हिन्दी पत्रकारिता के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिए।
हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव और विकास
भारत में पत्रकारिता का आरम्भ जेम्स अगस्ट्स हिक्की के अखबार ‘बंगाल गजट’ से 1780 में हुआ। इसके बाद अठारहवीं सदी के अंत में क्रमश: ‘बंगला जनरल’ और ‘कलकत्ता कानिकल आए। इन पत्रों का प्रकाशन स्थल कलकत्ता रहा। इसीलिए कलकत्ता को ‘भारतीय पत्रकारिता का मुख्य द्वार’ कहा गया है। इन अखबारों का उद्देश्य भारत में ब्रिटिश उत्पादों का प्रचार-प्रसार करना था। आजादी की लड़ाई में शामिल लोगों को भी यह अंदाजा होने लगा कि उनका उद्देश्य इन अंग्रेजी दैनिकों के सहारे पूर्ण नहीं हो सकता; अतः यह बात सभी लोगों ने महसूस की कि बगैर हिन्दी भाषा को अपनाये आजादी की राह में मुश्किलें घटेंगी नहीं बल्कि बढ़ेगी ही। हिन्दी अधिकांश प्रदेशों में बोली जाने वाली भाषा थी, अतः आजादी के सिपहसालारों ने राष्ट्रज्योति जलाने का माध्यम हिन्दी को ही बनाया।
हिन्दी में अखबार निकाले जाने की बात सोची जाने लगी और सबसे पहला अखबार 30 मई, 1826 को ‘उदन्त मार्तण्ड’ के रूप में सामने आया जो साप्ताहिक था। इसके बाद राममोहन राय का ‘बंगदूत’ 1829 और 1878 में ‘भारत मित्र’ निकला। इसके बाद क्रमशः ‘सार सुधानिधि’ 1879, ‘उचित वक्ता’ 1880, ‘सरस्वती’ 1900 आदि अनेक पत्र क्रमशः प्रकाशित होने लगे।
स्पष्ट है कि हिन्दी पत्रकारिता ने अपनी शैशवावस्था में ही स्वाधीनता आन्दोलन का विस्तृत धरातल पा लिया था। अतः उसे फलने-फूलने के अनुकूल अवसर अधिक मिले। वास्तव में आजादी की लड़ाई में शामिल लोगों के लिए अखबार एक बेहतर हथियार बन चुका था।
सन् 1947 तक जितने भी हिन्दी अखबार निकले, उनका एकमात्र उद्देश्य भारत की आजादी तथा हिन्दुस्तानी समाज में फैली बुराइयों को दूर करना और एक नये हिन्दुस्तान का निर्माण करना था। एक और महत्वपूर्ण बात फिर भी रह जाती है कि 1826 से लेकर 1947 तक जो भी हिन्दी दैनिक पत्र आए (साहित्यिक पत्रों को छोड़कर) उनकी भाषा शैली कैसी थी। इनमें संस्कृतनिष्ठ और विशुद्ध हिन्दी की जगह सरल हिन्दी का प्रयोग होता था, जिसमें उर्दू के शब्द भी मिश्रित हुआ करते हैं क्योंकि पत्रों का काम जन-जन तक अपनी बात पहुंचाना था।
बीसवीं शताब्दी में हिन्दी पत्रकारिता ने राजनीतिक पत्रकारिता को एक दिशा देकर अपने को अलग कर लिया और तब विशुद्ध राजनीतिक पत्रिकाओं का अस्तित्व सामने आया। इस श्रेणी में पहली पत्रिका 1907 की ‘नृसिंह’ थी, संपादक थे- अंबिका प्रसाद बाजपेयी। परन्तु बाद में भिन्न राजनीतिक विचारधाराएँ आपस में टकरायी और प्रतिफल के रूप में ऐसी अनेक पत्र-पत्रिकाओं का अस्तित्व सामने आया जिन्होंने अलग-अलग विचारधाराओं को संपोषित करने का बीड़ा उठाया। परवर्ती काल में दैनिक पत्रों में राजनीतिक पत्रकारिता सिमट गयी। इन पत्रों में प्रमुख थे- प्रताप, आज, हिन्द केसरी, अभ्युदय, कर्मवीर, संघर्ष, जीवन साहित्य, जन, पांचजन्य, भूदान, जनयुग, मुक्तधारा।
‘इस दौर के कलम के धनी राजनीतिक पत्रकारों का भी उल्लेख किया जाना चाहिए – मदनमोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, माधवराव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराड़कर, सम्पूर्णानन्द, पुरुषोत्तमदास टंडन, आचार्य नरेन्द्रदेव, राममनोहर लोहिया, श्रीप्रकाश और कमलापति त्रिपाठी आदि ऐसे नाम हैं, जिन्होंने राजनीतिक पत्रकारिता को न सिर्फ दिशा दी बल्कि उनकी दिशा में परिवर्तन के लिए भी महत्वपूर्ण योगदान किया।
स्तरीय संवाद-पत्रिका के रूप में ‘दिनमान’ हिन्दी पत्रकारिता में प्रथम सुरुचिपूर्ण प्रयोग थी, जिसके सम्पादक थे सच्चिदानन्द हौसनंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’। इस पत्रका ने लोगों की राजनीतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक भूख मिटाई। अपने उत्कृष्ट लेखन से सभी पाठकवर्ग को अपनी ओर खींचने में सर्वाधिक सफल ‘आज’ रहा। पं. विष्णु पराड़कर के सम्पादकत्व में इसका स्वरूप अत्यधिक विस्तारित और विशिष्ट हो गया।
इसी तरह डॉ. धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ को एक नई ऊंचाई दी। उन्होंने बिना किसी भेदभाव के सभी नये-पुराने लेखकों की रचनाओं को ‘धर्मयुग’ आने दिया। प्रादेशिक भाषा की रचनाओं को धर्मयुग में स्थान देकर उन्होंने जिस साहित्यिक वर्ग-भेद को मिटाया, उसने हिन्दी को प्रतिष्ठिा करने में भरपूर सहायता की। अपने सम्पादकत्व में डॉ. भारती ने ‘धर्मयुग’ की न केवल प्रसार संख्या बढ़ायी, बल्कि स्तरीय स्खलन से भी उसको बचाए ही रखा।
‘हंस’ और ‘वसुधा’ से मुक्तिबोध का काफी समय तक जुड़ाव रहा। शिवपूजन सहाय और श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने बहुत सारी पत्रिकाओं का सम्पादन किया। डॉ० रामविलास शर्मा, हरिशंकर परसाई, श्रीकान्त वर्मो, मनोहर श्याम जोशी, मोहन राकेश आदि वर्तमान युग के अधिकांश कृती लेखकों का सम्बन्ध साहित्यिक पत्रिकाओं से अवश्य रहा है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् नेताओं की देखी देखी आम जनता के मन में भी सुख की लालसा पनपने लगी और धीरे-धीरे जीवन मूल्यों से लेकर आदर्श आदि सभी में बदलाव तो आया पर ह्रासोन्मुख राष्ट्रपिता के जिन सिद्धान्तों और अहिंसा की शक्ति का लोहा विश्व ने माना, उसी बापू को अपने ही घरवालों ने भुला दिया। आज पूरा देश लाभ-लोभ के दलदल में सना हुआ है। शायद इसी विकट क्षण को भाँपकर महादेवी ने आधुनिक राजनीति को सनकी कहा था।
बँटवारे के समय भड़की जातीय हिंसा से ही लोगों के मन में देशभक्ति और देशप्रेम के स्थान पर स्वार्थ की भावना अधिक से अधिक गहरी होती चली गयी। बुद्धिजीवियों के लिए आज सबसे बड़ी चुनौती सांस्कृतिक एकता को बचाए रखना और देश की अखण्डता कायम रखने की है। सत्तों में बने रहने की इच्छा ने ही पूरे माहौल को भ्रष्ट बनाया है और जाहिर है, इसका असर व्यापक हुआ है जिससे पत्रकार, साहित्यकार और पत्रकारिता भी अछूते नहीं रह पाये हैं। इसी कारण जो पत्रकारिता पहले एक मिशन, एक चुनौती हुआ करती थी वह आज विशुद्ध रूप से व्यावसायिक हो गयी है। हालांकि इसका एक कारण और भी है- पहले, पत्र का संपादक मालिक एक ही व्यक्ति होता था। परन्तु आज सभी लोग अलग-अलग दायित्वों का निर्वाह कर रहे है। मालिक कोई एक व्यक्ति होता है और वह शुद्ध व्यवसायी होता है। घाटे में चलने वाले पत्र को कोई निपुण व्यवसायी चलाना नहीं चाहता। अच्छे पत्रों का धीरे-धीरे बन्द होते चले जाना इसी बात का द्योतक है। पूर्व की स्थिति में मालिक, सम्पादक, मुद्रक सभी का दायित्व एक ही व्यक्ति पर होने के कारण उसका रुख समझौतावादी होता था, फलतः अखबार के प्रकाशन का सम्बन्ध उसके मुनाफे में चलने या घाटे में चलने से कदापि नहीं होता था।
इन सच्चाइयों के बावजूद एक तथ्यात्मक पहलू यह भी हैं कि आजादी के बाद निश्चित रूप से पत्रकारिता की चौतरफा उन्नति हुई है। इस उन्नति को पाठक-संख्या की वृद्धि और नई-नई जगहों से पत्रों का निकलना अनवरत जारी रहने के रूप में समझा जा सकता है। एक पत्र के अनेक संस्करण भी इसी दिशा में एक कड़ी है। हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ अपने वृहत् उद्देश्य को पूरा करने में जुटी हैं परन्तु पत्रकारिता ने विकास के उस पड़ाव तक तो नहीं ही अपना डेरा जमाया है जितनी ही अपेक्षा उससे थी। इसका एक कारण आज भी हिन्दी का सम्पर्क भाषा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो पाना है। अंग्रेजी का पिछलग्गू बनकर तो शायद यह संभव नहीं ही हो। सभी के सम्मिलित प्रयास से ही हिन्दी का स्वतंत्र अस्तित्व कायम हो सकता है और इसके लिए राजनेताओं, साहित्यकारों, पाठकों सभी का सहयोग अपेक्षित हैं। इतनी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हिन्दी अभी भी अपनी अभिवृद्धि के लिए सारी संभव कोशिशें कर रही है। इस दिशा में उन हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेख आवश्यक है जिनकी सहायता से यह कार्य हो रहा है प्रमुख हिन्दी पत्रिकाओं में धर्मयुग, रविवार दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान (सभी बन्द), कादम्बिनी, सरिता, माया, विज्ञान प्रगति, इंडिया टुडे, मुक्ता आदि हैं। इनके अतिरिक्त मनोहर कहानियाँ, नूतन कहानियाँ और महिलाओं की पत्रिकाओं में गृहशोभा, मनोरमा, मेरी सहेली, माधुरी, वनिता आदि हैं जो हिन्दी की प्रतिस्थापना में अपना अंशदान कर रही है।
धर्म और अध्यात्म से सम्बन्धित पत्रों में मासिक ‘कल्याण’ का स्थान सर्वोच्च है। संस्कृति और संस्कारों के हस्तांतरण का माध्यम यह पत्रिका बनी है।
वर्तमान में हिन्दी पत्रकारिता ने अलग-अलग स्वरूपों में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। परिणामतः आज हिन्दी में बाल पत्रिकाएँ हैं तो फिल्मी पत्रिकाएँ भी हैं। विज्ञान पत्रिकाएँ हैं तो प्रतियोगिता सम्बन्धी पत्रिकाएं भी हैं। हिन्दी में ज्योतिष और आयुर्वेद से सम्बन्धित पत्रिकाएँ निकल रही हैं, तो राजनीतिक विचारधाराओं के मुखपत्र भी निकल रहे है। हास्य और व्यंग्य की पत्रकारिता सक्रिय है, तो केवल यौन समस्याओं पर केन्द्रित पत्रिकाएँ भी छप रही हैं। विषयों की यह विविधता हिन्दी पत्रकारिता की विविध दशाओं की परिचायक कही जा सकती है।
हिन्दी पत्रकारिता का क्षेत्र जितना विशाल है उस दृष्टि से आज तक की स्थिति केवल संतोषजनक कही जा सकती है। आज एक हिन्दी अखबार को औसतन 10-15 पाठक तो नसीब होते ही हैं और अंग्रेजी अभी तक इस सुख से वंचित है। लेकिन यह भी एक कटु वास्तविकता है कि हिन्दी पत्रकारिता में जो चुनौतियां तीन-चार दशक पहले थीं, कमोवेश वहीं स्थिति आज भी बरकरार है। आज जरूरत है संकीर्णता के उस दायरे से बाहर निकलने की जिसकी वजह से हिन्दी और हिन्दीभाषियों को विवशता की इस त्रासदस्थिति का सामना करना पड़ रहा है। अगर संविधान में संशोधन की आवश्यकता हो तो वह किया जाए, कड़े कानूनी उपाय किए जायें ताकि हमारी अपनी भाषा वह स्थान पा सके जिसे गलतफहमीवश हमने अंग्रेजी को सौंप दिया है।
आज के काम्प्यूटर युग में चाहे इलेक्ट्रॉनिक अखबार की बात सोची जाने लगी हो, वीडियो पत्रिकाओं का प्रचलन बढ़ा हो, अबके बच्चे बाल साहित्य की जगह वीडियो गेम्स और रिमोट कंट्रोल के खिलौनों को ज्यादा तरजीह दे रहे हों, परन्तु यह सारा कुछ क्षणिक है। स्मरणीय है कि यह हमारे देश में प्रोजेक्टर और पर्दे से हटकर वीडियो फिल्मों का दौर आया तो सभी ने सोचा कि अब सिनेमा हॉल में लगी फिल्म को देखने की जहमत लोग उठायेंगे ही नहीं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। थोड़े अन्तराल के बाद समय बदलते ही फिल्मों ने पुनः उसी लोकप्रियता को पा लिया, जहाँ पहले वह थी। मूल बात यह है कि लाख संचार क्रांतियाँ होती रहें परन्तु पत्रिकाओं-पत्रों का सार्वकालिक महत्व, चाहे वह किसी पाठकवर्ग से सम्बन्धित हो, नकारा नहीं जा सकता। बीच-बीच में थोड़े-बहुत व्यवधान तो आते ही रहते हैं, जिनका हल भी खुद-ब-खुद निकलता जाता है। एक दूसरी बात विश्वसनीयता की है और बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज लोगों का पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों की भाषा पर से विश्वास उठ गया है। इस विखंडित लोक विश्वास को पुनः वापस पाकर ही सांस्कृतिक चुनौतियों का मुकाबला किया जा सकता है। हिन्दी में यह शक्ति है और पत्रकारिता के स्तर पर हिन्दी इस चुनौती का सामना कर रही है। आज हिन्दी पत्रकारिता में कुछ नये प्रयोगों की भी आवश्यकता है ताकि लोग हिन्दी सत्ता की ओर उन्मुख हो।
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