कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

सामान्य लाभ : अर्थ तथा निर्धारण (Normal Profit: Meaning and Determination)

सामान्य लाभ : अर्थ तथा निर्धारण (Normal Profit: Meaning and Determination)
सामान्य लाभ : अर्थ तथा निर्धारण (Normal Profit: Meaning and Determination)

सामान्य लाभ : अर्थ तथा निर्धारण (Normal Profit: Meaning and Determination)

अर्थ (Meaning)- प्रत्येक उत्पादक लाभ कमाने के उद्देश्य से ही उत्पादन कार्य करता है। हो सकता है कि अल्प काल में उसे लाभ प्राप्त न हो। अतः वह व्यवसाय की जोखिम झेलने के लिए तभी तैयार होगा जबकि उसे इस बात का विश्वास होगा कि भविष्य में वह लाभ प्राप्त कर सकेगा। इस आशा से ही वह कुछ समय तक अपना उत्पादन कार्य जारी रखेगा। अतः उद्यमी को कम से कम इतना लाभ अवश्य मिलना चाहिए ताकि वह उत्पादन कार्य को चालू रख सके। लाभ की इस न्यूनतम मात्रा को ही सामान्य लाभ (normal profit) कहा जाता है। मैकोनल के शब्दों में, “एक उद्यमी को किसी व्यवसाय में लगाए रखने के लिए कम से कम जितने भुगतान की आवश्यकता होती है उसे सामान्य लाभ कहा जाता है। एनातोल मुराद के अनुसार, “किसी फर्म के स्वामी की कम से कम जितने लाभ के अवश्य प्राप्त होने की सम्भावना होती है उसे सामान्य लाभ कहा जाता है। जब किसी व्यवसाय में सामान्य लाभ मिल रहा होता है तो उस व्यवसाय में नई फर्मों के प्रवेश करने की या पुरानी फर्मों में उसे छोड़ने की कोई प्रवृत्ति नहीं होती।

विशेषताएँ-  सामान्य लाभ की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-(1) दीर्घकाल में सामान्य लाभ प्रत्येक व्यवसाय में प्राप्त होता है। [2] सामान्य लाभ सीमान्त उद्यमों को भी प्राप्त होता है, क्योंकि यदि सीमान्त उद्यमी को सामान्य लाभ प्राप्त नहीं होगा तो वह उत्पादन कार्य बन्द कर देगा (3) सामान्य लाभ वस्तु की उत्पादन लागत तथा कीमत में शामिल रहता है।

निर्धारण (Determination) सामान्य लाभ का निर्धारण उद्यम की माँग तथा सम्भरण की शक्तियों द्वारा होता है। यदि उद्यमी के सम्मरण की अपेक्षा उसकी माँग अधिक है तो सामान्य लाभ की मात्रा अधिक होगी। इसके विपरीत, यदि किसी व्यवसाय में उद्यमी की माँग उसके सम्मरण की अपेक्षा कम है तो सामान्य लाभ की मात्रा कम होगी। वस्तुतः सामान्य लाभ की दर का निर्धारण वहाँ पर होता है जिस बिन्दु पर उद्यम की माँग तथा पूर्ति (सम्भरण) बराबर हो जाते हैं। लाभ सदैव प्रतिशत में निर्धारित किया जाता है।

असामान्य लाभ अर्थ तथा निर्धारण (Super-Normal Profit: Meaning and Determination)

अर्थ- किसी उद्यमी को सामान्य लाभ के अतिरिक्त जो आय प्राप्त होती है उसे असामान्य लाभ कहते हैं। हेन्सन (Hanson) के शब्दों में, “सामान्य लाभ के अतिरिक्त जो लाभ प्राप्त होता है वही असामान्य लाभ होता है।” सीमान्त उद्यमी को असामान्य लाभ प्राप्त नहीं होता असामान्य लाभ लागत का अंग नहीं होता जिस कारण वह कीमत को प्रभावित नहीं करता। इसके अतिरिक्त, किसी उद्योग में मिलने वाला असामान्य लाभ नई फर्मोंों को आकर्षित करता है।

प्रो० नाइट के विचार में, ज्ञात जोखिम उठाने के बदले सामान्य लाभ मिलता है। अतः कुल लाभ में से शुद्ध लाभ, अनुरक्षण व्यय तथा उद्यमी के निजी उपादानों के प्रतिफल को निकालकर जो शेष रहता है वह सामान्य लाभ होता है।

लाभ के सिद्धान्त (THEORIES OF PROFET)

शुद्ध लाभ के निर्धारण के बारे में अर्थशास्त्रियों ने अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं। इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में मतभेद है कि लाभ क्यों और कैसे उत्पन्न होता है। विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने लाभ के उत्पन्न होने के पृथक् पृथक् कारण बतलाए हैं। लाभ के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित है—–

(1) लाभ का जोखिम सिद्धान्त (Risk Theory of Profit)

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अमेरिकन अर्थशास्त्री हॉले (Hawley) ने किया है। उनके अनुसार उद्यमी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य जोखिम उठाना है। एक उद्यमी उत्पादन के अन्य साधनों को संगठित करके उत्पादन आरम्भ कराता है। इन साधनों को पहले से निर्धारित शर्तों के अनुसार उद्यमी को भुगतान करना पड़ता है। साधनों की सहायता से जो उत्पादन होता है उसे बेचने में समय लगता है। वस्तुओं का उत्पादन करने तथा उनकी बिक्री में जो समय का अन्तर होता है उसमें कई प्रकार के परिवर्तन हो सकते हैं। ऐसे परिवर्तनों के कारण यस्तु की बिक्री से प्राप्त कुल आय लागत से कम हो सकती है। अतः उद्यमी को हानि उठाने का जोखिम सहन करना पड़ता है। कोई उद्यमी जोखिम तभी उठाएगा जब उसे जोखिम के बदले कुछ पुरस्कार दिया जाए। यह पुरस्कार ही लाभ होता है। हॉले के शब्दों में, “एक व्यवसाय का लाभ प्रबन्ध तथा समन्वय का पुरस्कार नहीं है बल्कि यह जोखिम उठाने तथा उत्तरदायित्व का पुरस्कार है। हॉले के विचार में लाभ तथा जोखिम में आनुपातिक सम्बन्ध होता है। जोखिम जितनी अधिक होगी लाभ उतना ही अधिक होगा।

आलोचना (Criticism) इस सिद्धान्त में निम्न दोष निकाले गए हैं-

(1) जोखिम कम करने का पुरस्कार- प्रो० कारबर (Carver) ने इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए लिखा है, “लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार नहीं है बल्कि यह जोखिम को कम करने की योग्यता का पुरस्कार है।”

(2) सभी प्रकार की जोखिम से लाभ की प्राप्ति नहीं होती-नाइट (Knight) के विचारानुसार, “सभी प्रकार के जोखिम लाभकारी नहीं होते। केवल अनिश्चित जोखिम ही लाभ का आधार है। निश्चित जोखिम से तो बीमा कराकर बचा जा सकता है।” आग, चोरी, दुर्घटना आदि सम्बन्धी जोखिम को बीमा करवाकर दूर किया जा सकता है।

(3) लाभ तथा जोखिम में आनुपातिक सम्बन्ध नहीं- यह आवश्यक नहीं है कि अधिक जोखिम उठाने पर अधिक लाभ मिले ही।

(4) लाभ के अन्य कारणों की उपेक्षा- उद्यमी की प्रबन्ध करने की योग्यता, एकाधिकारी स्थिति, नवप्रवर्तन आदि के कारण भी लाभ उत्पन्न होता है। किन्तु इस सिद्धान्त में इन तत्वों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।

 

(2) लाभ का अनिश्चितता सिद्धान्त (Uncertainty Bearing Theory of Profit)

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अमेरिकन अर्थशास्त्री प्रो० नाइट (Knight) ने किया है। नाइट के अनुसार, “लाभ अनिश्चितता सहन करने का पुरस्कार है।” उद्यमी का एक महत्वपूर्ण कार्य अनिश्चितता सहन करना है और इस कार्य के प्रतिफल के रूप में लाभ प्राप्त होता है। नाइट ने अनिश्चितता को दो भागों में बाँटा है- (अ) निश्चित जोखिम, (ब) अनिश्चित जोखिम

(अ) निश्चित जोखिम (Certain Risks)——ऐसे जोखिम का पहले से ही अनुमान लगाया जा सकता है, जैसे चोरी, दुर्घटना, आग आदि से होने वाली हानि बीमा करवाकर ऐसी हानि से बचा जा सकता है। ये जोखिम, बीमा व्यय के कारण, लागत का ही अंग हो जाते हैं। इसलिए ऐसे जोखिम के लिए कोई लाभ नहीं मिलता।

(ब) अनिश्चित जोखिम (Uncertain Risks) ऐसे जोखिमों का पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं होता, इसलिए इनका बीमा भी नहीं कराया जा सकता। इन अनिश्चित जोखिमों के कारण ही लाभ उत्पन्न होता है। अनिश्चित जोखिम निम्न कारणों से हो सकती है-

(1) प्रतियोगिता सम्बन्धी अनिश्चितता- किसी उद्योग में नई फर्मों के प्रवेश करने तथा उनकी प्रतियोगिता शक्ति के बारे में सदैव अनिश्चितता बनी रहती है। नई फर्मों के प्रवेश के कारण पुरानी फर्मों की विक्री कम हो सकती है जिससे उनके लाभ घट सकते हैं।

(2) सरकारी हस्तक्षेप- कभी-कभी सरकार ऐसे कदम उठा लेती है जिनका उद्यमियों को कोई पूर्व अनुमान नहीं होता तथा जिनके परिणामस्वरूप उन्हें अनायास ही लाभ मिलता है या फिर हानि उठानी पड़ जाती है, जैसे मुद्रा का अवमूल्यन, आयात-निर्यात नियन्त्रण, कीमत नियन्त्रण, मौद्रिक नीति में परिवर्तन, न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण आदि ।

(3) तकनीकी जोखिम- ऐसा जोखिम उस समय होता है जब तीव्रता से होने वाले औद्योगिक आविष्कारों के कारण पुरानी मशीनों के बेकार हो जाने की आशंका रहती है।

(4) व्यापार चक्र- व्यवसाय में अचानक मन्दी आ जाने से माँग में भारी गिरावट आ जाती है जिस कारण उद्यमी को काफी हानि उठानी पड़ जाती है।

(5) बाजार सम्बन्धी अनिश्चितता- बाजार दशाओं में परिवर्तन के फलस्वरूप उद्यमी को अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है। जनसंख्या की आयु रचना, आय के वितरण, उपभोक्ताओं की रुचि व फैशन आदि में परिवर्तन के कारण माँग में अचानक कमी हो जाने पर उद्यमी को हानि उठानी पड़ सकती है।

आलोचना (Criticism)- (1) लाभ के अन्य तत्त्वों की उपेक्षा- लाभ केवल अनिश्चितता सहन करने का ही पुरस्कार नहीं है बल्कि प्रबन्ध, संगठन, नवप्रवर्तन आदि कार्यों का भी पुरस्कार है किन्तु इस सिद्धान्त में उद्यमी के अन्य कार्यों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।

(2) अनिश्चितता उत्पादन का पृथक् साधन नहीं- यह सिद्धान्त अनिश्चितता के तत्त्व को उत्पादन का एक पृथक् साधन मानता है जो उचित नहीं है। अनिश्चितता सहन करना तो उद्यमी के कार्यों की केवल एक विशेषता है।

(3) संयुक्त पूंजी कम्पनियों पर लागू नहीं होता- ऐसी कम्पनियों के अंशधारी (shareholders) लाभ के अधिकारी होते हैं किन्तु उद्यम सम्बन्धी कार्य कुछ वैतनिक प्रबन्धक ही करते हैं। इस प्रकार अधिकांश अंशधारी उद्यम सम्बन्धी कोई कार्य नहीं करते जबकि उन्हें अपने अंशों पर लाभांश (dividend) मिलता है।

(4) अस्पष्ट सिद्धान्त- आजकल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने एकाधिकारी शक्तियों प्राप्त करके लाभ में एक सीमा तक निश्चितता लाने में सफलता प्राप्त कर ली है। किन्तु यह सिद्धान्त ऐसी परिस्थिति को ध्यान में नहीं रखता।

(3) लाभ का नवप्रवर्तन सिद्धान्त (Innovation Theory of Profit)

इस सिद्धान्त के प्रतिपादक प्रो० शुम्पीटर (Schumpeter) के अनुसार उद्यमी का कार्य नवप्रवर्तन (innovation) अर्थात् नए आविष्कार करना तथा उन्हें लागू करना है। इन नवप्रवर्तनों के फलस्वरूप उद्यमी को जो पुरस्कार मिलता है वह ‘लाभ’ कहलाता है।

नवप्रवर्तन क्या है ? – शुम्पीटर ने ‘नवप्रवर्तन’ शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थों में किया है। उनके अनुसार तथा परिवर्तन, जिनके फलस्वरूप उत्पादन लागत को कम किया जा सकता है या वस्तु की माँग बढ़ाई जा सकती है, नवप्रवर्तन वे आविष्कार कहलाते हैं।

नवप्रवर्तन के प्रकार- शुम्पीटर के अनुसार नवप्रवर्तन पाँच प्रकार के हो सकते हैं–(1) नई वस्तु का उत्पादन (2) उत्पादन करने के नए ढंग की खोज, (3) नए कच्चे माल की खोज (4) नए बाजार की खोज, (5) उद्योग का पुनर्गठन (reorganisation) इन नवप्रवर्तनों के कारण होने वाले लाभ अस्थाई होते हैं क्योंकि कुछ समय बाद अन्य उद्यमी नवप्रवर्तन की नकल कर लेते हैं। किन्तु जब तक प्रतियोगी उद्यमी नवप्रर्वतन की नकल कर पाते हैं तब तक कुशल उद्यमी किसी दूसरे नवप्रवर्तन को अपनाने में सफल हो जाते हैं। इस प्रकार पुराने नवप्रवर्तनों का नवीन नवप्रवर्तनों द्वारा प्रतिस्थापन किए जाने के कारण एक गतिशील (dynamic) अर्थव्यवस्था में लाभ सदैव बने रहते हैं।

आलोचना (Criticism)- (1) अनिश्चितता को महत्व नहीं- शुम्पीटर ने लाभ के निर्धारण में अनिश्चितता (uncertainty) को कोई महत्व नहीं दिया है जबकि सभी नवप्रवर्तनों में अनिश्चितता होती है। यदि अनिश्चितता न हो तो लाभ भी मजदूरी के समान हो जाएगा।

(2) जोखिम सम्बन्धी कार्य की उपेक्षा- शुम्पीटर ने उद्यमी के जोखिम उठाने के कार्य को कोई महत्त्व प्रदान नहीं किया है।

(3) लाभ के अन्य कारणों की अवहेलना- इस सिद्धान्त में लाभ उत्पन्न होने के अन्य कारणों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।

(4) लाभ का गत्यात्मक सिद्धान्त (Dynamic Theory of Profit)

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो० जे०बी० क्लार्क (J.B. Clark) ने किया है। क्लार्क के अनुसार, ‘लाभ’ एक गत्यात्मक आधिक्य (dynamic surplus) है जो केवल गत्यात्मक स्थिति में उत्पन्न होता है। स्थायी अवस्था (static condition) में कोई लाभ नहीं मिलता क्योंकि ऐसी अवस्था में माँग, पूर्ति, जनसंख्या, पूँजी आदि आर्थिक तत्त्वों में कोई परिवर्तन नहीं होता। अगत्यात्मक अवस्था में उद्यमी के लिए कोई जोखिम या अनिश्चितता नहीं होती तथा वस्तु की कीमत और औसत लागत बराबर रहती है।

वास्तव में समाज में गत्यात्मक अवस्था पाई जाती है जिसमें निम्न प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं-

(1) जनसंख्या में परिवर्तन के कारण मांग की मात्रा में होने वाले परिवर्तन।

(2) फैशन तथा रुचि में परिवर्तन के कारण माँग की प्रकार में परिवर्तन।

(3) उत्पादन की तकनीक में परिवर्तन।

(4) पूँजी की मात्रा में परिवर्तन।

(5) व्यावसायिक संगठनों के रूप में परिवर्तन।

आलोचना (Criticism)-(1) सभी परिवर्तनों के कारण लाभ नहीं-सभी परिवर्तनों के कारण लाभ का उदय नहीं होता बल्कि लाभ केवल अनिश्चित परिवर्तनों का परिणाम है।

(2) महत्त्वपूर्ण तत्त्वों की उपेक्षा- क्लार्क ने अपने लाभ सिद्धान्त में न केवल अनिश्चितता’ के तत्व की उपेक्षा की है बल्कि लाभ को जोखिम का पुरस्कार भी नहीं माना है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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