श्रम के लक्षण या विशेषताएँ (Peculiarities of Labour)
उत्पादन के एक महत्त्वपूर्ण उपादान के रूप में श्रम की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) श्रम नाशवान है (Labour is Perishable)- श्रम नाशवान है। श्रम का संचय नहीं किया जा सकता। यदि कोई श्रमिक किसी दिन कार्य नहीं करता तो उस दिन का उसका श्रम सदैव के लिए नष्ट हो जाता है।
(2) श्रम उत्पादन का अनिवार्य उपादान है (Labour is an Indispensable Factor of Production)-श्रम के बिना किसी प्रकार का उत्पादन नहीं किया जा सकता। कोई भी राष्ट्र श्रम के अभाव में अपने प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग नहीं कर सकता उत्पादन कार्य के लिए भूमि, पूंजी, संगठन तथा उथम सभी साधन श्रम पर ही निर्भर करते हैं। श्रम के अभाव में कोई भी राष्ट्र अपने प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग नहीं कर सकता।
(3) श्रम उत्पादन का सक्रिय उपादान है (Labour is an Active Factor of Production)-भूमि के निष्क्रिय (passive) उपादान हैं क्योंकि वे दोनों स्वयं उत्पादन नहीं कर सकते। उत्पादन तो तभी हो पाता है जबकि भूमि तथा पूंजी को श्रम का सहयोग प्राप्त होता है। इसलिए तथा पूंजी उत्पादन ‘श्रम’ को उत्पादन का सक्रिय उपादान कहा जाता है।
(4) श्रम निरन्तर सेवा प्रदान नहीं कर सकता (Labour cannot render Service Continuously)– यद्यपि श्रम उत्पादन का सजीव साधन है किन्तु यह सीमित समय तक ही कार्य कर सकता है, अर्थात् कोई श्रमिक मशीनों की भाँति लम्बे समय तक निरन्तर कार्य नहीं कर सकता। कुछ घन्टे कार्य करने के पश्चात् श्रमिक थक जाता है तथा उसे कार्य अवधि के बीच में विश्राम तथा मनोरंजन की आवश्यकता पड़ती है।
(5) श्रम को श्रमिक से पृथक् नहीं किया जा सकता (Labour cannot be separated from Labourer) श्रमिक को अपना श्रम प्रदान करने के लिए कार्य के स्थान पर जाना पड़ता है। इसलिए श्रमिकों पर कार्य स्थान की जलवायु, वातावरण, भाषा, रहन-सहन आदि का प्रभाव पड़ता है।
(6) श्रमिकों की कार्यकुशलता में अन्तर (Difference in Efficiency of Labourers) – सभी श्रमिक समान रूप से कार्यकुशल नहीं होते। कुछ श्रमिक अधिक कार्यकुशल होते हैं जबकि दूसरे कम कार्यकुशल होते हैं।
(7) श्रम उत्पादन का साधन तथा साध्य दोनों है (Labour is both Means and End of Production)- श्रमिक वस्तुओं का उत्पादक (साधन) तथा उपभोक्ता (साध्य) दोनों है, अर्थात् श्रमिक वस्तुओं का उत्पादन भी करता है तथा उनका उपभोग भी किन्तु भूमि तथा पूंजी उत्पादन के केवल उपादान है।
(8) श्रम गतिशील होता है (Labour is Mobile)– श्रमिक आसानी से एक स्थान तथा एक व्यवसाय से दूसरे स्थान को से दूसरे व्यवसाय में आ-जा सकता है। पिछड़े देशों की अपेक्षा उन्नत देशों के श्रमिक अधिक गतिशील होते हैं। किन्तु पूंजी की अपेक्षा श्रम कम गतिशील होता है क्योंकि धर्म, भाषा, खान-पान, परिवार का मोह आदि कई तत्त्व श्रम की गतिशीलता को घटाते हैं।
(9) श्रमिक की सोदा-शक्ति कम होती है (Labour has Weak Bargaining Power) सेवायोजक (employer) की तुलना में श्रमिकों में अपनी मजदूरी सम्बन्धी मोल-भाव करने की शक्ति कम पाई जाती है। इसके कई कारण है–[I] श्रम नाशवान होता है, (13) श्रमिकों में संगठन का अभाव होता है, तथा (iii) श्रमिकों की आर्थिक स्थिति कमजोर होती है, तथा (iv) रोजगार के साधनों पर सेवायोजकों (मालिकों) का अधिकार होता है।
(10) श्रम की कार्यकुशलता में वृद्धि की जा सकती है (Efficiency of Labour can be increased) – श्रमिकों की शिक्षा प्रशिक्षण आदि पर व्यय करके उनकी कार्यकुशलता को बढ़ाया जा सकता है। इससे श्रमिक पहले की अपेक्षा अधिक धनोत्पादन करने योग्य हो जाते हैं।
(11) श्रमिक अपने श्रम को बेचता है अपने आप को नहीं (Labourer sells his Labour but not himself) – श्रमिक अपने श्रम को बेचता है, किन्तु अपने शरीर, व्यक्तित्व, कला तथा गुणों का स्वामी बना रहता है। उदाहरणार्थ, जब डॉक्टर मरीज को देखने के बदले फीस लेता है तो वह अपनी सेवा को बेचता है, किन्तु अपने चिकित्सा-ज्ञान या कुशलता का वह स्वामी बना रहता है।
(12) श्रम की पूर्ति धीरे-धीरे कम या अधिक होती है (Supply of Labour increase or decrease slowly)— अमिकों की संख्या (पूर्ति) में परिवर्तन करने के लिए पर्याप्त समय की आवश्यकता पड़ती है। श्रम की पूर्ति में कमी वृद्धि दो प्रकार से की जा सकती है- (1) जनसंख्या में परिवर्तन द्वारा, तथा (ii) श्रमिकों की कार्यकुशलता में कमी या वृद्धि करके दोनों ही प्रकार में श्रम की पूर्ति में परिवर्तन धीरे-धीरे होता है।
(13) श्रम में बुद्धि तथा निर्णय-शक्ति होती है (Labour exercises Intelligence and Judgement) श्रमिकों में बुद्धि तथा निर्णय-शक्ति होती है जिनका प्रयोग में उत्पादन कार्य में करते हैं। भूमि तथा पूंजी में निर्णय लेने की कोई शक्ति नहीं होती।
(14) श्रम की माँग परोक्ष होती है (Demand for Labour is derived) – श्रमिकों की मांग उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं की मांग पर निर्भर करती है। यदि उत्पादित वस्तुओं की माँग अधिक होगी तो श्रमिकों की मांग भी अधिक होगी। इस प्रकार श्रमिकों की माँग प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष (Indirect) होती है।
(15) श्रम की पूर्ति तथा मजदूरी में विपरीत सम्बन्ध (Inverse Relation between Supply of Labour and Wages)—एक सीमा के पश्चात् मजदूरी में वृद्धि होने पर श्रम की पूर्ति कम होने लगती है, क्योंकि पर्याप्त या ऊँची मजदूरी मिलने पर श्रमिकों का जीवन स्तर उन्नत हो जाता है और ये अधिक कार्य की अपेक्षा विश्राम को अधिक पसन्द करने लगते हैं।
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