मुद्रा की बुराइयाँ (Evils of Money)
जहाँ मुद्रा के इतने अधिक लाभ है यहाँ इसमें कुछ गम्भीर बुराइयों भी पाई जाती हैं। इसीलिए बेकर ने लिखा है, “मुद्रा के नाम हमें बहुत कुछ खोकर प्राप्त होते हैं।” मुद्रा के दोषों को चार वर्गों में बाटा जा सकता है—(I) आर्थिक दोष, (II) सामाजिक व नैतिक दोष, (III) राजनैतिक दोष, तथा (IV) धार्मिक दोष।
(I) मुद्रा के आर्थिक दोष (Economic Evils of Money)-आर्थिक दृष्टि से मुद्रा के प्रमुख दोष निम्न हैं-
(1) पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को जन्म देना- मुद्रा ने पूँजों के संचय को सम्भव बनाकर तथा पूंजी को गतिशीलता एवं तरलता प्रदान करके पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को जन्म दिया है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अनेक बुराइयों से मस्त होती है, जैसे श्रमिकों व पूँजीपतियों में संघर्ष, श्रमिकों का शोषण, एकाधिकारों की स्थापना, अति-उत्पादन, व्यापक बेरोजगारी, आर्थिक विषमताएँ आदि।
(2) व्यापार-चक्रों को जन्म देना- पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में तेजी तथा मन्दी (व्यापार-चक) के काल बारी-बारी से आते रहते हैं। तेजी (Boom) के दिनों में वस्तुओं की कीमतों में निरन्तर वृद्धि होती है जिससे सट्टेबाजी, चोर बाजारी तथा जमाखोरी को बढ़ावा मिलता है। इसके विपरीत, मन्दी (Depression) के दिनों में देश में बेकारी फैलने लगती है। व्यापार-चक्रों (Trade) Cycles) के कारण जार्थिक जीवन में अनिश्चितता आ जाती है जिसका आर्थिक विकास पर अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
(3) ऋणग्रस्तता में वृद्धि – मुद्रा ने ऋण लेने तथा देने के कार्य को अत्यन्त सरल बना दिया है जिससे लोगों में ऋण लेने की प्रवृत्ति को बल मिला है। परिणामतः मनुष्य अपव्ययी तथा ऋणग्रस्त हो गया है। यह कुप्रभाव उद्योग-धन्धों पर भी पड़ा है। देखा जाए तो समाज में अधिक तथा अनावश्यक व्यय करने का रिवाज बल पड़ा है। गरीब देशों में अधिक ऋण लेकर सम्पन्न होने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है।
(4) अति-पूंजीकरण तथा अति-उत्पादन- किसी व्यवसाय या उद्योग में आवश्यकता से कहीं अधिक मात्रा में पूंजी के निवेश को ‘अति-पूंजीकरण’ (over capitalisation) कहते हैं। अति-पूंजीकरण के कारण उत्पादन में अनावश्यक वृद्धि हो जाती है। इससे अति-उत्पादन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिस कारण वस्तुओं की कीमतें गिरने लगती हैं। इसका उद्योग-धन्धों तथा व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और देश में रोजगार तथा राष्ट्रीय आय में कमी आने लगती है। इस प्रकार अति-पूँजीकरण तथा अति-उत्पादन देश के आर्थिक विकास में बाधक सिद्ध होते हैं।
(5) मुद्रा के मूल्य में अस्थिरता—मुद्रा की मात्रा में विशेषकर पत्र- मुद्रा की मात्रा में कमी या वृद्धि करना आसान होता है। मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन किए जाने के कारण मुद्रा के मूल्य में समय-समय पर उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, जिनके समाज के विभिन्न वर्गों पर भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ते हैं। मुद्रा के मूल्य में आने वाली अस्थिरता दो प्रकार की होती है—(i) मुद्रास्फीति (Inflation) – इस स्थिति में कीमतों में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है जिसका निर्धन तथा मध्यम वर्ग पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ, द्वितीय विश्व युद्ध की अवधि में जर्मनी में मुद्रा का अत्यधिक प्रसार कर दिया गया था जिस कारण युद्ध के पश्चात् जर्मनी में यह स्थिति हो गई थी कि लोग मार्क (जर्मनी की मुद्रा) को टोकरियों में भरकर ले जाते थे तथा माल जेबों में लाते थे। (ii) मुद्रा अस्फीति (Deflation ) – इस स्थिति में कीमतों के अत्यधिक घट जाने के कारण अति-उत्पादन तथा बेरोजगारी की समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं जिससे समूची अर्थव्यवस्था ही अस्त-व्यस्त हो जाती है।
(6) धन का असमान वितरण-मुद्रा ने पूँजीवादी-प्रणाली को शक्तिशाली बनाकर समाज को दो वर्गों में बाँट दिया है—पनी वर्ग तथा निर्धन वर्ग समाज का अधिकांश धन कुछ ही धनी पूंजीपतियों के हाथों में केन्द्रित हो जाता है जिससे देश में आय तथा सम्पत्ति सम्बन्धी गम्भीर विषमताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इससे समाज में वर्ग संघर्ष तथा बेरोजगारी जैसी गम्भीर समस्याएँ विकराल रूप धारण कर लेती हैं।
(7) काले धन की समस्या- मुद्रा के कारण ही काले धन (Black Money) की समस्या उत्पन्न होती है। लोगों के लिए मुद्रा के रूप में करों की चोरी करना आसान होता है। काले धन की विद्यमानता सरकार की मौद्रिक तथा राजकोषीय नीतियों को असफल कर देती है।
(8) सेविका से स्वामिनी- जब तक मुद्रा की नियन्त्रित रखा जाता है तब तक तो यह मनुष्य के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है तथा उसकी सेविका की भाँति कार्य करती है। किन्तु नियन्त्रण से बाहर हो जाने पर मुद्रा तेजी व मन्दी जैसी गम्भीर बुराइयों उत्पन्न करके समुचित अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर देती है, और यह मनुष्य की सेविका के बजाय उसकी स्वामिनी बन जाती है। उदाहरण के लिए 1929-33 में आई विश्वव्यापी महामन्दी की अवधि में विभिन्न राष्ट्रों में करोड़ों व्यक्तियों को गम्भीर यातनाएं झेलनी पड़ी थीं। रॉबर्टसन (Robertson) के शब्दों में, “मुद्रा जो मानवता के लिए अनेक वरदानों का स्रोत है, नियन्त्रित न किए जाने पर संकट तथा भ्रम का कारण बन जाती है।
मुद्रा की वफादार तथा जाज्ञाकारी नौकर की भाँति काबू में रखना चाहिए और इसे मालिक नहीं बनने देना चाहिए। दूसरे शब्दों में, यदि मनुष्य मुद्रा को अपने जीवन का साच्य या स्वामी (Master) न मानकर इसे साधन या सेवक (Servant) के रूप में अपनाता है तो मुद्रा के अधिकांश दोष दूर हो जायेंगे।
(II) सामाजिक तथा नैतिक दोष (Social and Moral Evils) मुद्रा के प्रमुख सामाजिक तथा नैतिक दोष निम्न हैं-
(1) भौतिकता को बढ़ावा- मुद्रा के कुप्रभावों के कारण आजकल वारों ओर भौतिकता का बोलबाला है। आध्यात्मिक तथा धार्मिक विचार अब पृष्ठभूमि में चले गए हैं। लोग निःसंकोच उचित-अनुचित उपायों द्वारा मुद्रा कमाने में लगे हुए हैं। मुद्रा ने लोगों को लालची बना दिया है। रस्किन (Ruskin) ने लिखा है, “मुद्रा के भूत ने हमारी आत्मा को काबू में कर लिया है। किसी धर्म या दर्शन में इसे बाहर निकालने की शक्ति दिखाई नहीं देती।
(2) शत्रुता को बढ़ावा-मुद्रा भाई-भाई में झगड़े, मित्रों में शत्रुता, बाप-बेटे में मन-मुटाव तथा पति-पत्नी के मध्य वैमनस्य का कारण बनती है। अनेक बाद मुद्रा के लेन-देन को लेकर सुखी परिवार छिन्न-भिन्न हो जाते हैं।
(3) शोषण में वृद्धि-अधिकाधिक धन कमाने के लिए पूंजीपति श्रमिकों का अनेक प्रकार से शोषण करते हैं, जैसे श्रमिकों को कम मजदूरी देना, उनसे अधिक घण्टे काम लेना, उनसे गन्दे स्थानों में काम करवाना आदि। इसी प्रकार व्यापारी मिलावट, कम तील, चोर बाजारी, मुनाफाखोरी आदि के द्वारा उपभोक्ताओं का शोषण करते हैं। देखा जाए तो मुद्रा के लोम ने समाज में शोषण के विषम चक्र को तीव्र कर दिया है।
(4) नैतिक पतन-मुद्रा ने मनुष्य में लोभ की प्रवृत्ति को जन्म देकर समाज में चोरी, डकैती, विश्वासघात, धोखेबाजी आदि बुराइयों को बढ़ावा दिया है। मुद्रा ने व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, रिश्वतखोरी आदि कुरीतियों को जन्म दिया है। मुद्रा के कारण ही आज समाज में दया, प्रेम, सहानुभूति, सहदवता, सदाचार आदि नैतिक मूल्य लुप्त होने लगे हैं। वान माइसिस के विचार में, “मुद्रा का दोष उस समय ज्ञात होता है जबकि एक वेश्या तुच्छ मुद्रा के लिए अपने शरीर को बेच देती है और एक न्यायाधीश न्याय के विरुद्ध निर्णय सुना देता है।” इसी प्रकार के विचार रस्किन ने व्यक्त किए हैं, “मुद्रा के शैतान ने आत्माओं को दबा दिया है।”
(III) राजनैतिक दोष (Political Evils)-मुद्रा अनेक राजनैतिक बुराइयों के लिए भी उत्तरदायी है-
(1) मतदाताओं के वोट खरीदना- मुद्रा द्वारा कुछ भ्रष्ट लोग सीधी-सादी जनता का वोट खरीदकर विधानसभा व संसद के सदस्य तथा मन्त्री बन जाते हैं और फिर अपने स्वार्थ के लिए जनता का शोषण करते हैं।
(2) दल-बदल की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन-मुद्रा के कारण भारत की राजनीति में दल-बदल (Defection) की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिला है। राजनेताओं द्वारा सत्ता प्राप्त करने हेतु कई बार गुद्रा द्वारा सांसदों तथा विधायकों को खरीदा गया है।
(3) राजनीतिक उथल-पुथल – मुद्रा के मूल्य (क्रय-शक्ति) में अत्यधिक उतार-चढ़ाव आने पर कई राष्ट्रों को राजनीतिक उथल-पुथल का सामना करना पड़ा है।
(4) निर्धन व दुर्बत राष्ट्रों का शोषण-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मुद्रा ने अनेक राजनीतिक बुराइयों को जन्म दिया है, जैसे शक्तिशाली राष्ट्रों की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति, धनी राष्ट्रों द्वारा निर्धन व दुर्बल राष्ट्रों का शोषण इत्यादि ।
(IV) धार्मिक दोष (Evils Relating to Religion)-आज मुद्रा का सहारा लेकर लोगों को धर्म के नाम पर परस्पर लड़वाया जाता है। हिन्दू मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी अपने-अपने विशालकाय धार्मिक स्थलों के निर्माण की होड़ में लगे हुए हैं। वस्तुतः धर्म ने मुद्रा के बलबूते पर राजनीति से मिलकर साम्प्रदायिकता का रूप धारण कर लिया है।
निष्कर्ष (Conclusion)-उक्त दोषों के कारण मुद्रा मानव जाति के लिए वरदान के साथ-साथ एक अभिशाप बन जाती है। इसलिए कुछ विद्वानों ने मुद्रा की समाप्ति का सुझाव दिया है, किन्तु यह सुझाव व्यावहारिक नहीं है। मुद्रा तो एक साधन-मात्र तथा जड़ पदार्थ है। इन बुराइयों के लिए स्वयं मुद्रा नहीं बल्कि मनुष्य का स्वभाव उत्तरदायी है। मुद्रा का अनुचित संग्रह तथा दुरुपयोग ही सभी बुराइयों की जड़ है।
यदि पिस्तील का प्रयोग किसी निर्दोष व्यक्ति को मारने के लिए किया जाता है तो यह दीष पिस्तौल का नहीं बल्कि उसके प्रयोग करने वाले का होगा। इसी प्रकार औषधि के अनुचित प्रयोग से शरीर को हानि ही होगी। मुद्रा का सावधानी तवा सतर्कता से प्रयोग करके मनुष्य इसकी बुराइयों को नियन्त्रित कर सकता है। वर्तमान समय में हम मुद्रा के प्रयोग के इतने अधिक आदी हो गए हैं कि इसके अभाव में हमारे लिए जीवन निर्वाह करना लगभग असम्भव होगा। अतः उचित यह ही है कि मुद्रा की बुराइयों पर समुचित नियन्त्रण रखकर इसे मानव जाति के लिए अधिकाधिक उपयोगी बनाया जाए। बेजहॉट (Bagehot) ने इस सम्बन्ध में ठीक हो कहा है, “मुद्रा स्वयं अपना नियन्त्रण नहीं करेगी। अतः मनुष्य को स्वयं मुद्रा पर नियन्त्रण रखना चाहिए।”
मुद्रा पर कुछ नियन्त्रण ये हो सकते हैं–(1) मुद्रा-संग्रह को अनुचित प्रवृत्ति निरुत्साहित करना, (2) मुद्रा के कुछेक व्यक्तियों के हाथों में संकेन्द्रण को रोकना (3) मुद्रा का अनावश्यक प्रसार न करना इत्यादि।
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