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मुद्रा : अर्थ (Money: Meaning)
सौन्दर्यशक्तिमान है किन्तु मुद्रा सर्वशक्तिमान है। प्रेम के द्वारा बहुत से कार्य सम्पन्न होते हैं, किन्तु मुद्रा के द्वारा सभी कार्यों को सम्पन्न किया जा सकता है।
-जे०एल० हेम्सन
मुद्रा या द्रव्य का अर्थ (Meaning of Money)
मुद्रा की परिभाषा के बारे में अर्थशास्त्रियों में मतक्य नहीं पाया जाता, बल्कि मुद्रा के स्वभाव तथा कार्यों के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने मुद्रा की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी है। अध्ययन की सुविधा के लिए इन्हें दो वर्गों में बाँटा जा सकता है- (1) स्वभाव के आधार पर, तथा (2) विस्तार के आधार पर।
(I) स्वभाव के आधार पर मुद्रा की परिभाषाएँ
इस आधार पर मुद्रा की परिभाषाओं को तीन उपवर्गों में बाँटा गया है- (1) वर्णनात्मक परिभाषाएँ (2) वैधानिक परिभाषाएं, तथा (3) सर्वग्राह्यता सम्बन्धी परिभाषाएँ।
(1) वर्णनात्मक परिभाषाएँ (Descriptive Definitions)—इस वर्ग में आने वाली परिभाषाओं में मुद्रा के कार्यों पर बल दिया गया है, किन्तु यह नहीं बताया गया है कि मुद्रा क्या है।
(i) हार्टले विदर्स के शब्दों में, “मुद्रा वह है जो मुद्रा के कार्य करे।।
(ii) थॉमस के अनुसार, “मुद्रा वह वस्तु है जो मूल्य-मापक तथा अन्य वस्तुओं के बीच विनिमय-माध्यम का कार्य करने के लिए एक मत से चुन ली जाती है।
(iii) ट्रेसकॉट (Trescott) के अनुसार, “मुद्रा का कार्य करने वाली वस्तु चाहे वह धातु, सिक्का, सिगरेट या सीपियों की माला ही क्यों न हो, मुद्रा है।”
दोष-यद्यपि मुद्रा की वर्णनात्मक परिभाषाएँ सरल है किन्तु ये वैज्ञानिक नहीं हैं। इन परिभाषाओं में मुद्रा की सर्वग्राह्यता, वैधानिक मान्यता आदि महत्वपूर्ण विशेषताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।
(2) वैधानिक परिभाषाएँ (Legal Definitions)-इप परिभाषाओं के अनुसार जो भी वस्तु विधान या सरकार द्वारा मुद्रा घोषित कर दी जाती है, मुद्रा कहलाती है।
(i) विलियम नैप के अनुसार, “कोई भी वस्तु जो राज्य द्वारा मुद्रा घोषित कर दी जाती है, मुद्रा हो जाती है।”
(ii) हाट्रे के शब्दों में, “मुद्रा के दो पहलू हैं-प्रथम यह लेखे की इकाई है, दूसरे यह विधिग्राह्य है।”
दोष-वैधानिक तथा व्यावहारिक दृष्टि से ठीक होने के बावजूद नैप तथा हाद्रे की परिभाषाएँ दोषरहित नहीं है, क्योंकि इनमें मुद्रा के सर्वग्राह्यता के गुण को सम्मिलित नहीं किया गया है। व्यवहार में मुद्रा का प्रचलन सरकारी घोषणा की अपेक्षा जनता के विश्वास पर अधिक निर्भर करता है। वैधानिक मान्यता के होते हुए भी जब किसी मुद्रा से जनता का विश्वास उठ जाता है तो फिर व्यापारिक लेन-देन में जनता उसे स्वीकार नहीं करती।
(3) सर्वग्राह्यता सम्बन्धी परिभाषाएँ (General Acceptability Definitions)-इस वर्ग में उन परिभाषाओं को रखा गया है जो मुद्रा के सर्वग्राह्यता के गुण पर आधारित है। मार्शल के शब्दों में, “मुद्रा में वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं जो किसी विशेष समय या स्थान पर) बिना सन्देह अथवा जाँच के वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने तथा व्यर्थ के भुगतान के साधन के रूप में सामान्य रूप से स्वीकार की जाती है।
(i) क्राउवर के शब्दों में, “कोई भी वस्तु जो विनिमय के माध्यम के रूप में सामान्यतः सर्वग्राह्य हो तथा साथ ही मूल्य के मापक तथा संचय का कार्य करती हो, मुद्रा है।
(ii) एली के मतानुसार, “मुद्रा ऐसी कोई भी वस्तु है जिसका चिनिमय के माध्यम के रूप में स्वतन्त्रतापूर्वक हस्तान्तरण होता है तथा जो सामान्य ऋणों के अन्तिम भुगतान में स्वीकार की जा सकती है।
(iii) सेलिगमैन के शब्दों में, “मुद्रा यह वस्तु है जिसे सामान्य स्वीकृति प्राप्त होती है।
(iv) राबर्टसन के विचार में, “मुद्रा एक ऐसी वस्तु है जो वस्तुओं के मूल्य के भुगतान में अथवा दूसरे व्यावसायिक दायित्वों निपटाने में विस्तृत रूप से स्वीकार की जाती है।
दोष-यद्यपि मुद्रा की सर्वग्राहयता सम्बन्धी परिभाषाएं सरल है तथापि इनका प्रमुख दोष यह है कि इन्होंने मुद्रा के अर्थ को अत्यन्त व्यापक बना दिया है।
(II) विस्तार के आधार पर मुद्रा की परिभाषाएँ
इस आधार पर मुद्रा की परिभाषाओं को तीन उप-वर्गों में बाँटा गया है- (1) संकुचित परिभाषाएँ, (2) उदार या विस्तृत परिभाषाएँ तथा (3) सन्तुलित परिभाषाएँ।
(1) संकुचित परिभाषाएँ (Narrow Definitions)-इस वर्ग में केवल वे परिभाषाएँ आती हैं जिनमें केवल धातु के सिक्कों को द्रव्य (मुद्रा) माना गया है
प्रो० प्राइस के अनुसार, “सिक्के केवल यात्विक सिक्के ही मुद्रा है।
दोष- यह परिभाषा अत्यन्त संकुचित है, क्योंकि इसमें कागजी नोटों को मुद्रा में शामिल नहीं किया गया है।
(2) उदार या विस्तृत परिभाषाएँ (Liberal or Wide Definitions)- इस वर्ग में वे सभी परिभाषाएँ आती हैं जिनमें धातु के सिक्के, पत्र- मुद्रा तथा साख-पत्रों, इन सभी को मुद्रा में शामिल किया गया है।
(i) कोल (Cole) के शब्दों में, “मुद्रा केवल कब-शक्ति है कोई ऐसी वस्तु जो वस्तुओं को खरीदती है।”
(ii) हार्टले विदर्स के अनुसार, “मुद्रा वह है जो मुद्रा का कार्य करती है। इस परिभाषा के अनुसार उन सभी वस्तुओं क मुद्रा में शामिल किया जा सकता है जो मुद्रा का कार्य करती हैं। इस दृष्टि से धातु के सिक्कों के अतिरिक्त चेक, हुण्डियों, विनिमय विपत्रो आदि को भी मुद्रा में शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि ये सभी मुद्रा का कार्य करते हैं किन्तु चैक, बिल, हुण्डी आदि साख-पत्रों की मुद्रा मानना ठीक नहीं है क्योंकि इन्हें स्वीकार करने के लिए व्यक्तियों को कानूनन वाध्य नहीं किया जा सकता।
(3) सन्तुलित परिभाषाएँ (Balanced Definitions) — अधिकांश अर्थशास्त्रियों ने उक्त दोनों विचारधाराओं के बीच का मार्ग अपनाया है। इन परिभाषाओं में धात्विक सिक्कों (metallic coins) तथा कागजी नोटों को तो मुद्रा माना गया है किन्तु साख-पत्रों को इनमें शामिल नहीं किया गया है।
(i) मार्शल के मतानुसार, “मुद्रा में वे सब वस्तुएं सम्मिलित है जो किसी समय या स्थान विशेष पर) बिना सन्देह या विशेष जाँच के वस्तुओं तथा सेवाओं के खरीदने तथा व्यय का भुगतान करने के साधन के रूप में सामान्यतः स्वीकार की जाती हैं।”
(ii) एली के शब्दों में, “मुद्रा ऐसी कोई भी वस्तु है जिसका विनिमय के माध्यम के रूप में स्वतन्त्रतापूर्वक हस्तान्तरण होता है तथा जो ऋणों के अन्तिम भुगतान में सामान्य रूप से ग्रहण की जाती है।”
(iii) प्रो० क्राउथर के शब्दों में, “कोई भी वस्तु जो विनिमय के माध्यम के रूप में सामान्यतः सर्वग्राहा हो तथा साथ ही मूल्य-मापन तथा संचय का कार्य करती है, मुद्रा है।”
(iv) केन्ज़ (Keynes) के अनुसार, “मुद्रा वह है जिसे देकर ऋण-अनुबन्चों तथा कीमत अनुबन्धों का भुगतान किया जाता तथा जिसके रूप में सामान्य क्रय-शक्ति का संचय किया जाता है।
मुद्रा की उपयुक्त परिभाषा- उक्त परिभाषाओं के विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ‘मुद्रा’ वह वस्तु है, जो विनिमय के माध्यम मुल्य के मापक (Measure), क्रय-शक्ति के संचय तथा ऋण सम्बन्धी सौदों एवं व्यावसायिक दायित्वों के भुगतान के सम्बन्ध में स्वतन्त्रतापूर्वक स्वीकार की जाती है तथा जिसे वैधानिक मान्यता प्राप्त होती है।
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