाओं, इच्छाओं, महत्त्वाकांक्षाओं एवं आदर्शों में सन्तुलन रखने की योग्यता है।
लैडल ने मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ इस प्रकार स्पष्ट किया है, “मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ यथार्थ के धरातल पर वातावरण से उपयुक्त समायोजना की योग्यता है।
स्टुन्ज ने मानसिक स्वास्थ्य के अर्थ को इस प्रकार व्यक्त किया है, “मानसिक स्वास्थ्य सीखे गये व्यवहार के वर्णन के अलावा कुछ नहीं है, जो सामाजिक रूप से आनुकूलिक है और व्यक्तियों को जीवन के साथ उचित रूप से सामना करने के लिए अनुज्ञा देता है।
जॉन्स, सुटन तथा वेबस्टर के शब्दों में “मानसिक स्वास्थ्य जीवन का एक सकारात्मक परन्तु सापेक्षिक गुण हैं। यह वह दशा है जो ऐसे औसत व्यक्ति की विशेषता होती है जो अपनी सामर्थ्य तथा सीमाओं के आधार पर जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करता है।”
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि मानसिक स्वास्थ्य व्यक्ति के द्वारा समायोजन करने की योग्यता का परिणाम होता है। जब व्यक्ति अपनी इच्छाओं, महत्त्वकांक्षाओं, आदर्शों आदि को जीवन की वास्तविकताओं के अनुरूप ढालकर अपने तथा वातावरण के मध्य एक संतोषजनक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है तब उसे समायोजित व्यक्ति कहा जा सकता है।
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बालकों के मानसिक स्वास्थ्य में सुधार के उपाय
बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारकों में शारीरिक, स्वास्थ्य, परिवार, समाज एवं विद्यालय प्रमुख हैं। अतः शिक्षकों, अभिभावकों, और शिक्षा व्यवस्था को निर्धारित करने वाले अधिकारियों के द्वारा ही बालकों के मानसिक स्वास्थ्य में सुधार के उपाय भी किये जा सकते हैं। यदि ये सभी अपने कर्तव्यों का उचित निर्वहन करें तब वे न केवल बालकों के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं, बल्कि उसमें वृद्धि भी कर सकते हैं। इनके निम्नलिखित कार्यों एवं उपायों से बालकों के मानसिक स्वास्थ्य में सुधार किया जा सकता है-
1. परिवार की भूमिका दायित्व- बालकों के माता-पिता अथवा अभिभावकों का यह कर्तव्य होता है कि वे-
उनके विकास के लिए उत्तम दशायें प्रदान करें।
परिवार में शान्ति एवं सामन्जस्य पूर्ण वातावरण बनाये रखें।
माता-पिता परस्पर लड़े झगड़े नहीं बल्कि प्रेमपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखें।
बच्चों के प्रति उचित व्यवहार करें तथा प्रेम प्रदर्शित करें।
बालकों की आधारभूत शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति का ध्यान रखें।
बालकों की रूचियों, आकांक्षाओं तथा मानसिक योग्यताओं के विकास के लिए अवसर प्रदान करें।
उनकी समस्याओं के समाधान में उचित सहायता एवं निर्देशन प्रदान करें।
2. समाज की भूमिका एवं दायित्व- बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को विकसित करने के लिए समाज निम्नलिखित कार्यों को पूर्ण करके अपना दायित्व निभा सकता है- बालकों की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करना। उन्हें सुख एवं सुरक्षा प्रदान करना। उन्हें शारीरिक रोगों से मुक्त रखने के लिए योग्य चिकित्सकों एवं अच्छे चिकित्सालयों की सुविधा उपलब्ध कराना। उनके सन्तुलित संवेगात्मक विकास के लिए साधन जुटाना। उनके स्वस्थ मनोरंजन की समुचित व्यवस्था करना तथा उत्तम शिक्षा एवं शिक्षा संस्थाओं की उचित व्यवस्था करना।
मानसिक स्वास्थ्य बनाने में अध्यापक की भूमिका
छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को बनाने में अध्यापक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के निर्माण में अध्यापक निम्न कार्यों द्वारा सहायता कर सकता है
( 1 ) व्यक्तिगत भिन्नता के अनुसार शिक्षा- प्रत्येक छात्र एक दूसरे से भिन्ना होता है अतः शिक्षा शिक्षक द्वारा व्यक्तिगत भिन्नाता के आधार पर दी जानी चाहिए। इसके लिए निर्देशन (ळनपकंदबम) दिया जा सकता है। निर्देशन शिक्षा सम्बन्धी तथा जीविका सम्बन्धी दोनों प्रकार का होना चाहिए। निर्देशन से छात्रों को अनेक लाभ होते हैं। प्रथम, तो छात्रों के व्यक्तित्व का विकास होता है और वे अपनी योग्यता तथा रूचि के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर हैं। द्वितीय, निर्देशन से बालकों को उनके उद्देश्य का ज्ञान हो जाता है अतः वे उसे प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करते हैं।
(2) स्वतंत्र वातावरण का निर्माण – विद्यालय में छात्रों को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करना भी आवश्यक है। हर समय उन्हें आतंक तथा अनुशासन में रखना भी हानिकारक रहता है। विद्यालय का वातावरण इस प्रकार का हो जिसमें छात्र पर्याप्त स्वतंत्रता का अनुभव करें और अपनी आन्तरिक इच्छाओं को निःसंकोच प्रकट कर सकें।
( 3 ) आत्मविश्वास की भावना का विकास- स्वतंत्रता के साथ-साथ छात्रों में आत्म विश्वास की भावना भी उत्पन्न की जानी चाहिए। उनको कुछ उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौपे जाएँ तथा उन कार्यों को पूर्ण करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की जाए। ऐसा करने से उनके मन में प्रसन्नाता के भाव रहते हैं तथा उनमें आत्म-विश्वास उत्पन्न होता है।
(4) सुरक्षा की भावना – शिक्षक का कर्तव्य है कि वह छात्रों में उनके घर जैसी संवेगात्मक सुरक्षा (Emotional Security) उत्पन्न करे। यदि छात्रों में संवेगात्मक सुरक्षा की भावना नहीं आती है तो वे विभिन्न स्नायु-सम्बन्धी रोगों से ग्रसित हो जाते है।
( 5 ) पाठान्तर क्रियाओं का संगठन- विद्यार्थी क्रियाशील होते हैं। वे हर समय कुछ न कुछ करते रहना पसंद करते हैं। कभी वे कक्षा में छोटी-मोटी शैतानी करते हैं तो कभी अपने साथी को छेड़ते हैं। कभी विद्यालय के प्रांगण में खड़े वृक्ष पर ढेले फेंकते हैं। अर्थात् वे साहसपूर्ण कार्य करने में विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं। छात्रों की इस प्राकृतिक शक्ति की पूर्ति के लिए विद्यालय में पाठान्तर क्रियाओं का संगठन किया जाना चाहिए। बालचर संस्था की स्थापना करना भी आवश्यक है। इसमें छात्रों को अनेक साहसपूर्ण कार्य करने के अवसर मिलते हैं।
(6) शिक्षक का व्यवहार — शिक्षक का कर्तव्य है कि वह छात्रों के साथ अपना व्यवहार नम्र तथा महानुभूतिपूर्ण रखे। एक तानाशाह या दुर्व्यवहार करने वाला शिक्षक विद्यार्थियों के मन में हीन ग्रंथियों उत्पन्न कर देता है। शिक्षक का कार्य उचित मार्ग दर्शन का है। जहाँ तक सम्भव हो, शिक्षक को अपने मस्तिष्क को पूर्णरूप से संतुलित रखना चाहिए।
(7) विद्यार्थियों का स्वास्थ्य – शारीरिक स्वास्थ्य का मानसिक स्वास्थ्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है। विद्यालय में उन समस्त साधनों को जुटाना आवश्यक है जिनसे छात्रों के स्वास्थ्य में वृद्धि हो। यदि कोई छात्र रोगी हो जाता है और शिक्षक को इसका आभास हो जाता है तो उसकी प्राथमिक चिकित्सा तुरंत करानी चाहिए। खुले मैदान में शारीरिक व्यायाम की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि छात्रों का मन एवं शरीर दोनों ताजगी से पूर्ण रहें।
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