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अभिवृद्धि तथा विकास से आप क्या समझते हैं? विकास की विशेषताएं बताइए।
अभिवृद्धि का अर्थ- आमतौर पर अभिवृद्धि का अर्थ विकास के अर्थ में ही लिया जाता है। किन्तु अभिवृद्धि का यह अर्थ सही नहीं है। वास्तव में स्त्री के गर्भधारण करने के तुरंत पश्चात ही बालक की अभिवृद्धि की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। वास्तव में अभिवृद्धि कोष्ठों के निरन्तर घटने बढ़ने की प्रक्रिया है। यद्यपि अभिवृद्धि का परिणाम विकास के रूप में सामने आता है, फिर भी यह आवश्यक नहीं कि जिस मात्रा में बालक की अभिवृद्धि हो उसी मात्रा में उसका शारीरिक और मानसिक विकास भी हो। किसी व्यक्ति की शारीरिक अभिवृद्धि तीव्र हो सकती है, जबकि मानसिक विकास उस गति से नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए यह आवश्यक नहीं है कि एक हष्ट-पुष्ट बालक मानसिक दृष्टि से भी हष्ट पुष्ट ही हो । यद्यपि आमतौर पर एक स्वस्थ शरीर में अभिवृद्धि व विकास का अनुपात आमतौर पर एक निश्चित अनुपात में ही रहता है। इस प्रकार अभिवृद्धि का सम्बन्ध बालक के शरीर से है जबकि विकास का सम्बन्ध उसकी मानसिक अवस्था एवं उसके कार्यों से है। मानव शरीर के कोष्ठों की संख्या तथा आकार में परिवर्तन ही अभिवृद्धि है और विकास इन कोष्ठों के कार्य करने की क्षमता घटना बढ़ना है। यदि शरीर का प्रत्येक भाग सुचारू रूप से अपना कार्य करता है तो वह विकास की ओर बढ़ रहा होता है। अभिवृद्धि एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। इसमें बाधा उत्पन्न नहीं होती। हां समय-समय पर इसमें कुछ भेद अवश्य हो सकता है। हरलॉक ने अभिवृद्धि को परिभाषित करते हुए लिखा हैं कि “अभिवृद्धि मात्रात्मक या परिणात्मक परिवर्तनों की ओर संकेत करती है। अर्थात आकार और ढांचे में वृद्धि।”
विकास का अर्थ –
शरीर के विभिन्न कोष्ठों के आकार एवं संख्या में परिवर्तन को अभिवृद्धि कहा जाता है और विकास शरीर के इन कोष्ठों के कार्य करने की ओर संकेत करता है। शरीर के प्रत्येक भाग का ठीक-ठाक काम करते रहना विकास का सूचक है। विकास से ही मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता है। जिसमें उसका मानसिक, . संवेगात्मक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास शामिल है। विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है और यह प्रक्रिया जन्म से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती है। बालक के विकास का अभिप्राय उसके गर्भ में आने से लेकर प्रौढ़ता प्राप्त होने के क्रम से है। बालक जब गर्भ में होता है तो उसका यह विकास का क्रम निश्चित होता है। गर्भ से बाहर आने के बाद उसके विकास का एक नया क्रम प्रारम्भ होता है। संक्षेप में विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो जन्म से पूर्व ही उसके गर्भ में आ जाने के साथ प्रारम्भ हो जाती है। कुछ विद्वानों ने विकास को परिभाषित करने का भी प्रयास किया है।
मुनरो के अनुसार, “परिवर्तन श्रृंखला जिसमें बालक भ्रूण अवस्थ से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास के नाम से जानी जाती है।”
हरलॉक के अनुसार, “विकास बढ़ने (बड़े होने) तक ही सीमित नहीं है। यह व्यवस्थित तथा समानुगत प्रगतिशील क्रम है जो परिपक्वता की प्राप्ति में सहायक होता है।”
उपरोक्त परिभाषाओं स्पष्ट है कि विकास का तात्पर्य केवल बालक के बढ़ने से ही नहीं बल्कि विकास का अर्थ बालक में होने वाले निरन्तर परिवर्तन क्रम से है। विकास की यह प्रक्रिया बालक के जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है। इस निरन्तर परिवर्तन क्रम को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है।
(1) आकार में परिवर्तन- जैसे-जैसे बालक की आयु बढ़ती है उसके आकार में – परिवर्तन होने लगते हैं। बालक का कद, वजन बढ़ने लगता है तथा उसके शरीर के अन्य भागों का भी विकास होने लगता है। बालक के शरीर के आंतरिक भाग जैसे हृदय, फेफड़े, नाड़ियाँ आदि भी विकसित होने लगती हैं। उसी के अनुरूप बालक का मानसिक विकास भी होने लगता है।
( 2 ) अनुपात में परिवर्तन- जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है उसके शरीर में अनुपातिक परिवर्तन होने लगता है। उसकी मानसिक क्रियाओं के विकास में भी अनुपातिक परिवर्तन होने प्रारम्भ हो जाते हैं। बालक की रुचि, कल्पना, क्षमता, बुद्धि आदि में अनुपातिक परिवर्तन होते हैं।
( 3 ) पुराने लक्षण समाप्त होना – बालक की उम्र जैसे-जैसे बढ़ती है उसके अनेक पुराने लक्षण समाप्त होने प्रारम्भ हो जाते हैं। उदाहरण के लिए शैशवावस्था में बालक के शरीर में ग्रीवा तथा शीर्ष नाम की दो ग्रन्थियां होती हैं लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता है उसकी यह ग्रन्थियां लुप्त हो जाती हैं। इसका एक और उदाहरण बालक के दूध के दांत भी हैं जैसे-जैसे वह बड़ा होता है उसके दूध के दांत टूटने लगते हैं और उसके स्थान पर नये दांत आने लगते हैं।
(4) नवीन लक्षणों का परिलक्षित होना – विकास की इस प्रक्रिया में बालक के पुराने लक्षणों के समाप्त हो जाने के साथ-साथ बालक नवीन लक्षणों को ग्रहण करने लगता हैं यह नवीन लक्षण शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार के होते हैं। किशोरावस्था में तो बालक के शरीर में खास परिवर्तन आने प्रारम्भ होते हैं जैसे लड़कों की दाढ़ी, मूंछ निकलना, उनकी आवाज में परिवर्तन आ जाना आदि। बालिकाओं में ये लक्षण उनकी स्तनों में उभार एवं मासिक धर्म आदि के रूप में देखे जा सकते हैं ।
विकास की परिभाषाओं, अर्थ व उसके क्रमों को जान लेने के बाद विकास की कुछ प्रमुख विशेषताएं स्पष्ट होती हैं।
विकास की विशेषताएँ
- विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, और इसमें क्रमिक परिवर्तन पाये जाते हैं।
- विकास की विभिन्न अवस्थाएं होती हैं और विकास प्रत्येक अवस्था में समान नहीं होता।
- विकास प्रगतिपूर्ण होता है।
- बालक-बालिकाओ में होने वाले क्रमिक परिवर्तनों का एक दूसरे साथ सम्बन्ध रहता है।
- विकास की प्रक्रिया में होने वाले परिवर्तन मात्रात्मक होते हैं। प्राचीन समय में इन परिवर्तनों की गुणात्मक माना जाता रहा है।
- विकास के परिवर्तनों की गति एक समान नहीं होती। भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में यह गति भिन्न-भिन्न होती है। उदाहरण के लिए गर्भावस्था में विकास की गति बहुत तीव्र और प्रौढ़ावस्था में गति बहुत ही कम हो जाती है।
- बालक में शारीरिक या मानसिक विकास के परिणामस्वरूप बालकों में अनेक विशिष्ट लक्षण प्रकट होने लगते हैं। किशोरावस्था में हुए परिवर्तन इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
प्रायः अभिवृद्धि और विकास को एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है, क्योंकि वे दोनों ही शब्द बढ़ने की दिशा की ओर संकेत करते हैं। फिर भी दोनों शब्दों के मूल रूप में अंतर पाया जाता है।
अभिवृद्धि और विकास में अन्तर इस प्रकार है-
- अभिवृद्धि क्रमिक व दीर्घकाल में स्थिर बना रहता है जबकि विकास के अंतर्गत आकस्मिक व रुक-रुककर परिवर्तन होता है।
- अभिवृद्धि के अंतर्गत किसी नवीनता का सृजन नहीं होता है जबकि विकास में नई शक्तियों से नये मूल्यों का निर्माण किया जाता है तथा प्रचलित तथ्यों में सुधार किया जाता है।
- अभिवृद्धि स्थैतिक साम्य की स्थिति है। इसमें देश उन्नति तो कर सकता है लेकिन इसकी गति अत्यंत धीमी होती है जबकि विकास गतिशील साम्य का एक रूप जिसमें एक देश तीव्र गति से उन्नति की ओर अग्रसर होता है।
- अभिवृद्धि विशेष आयु तक चलने वाली प्रक्रिया है जबकि विकास जन्म से मृत्यु तक चलने वाली प्रक्रिया है।
- अभिवृद्धि के परिवर्तनों को देखा तथा नापा जा सकता है जबकि विकास के परिवर्तनों की केवल अनुभव किया जा सकता है।
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