आधुनिक शिक्षण प्रतिमान से आप क्या समझते हैं ? आधुनिक शिक्षण प्रतिमानों का वर्गीकरण कीजिए।
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आधुनिक शिक्षण प्रतिमान (Modern Teaching Models)
शिक्षण प्रतिमानों का तीसरा प्रकार आधुनिक शिक्षण प्रतिमान कहा जाता है। इस प्रतिमान को बी० आर० जुआईस (B. R. Joyce) ने प्रतिपादित किया। इन्होंने प्रतिमानों के वर्गीकरण में लक्ष्य (goals) को आधार माना है। एक वर्ग में सामाजिक अन्तःप्रक्रिया, दूसरे वर्ग में सूचना प्रक्रिया, तीसरे वर्ग में व्यक्तिगत विकास एवं चौथे वर्ग में व्यवहार परिवर्तन को महत्त्व दिया है। आधुनिक शिक्षण प्रतिमान के वर्गीकरण एवं उपवर्गीकरण निम्नलिखित हैं-
(1) सामाजिक अन्तःप्रक्रिया प्रतिमान (Social Interaction Models)
इस प्रकार के शिक्षण प्रतिमान में व्यक्ति की सामाजिक क्षमताओं के विकास पर अधिक बल दिया जाता है क्योंकि मानव स्वभाव से सामाजिक सम्बन्धों को अधिक महत्त्व देता है। इन प्रतिमानों का प्रयोग प्रजातंत्र प्रणाली में प्रभावशाली ढंग से किया जाता है। इस वर्गीकरण को चार उपवर्गों में विभक्त किया गया है जो निम्नलिखित हैं-
(i) सामूहिक अन्वेषण प्रतिमान (Group Investigation Model)
सामूहिक अन्वेषण प्रतिमान को जॉन डिवी एवं किलपैट्रिक ने विकसित किया। इसमें समाजीकरण को प्रधानता दी गई है। इस प्रतिमान का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक क्षमताओं का विकास करना है जिससे प्रजातांत्रिक जीवन में समायोजन कर सकें। छात्र के समक्ष समस्या प्रस्तुत की जाती है। समस्या शाब्दिक रूप में नहीं अपितु वास्तविक रूप में प्रस्तुत की जाती है जिससे छात्र को अनुभव प्रदान किया जा सके। छात्रों को शिक्षक द्वारा समस्या दी जाती है। समस्या के प्रतिपादन के बाद वे उसके समाधान के लिए प्रयास करते हैं। वे स्वयं क्रियाओं की व्यवस्था करते हैं। अन्त में समूह समस्या के समाधान का मूल्यांकन करता है कि उद्देश्य की प्राप्ति हो सकी है अथवा नहीं। इस तरह यह चक्र चलता रहता है। सामाजिक व्यवस्था प्रजातांत्रिक होती है। शिक्षक एवं छात्र दोनों ही इसमें क्रियाशील रहते हैं। छात्र को सीखने के लिए इसमें पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की जाती है। शिक्षक छात्रों की समस्याओं के समाधान के लिए अभिप्रेरणा देता है। शिक्षण एवं छात्र का स्तर समान होता है लेकिन इसके कार्य अलग-अलग होते हैं। शिक्षक निर्देशक के साथ-साथ परामर्शदाता का भी कार्य करता है। शिक्षक को छात्रों की क्रियाओं के सम्बन्ध में सतर्क रहना पड़ता है। मूल्यांकन में उद्देश्यों एवं छात्रों की आवश्यकता को ध्यान में रखा जाता है। वास्तव में छात्रों की समस्या के समाधान की सार्थकता, प्रतिमान् की सफलता का प्रमुख मापदण्ड होता है। छात्रों की समस्याओं के सम्बन्ध में जितनी सूचनाएँ ज्ञात उनके आधार पर मूल्यांकन किया जाता है। इस प्रतिमान को सामाजिक अन्तः प्रक्रिया एवं सामाजिक सीखने की प्रक्रिया के लिए प्रयुक्त किया जाता है। विषयों की समस्या समाधान के लिए भी इसका प्रयोग किया जा सकता है।
(ii) ज्यूरिस प्रुडेन्शियल प्रतिमान (The Juris Prudential Model)
ज्यूरिस प्रुडेन्शियल प्रतिमान के प्रवर्त्तक ऑलीवर एवं शेपर हैं। इसका प्रयोग समायोजन की क्षमताओं के विकास के लिए किया जाता है। इसमें सूचनाओं एवं तथ्यों के आधार पर सामाजिक समस्या को तर्कपूर्ण ढंग से सोचने एवं समझने की क्षमताओं का विकास करना होता है। इसको सीखने की परिस्थितियाँ, सामाजिक जीवन की समस्याओं को पहचानने से आरम्भ होती हैं। इन समस्याओं को शिक्षक एवं छात्रों के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। कक्षा एवं सामाजिक तनावों से भी समस्या उत्पन्न हो जाती है। शिक्षक को विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ करनी होती हैं जिनकी सहायता से छात्र एवं शिक्षक के मध्य अन्तः क्रिया होती है। इस प्रतिमान से छात्र में शिक्षकों की सुनिश्चित क्रियाओं द्वारा सामाजिक समस्या के समझने की क्षमताओं का विकास किया जाता है।
(iii) सामाजिक पृच्छा प्रतिमन (Social Inquiry Model)
सामाजिक पृच्छा प्रतिभ न के प्रवर्तक कोक्स (Cox) एवं बाइरोन (Biron) माने जाते हैं। इससे सामाजिक समस्याओं के समाधान की क्षमताओं का विकास किया जाता है। इस प्रतिमान का उद्देश्य सामाजिक विषयों का बोध कराना होता है। इसमें ज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों की प्राप्ति को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इस प्रतिमान में छः सोपानों का अनुसरण किया जाता है जो निम्नलिखित हैं-
- प्रथम सोपान में समस्या के कथन की व्याख्या की जाती है जिसे आरम्भिक बिन्दु माना जाता है।
- द्वितीय सोपान में समस्याओं के लिए परिकल्पनाओं का प्रतिपादन किया जाता है जो सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए दिशा प्रदान करती हैं।
- तृतीय सोपान में परिकल्पनाओं के चरों का विश्लेषण किया जाता है जिससे समाधान का स्पष्टीकरण होता है।
- चतुर्थ सोपान में परिकल्पनाओं की तर्कपूर्ण ढंग से वैधता एवं विश्वसनीयता निर्धारित की जाती है।
- पंचम सोपान में परिकल्पनाओं की पुष्टि के लिए तथ्यों एवं प्रदत्तों को एकत्रित किया जाता है।
- षष्ठम सोपान में समस्या के समाधान का कथन के रूप में उल्लेख किया जाता है।
इसे सामान्यीकरण कहा जाता है। शिक्षक छात्रों के लिए परामर्शदाता का कार्य करता है। छात्रों के चिंतन स्तर के लिए अधिक अवसर दिया जाता है। शिक्षक यह प्रयास करता है कि छात्र स्वयं को समझ सके एवं अपने मार्ग को स्वयं निर्धारित कर सके। शिक्षक छात्रों को प्रोत्साहित करता है जिससे सोपानों का अनुसरण समुचित ढंग से करें। वाद-विवाद को स्वतंत्र रूप में व्यवस्थित किया जाता है जिससे समानता का अवसर दिया जा सके। इस प्रतिमान का मूल्यांकन करना कठिन है क्योंकि इसके मूल्यांकन में छात्रों की सूचनाएँ एकत्रित करने की क्षमता, परिकल्पनाओं का प्रभावीकरण, प्रदत्तों का संकलन एवं समस्या के समाधान के कथनों को ही ध्यान में रखा जाता है।
(iv) प्रयोगशाला विधि प्रतिमान (Laboratory Method Model)- प्रयोगशाला विधि प्रतिमान द्वारा सामूहिक कौशल का विकास किया जाता है जिससे छात्र समायोजन कर सके। छात्रों में पारस्परिक सम्बन्धों का विकास करना इसका उद्देश्य होता है। लचीलेपन की क्षमताओं का विकास करना एवं समायोजन की क्षमताओं का विकास करना भी इसका उद्देश्य होता है। प्रशिक्षण प्रयोग की रूपरेखा की व्यवस्था सामूहिक विकास के लिए की जाती है। इसलिए इसकी सुनिश्चित संरचना देना कठिन है। प्रत्येक प्रशिक्षण की रूपरेखा भिन्न होती है। प्रयोगशाला प्रशिक्षण में अभ्यासों, सिद्धान्तों एवं प्रशिक्षण समूह की प्रकृति एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है। प्रत्येक समूह की अपनी विशेषताएँ होती हैं। प्रशिक्षण समूह में छात्र अध्यापक को अनेक प्रकार की क्रियाएँ करनी होती हैं। अन्य साथियों की क्रियाओं का विश्लेषण एवं पर्यवेक्षण करना होता है।
(2) सूचना प्रक्रिया प्रतिमान (Information Process Models)
इस वर्ग में निम्नलिखित छः प्रतिमानों को शामिल किया जाता है-
(i) प्रत्यय निष्पत्ति प्रतिमान (Concept Attainment Model)
प्रत्यय निष्पत्ति प्रतिमान का विकास जे० ब्रूनर ने किया है। यह प्राथमिक रूप से आगमन तक के विकास के लिए उपयोगी है। इस प्रतिमान द्वारा भाषा बोध एवं कौशल का विकास किया जाता है। इसके द्वारा मुख्य रूप से आगमन तर्क (Inductive Reasoning) का विकास किया जाता है। इस प्रतिमान में चार सोपानों का अनुसरण किया जाता है जो निम्नलिखित हैं-
(a) प्रथम सोपान में प्रदत्तों को प्रस्तुत किया जाता है। इसमें उदाहरणों का उल्लेख करने से प्रत्ययों का विकास किया जाता है।
(b) द्वितीय सोपान में छात्र प्रत्यय की आव्यूह का विश्लेषण किया जाता है। इसमें छात्रों के द्वारा अपने सीखने की गति का अनुसरण किया जाता है।
(c) तृतीय सोपान में वह प्रत्ययों के विश्लेषण का आलेख लिखित रूप में प्रस्तुत करता है। इस सोपान का लक्ष्य ज्ञान वृद्धि करना होता है।
(d) चतुर्थ सोपान में छात्र प्रत्ययों के लिए अभ्यास करते हैं। इस सोपान में छात्रों को प्रत्यय विकास में सहायता दी जाती है।
इस प्रतिमान के आरम्भ में शिक्षक छात्रों की अधिक सहायता करता है, उन्हें प्रोत्साहित करता है। अन्त में शिक्षक छात्रों को ऐसी दिशा प्रदान करता है कि छात्र अपने प्रत्ययों एवं आव्यूहों का विश्लेषण आरम्भ कर देते हैं। शिक्षक छात्रों को विश्लेषण करने के लिए अभिप्रेरणा भी देता है। छात्र सबसे सरल एवं प्रभावशाली आव्यूह का चयन करता है। इस प्रतिमान में पाठ्यवस्तु में की व्यवस्था इस प्रकार की जाती है जिससे प्रत्ययों का बोध हो सके। अतः इसमें इस प्रकार आव्यूह प्रयुक्त की जाती है जिससे नवीन प्रत्ययों का बोध कराया जा सके। मूल्यांकन में वस्तुनिष्ठ एवं निबन्धात्मक परीक्षाओं को प्रयुक्त किया जा सकता है। लिखित परीक्षाएँ ही अधिक उपयोगी मानी जाती हैं। प्रत्यय निष्पत्ति प्रतिमान का प्रयोग व्यापक रूप में किया जाता है। भाषा के सीखने एवं प्रत्यय निष्पत्ति के लिए यह अधिक उपयोगी है।
(ii) आगमन प्रतिमान (Inductive Teaching Model)
आगमन प्रतिमान के प्रवर्त्तक हिल्दातबा हैं। इसका विकास अध्यापक शिक्षा के लिए किया जाता है। ऐसा इसलिए भी किया जाता है ताकि छात्र- अध्यापक अधिगम की समस्या का विश्लेषण किया जा सके एवं निदान के आधार पर उपचार किया जा सके। इसका मुख्य उद्देश्य मानसिक प्रक्रियाओं का विकास करना एवं सिद्धान्तों का बोध कराना है। इस प्रतिमान में मानसिक प्रक्रियाओं के विकास के लिए परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं जिससे प्रत्ययों का विकास एवं बोध हो सके। निमयों, प्रत्ययों एवं विचारों के प्रयोग को भी ध्यान में रखा जाता है। शिक्षण आव्यूह में क्रियाओं को ऐसे क्रम में प्रस्तुत किया जाता है जिससे प्रत्ययों का बोध हो सके। शिक्षण की क्रियाओं का क्रम ही उसकी संरचना प्रस्तुत करता है। इसमें सामूहिक वाद-विवाद को कोई स्थान नहीं दिया जाता है। सूचनाओं एवं तथ्यों को जटिल रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसकी आव्यूह में सुनिश्चित सोपानों का अनुसरण किया जाता है। इन सोपानों का क्रम निम्नलिखित है-
- शिक्षण क्रियाओं की सूची तैयार की जाती है।
- शिक्षण क्रियाओं को वर्गों में विभाजित किया जाता है।
- शिक्षण क्रियाओं का स्पष्टीकरण किया जाता है।
- शिक्षण क्रियाओं की दिशा एवं सम्बन्धों का निर्धारण किया जाता है।
- शिक्षण क्रियाओं की दिशा सम्बन्धों की व्याख्या की जाती है।
- व्याख्या के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं।
(iii) पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान (Inquiry Teaching Model)
पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान का विकास रिचर्ड सकमन (Richard Suckmon) ने किया । विद्यार्थी प्रकृति से जिज्ञासु होते हैं। अपनी जिज्ञासा की तृप्ति हेतु वे वस्तु और घटनाओं के बारे में प्रश्न पूछते हुए और खोज करते हुए बड़े ही स्वाभाविक ढंग से पूछताछ प्रक्रिया अपनाते रहते हैं। पूछताछ प्रतिमान का उद्देश्य बच्चों की इस जिज्ञासा को प्रेरित कर पूछताछ कौशल को उचित रूप से प्रशिक्षित करना है। जिस ढंग से वैज्ञानिक, अनुसन्धानकर्त्ता और विद्वान विचारक कोई बात क्यों होती है इसकी तह में जाकर विभिन्न सिद्धान्तों, प्रनियमों या विचारों की सृष्टि करते हैं, उसी रूप में इस प्रतिमान द्वारा बालक विभिन्न आँकड़ों को एकत्रित कर उनके द्वारा कुछ कल्पित परिकल्पनाओं की जाँच कर यह निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न करते हैं कि किसी अमुक घटना या बात के मूल में वास्तविक कारण क्या है।
(iv) जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान (Biological Science Inquiry Models)
जैविक विज्ञान-पृच्छा प्रतिमान का विकास जॉसफ जे० सकवाब (Joseph J. Sakwab ) ने किया। इसमें सामाजिक तथ्यों के अन्वेषण का अनुकरण किया जाता है। छात्र अपने लिए सामाजिक परिस्थितियों में तथ्यों का अन्वेषण करता है। इस प्रतिमान का उद्देश्य अन्वेषण कराना, सामाजिक तथ्यों का बोध कराना एवं सामाजिक समस्याओं का समाधान करने की क्षमताओं का विकास करना है। साधारणतः इनकी संरचना में चार सोपानों का अनुसरण किया जाता है जो निम्नलिखित हैं-
(a) प्रथम सोपान में छात्रों के अन्वेषण का क्षेत्र निर्धारित किया जाता है एवं अन्वेषण की विधियों को भी निश्चित किया जाता है।
(b) द्वितीय सोपान में समस्या का स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है जिससे छात्र अन्वेषण की कठिनाइयों, प्रदत्तों के संकलन एवं विश्लेषण की कठिनाइयों को समझ सकें।
(c) तृतीय सोपान में समस्या का चयन किया जाता है एवं उसकी कठिनाइयों को पहचाना जाता है।
(d) चतुर्थ सोपान में कठिनाइयों के समाधान को ढूँढना होता है प्रदत्तों को एकत्रित करने के लिए प्रयोग भी करना पड़ता है। शिक्षक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करते हैं जिससे छात्रों में चिंतन का विकास हो सके। वह छात्रों को अभिप्रेरणा भी देता है जिससे वे समस्या के लिए परिकल्पनाओं का प्रतिपादन कर सकें, प्रदत्तों का संकलन कर सकें एवं उनकी व्याख्या भी कर सकें। इस प्रतिमान के अन्तर्गत कक्षा में सहयोग एवं सद्भावपूर्ण वातावरण होता है। छात्रों का सम्मान किया जाता है।
(v) अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान (Advance Organizer Model)
अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान का विकास डेविड आसुबेल ने किया। इसमें प्रत्ययों एवं तथ्य बोध से ज्ञान पुंज का विकास किया जाता है। इसका उद्देश्य प्रत्यय एवं तथ्यों का बोध कराना एवं ज्ञानात्मक पक्ष का विकास करना होता है। इसकी संरचना में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि पाठ्यवस्तु का बोध सार्थक रूप में कराया जा सके। इसमें निम्नलिखित सोपानों को प्रयुक्त किया जाता है-
(a) प्रथम सोपान में क्रियाओं को सामान्य रूप से प्रस्तुत किया जाता है। प्रस्तुत किया जाता है।
(b) द्वितीय सोपान में पाठ्यवस्तु को सीखने के क्रम में विशिष्ट रूप से है। अमूर्त पाठ्यवस्तु के प्रत्ययों को एक क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता है।
आसुबेल (Asubel) की यह धारणा है कि अमूर्त विचारों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। जिस पाठ्यवस्तु का छात्र विश्लेषण कर लेता है, उससे सम्बन्ध स्थापित करते हुए नवीन ज्ञान का बोध कराया जाता है। इसमें शिक्षक को अधिक क्रियाशील रहना पड़ता है। प्रभुत्ववादी सामाजिक वातावरण उत्पन्न किया जाता है। सीखने की परिस्थितियों के अनुसार शिक्षक क्रियाएँ बदल लेता है। छात्रों एवं शिक्षकों के मध्य अन्तःक्रिया होती है। छात्रों को अवसर दिया जाता है कि वे पाठ्यवस्तु में सम्बन्ध स्थापित कर सकें। इसी तरह शिक्षक छात्रों को अभिप्रेरणा देता है।
(vi) विकासात्मक शिक्षण प्रतिमान (Developmental Teaching Model)
विकासात्मक प्रतिमान का विकास जीन प्याजे (Jean Pyaje) ने किया है। इसमें बौद्धिक क्षमताओं एवं चिन्तन की क्षमताओं के विकास को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य सामान्य बौद्धिक क्षमताओं का विकास करना होता है। साथ ही तार्किक क्षमताओं का विकास करना भी इसका उद्देश्य होता है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित दो सोपानों का अनुसरण किया जाता है-
(a) प्रथम सोपान में छात्रों को ऐसी परिस्थिति में रखा जाता है जिसमें तर्कपूर्ण चिन्तन की आवश्यकता नहीं होती है। साथ ही परिस्थिति का स्वरूप भी इस तरह का होता है जो छात्रों के विकासात्मक स्तर के समान हो। छात्रों को परिस्थिति का पूर्ण बोध होना चाहिए जिससे छात्र परिपाक (Assimilation) की ओर अग्रसर हो सकें।
(b) द्वितीय सोपानों में छात्रों को निर्देशन दिया जाता है जिससे छात्र परिस्थिति की समस्या एवं कमजोरियों को दूर कर सकते हैं।
इस प्रतिमान में शिक्षक छात्रों के लिए भौतिक एवं सामाजिक वातावरण उत्पन्न करता है जिससे छात्रों को उद्देश्यों की प्राप्ति की क्रियाओं के लिए अवसर मिलता है। शिक्षक एवं छात्रों के मध्य अन्तःक्रियां होती है। छात्र को विचारों के आदान-प्रदान के लिए पूर्ण स्वतंत्रता दी जाती है। शिक्षक का कार्य छात्रों को निर्देशन देना होता है।
(3) व्यक्तिगत स्रोत प्रतिमान (Personal Source Models)
व्यक्तिगत स्प्रेत प्रतिमानों के द्वारा व्यक्तिगत विकास को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इसमें व्यक्ति के भावात्मक पक्ष के विकास पर अधिक बल दिया जाता है। ये प्रतिमान बालक की आन्तरिक व्यवस्था के विकास को प्रधानता देते हैं। इसमें छात्रों के आत्मबोध एवं आत्मचिन्तन का विकास होता है। इस वर्ग के शिक्षण में चारों प्रतिमानों को शामिल किया गया है जो निम्नलिखित हैं-
(i) दिशा-विहीन शिक्षण प्रतिमान (Non-Directive Teaching Model)
दिशा-विहीन शिक्षण प्रतिमान के प्रवर्तक कार्ल रोजर्स (Karl Rojers) हैं। इसमें स्वतः अनुदेशन की सहायता से व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास किया जाता है। इस प्रतिमान को कार्ल रोजर्स ने व्यक्तिगत विकास के लिए प्रयुक्त किया है। इसके द्वारा स्वाध्याय, आत्मबोध एवं स्वयं अन्वेषण की क्षमताओं का विकास किया जाता है। इस प्रतिमान में छात्र केन्द्रित अनुदेशन को प्रयुक्त किया जाता है। इसमें दो प्रमुख सोपानों का प्रयोग किया जाता है जो निम्नलिखित हैं-
(a) प्रथम सोपान में शिक्षक या अनुदेशन अपेक्षित वातावरण उत्पन्न करता है।
(b) द्वितीय सोपान में छात्र व्यक्तिगत या सामूहिक रूप में अन्तः प्रक्रिया करके अपना विकास करते हैं। वातावरण में पुनर्बलन की परिस्थितियाँ भी उत्पन्न होती हैं। प्रारम्भ में प्रजातांत्रिक वातावरण उत्पन्न किया जाता है। शिक्षक ज्ञानात्मक एवं भावात्मक पक्षों के विकास की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने का प्रयास करता है।
(ii) कक्षा-सभा शिक्षण प्रतिमान (Classroom-Meeting Teaching Model)
कक्षा-सभा प्रतिमान का विकास विलियन ग्लेसर (Willian Glacer) ने किया। इसको व्यक्तिगत क्षमताओं के विकास के लिए प्रस्तुत किया। इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य कर्त्तव्य-परायणता, आत्मबोध एवं कौशल का विकास करना है। इस प्रतिमान की संरचना में निम्नलिखित सोपानों का अनुसरण किया जाता है-
- सर्वप्रथम तल्लीनता का वातावरण उत्पन्न किया जाता है।
- वाद-विवाद में समस्या का उल्लेख किया जाता है।
- व्यक्तिगत रूप में समस्या के लिए निर्णय लेना।
- समस्या के समाधान के लिए विकल्पों को पहचाना जाता है।
- समस्या के कुछ समाधानों के लिए वचनबद्ध होना पड़ता है।
- अन्त में व्यावहारिक रूप में समाधानों का अनुसरण किया जाता है।
शिक्षक एवं छात्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। समस्या का चयन छात्र एवं शिक्षक दोनों ही करते हैं। शिक्षक छात्रों के निर्णय लेने की क्षमताओं के विकास को अधिक महत्त्व देता है।
(iii) सृजनात्मक शिक्षण प्रतिमान (Creativity Teaching Model)
सृजनात्मक शिक्षण प्रतिमान का विकास डब्लू. गोर्डन (W. Gorden) ने किया। इसमें मौलिक एवं सृजनात्मक क्षमताओं के विकास के लिए की जाती है। इसका उद्देश्य समस्याओं के समाधान के लिए सृजनात्मक क्षमताओं का विकास करना है। इस प्रतिमान को कई रूपों में अपनाया जाता है। इस प्रतिमान के आव्यूह में निम्नलिखित सोपानों को अपनाया जाता है।
- सर्वप्रथम अधिकांश प्रत्ययों एवं तथ्यों का बोध कराया जाता है।
- शिक्षक या छात्र सादृश्य अनुभव (Analogy) प्रस्तुत किया जाता है।
- छात्र अपने व्यक्तिगत सादृश्य अनुभव को प्रयुक्त करने का प्रयास करते हैं।
- छात्र पाठ्यवस्तु एवं सादृश्य अनुभव में सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करता है।
(iv) जानकारी अथवा अभिज्ञान शिक्षण प्रतिमान (Awareness Teaching Model)
जानकारी शिक्षण प्रतिमान के प्रवर्तक डब्लू० एस० फिटीज (W. S. Fitiz) हैं। इसमें स्वयं जानकारी एवं अभिज्ञान की सहायता से व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास किया जाता है। इसका उद्देश्य व्यक्तिगत क्षमताओं एवं कौशल का विकास करना होता है एवं पारस्परिक सम्बन्धों की क्षमताओं का विकास करना होता है। साथ ही यह मानवीय सम्बन्धों की जानकारी में भी वृद्धि करती है। साधारणतः इस प्रतिमान की संरचना में दो सोपानों का अनुसरण किया जाता है जो निम्नलिखित हैं-
(a) प्रथम सोपान में छात्रों को कार्य दिया जाता है जिसे छात्रों को पूरा करना होता है।
(b) द्वितीय सोपान में वाद-विवाद एवं विश्लेषण किया जाता है।
समूह के सभी सदस्य एक साथ बैठकर कार्य की कठिनाइयों के सम्बन्ध में वाद-विवाद करते हैं। कुछ छात्र दूसरों के विचारों को अधिक पसंद करते हैं एवं उन्हें कार्य को पूरा करने में अपनाते हैं। वाद-विवाद की स्वतंत्र रूप में व्यवस्था की जाती है जिससे अकेलेपन की भावना कम हो जाती है एवं सामूहिक भावना का विकास होता है।
(4) व्यवहार परिवर्तन प्रतिमान (Behaviour Modificating Model)
व्यावहारिक परिवर्तन प्रतिमान में छात्रों के व्यवहार परिवर्तन को अधिक महत्त्व दिया जाता है। सीखने की क्रियाओं एवं समुचित पुनर्बलन की सहायता से छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाया जाता है। इस प्रतिमान को स्किनर (Skinner) ने प्रस्तुत किया। यह स्किनर (Skinner) के अधिगम के सिद्धान्त पर आधारित है। इसका प्रयोग शिक्षण के विभिन्न प्रकार के उद्देश्यो की प्राप्ति के लिए किया जाता है। इस वर्ग में केवल एक प्रतिमान को शामिल किया गया है। जो निम्नलिखित हैं-
सक्रिय अनुबद्ध-अनुक्रिया शिक्षण प्रतिमान (Operant Conditioning Teaching Model)
इस शिक्षण प्रतिमान का विकास बी० एफ० स्किनर (B. F. Skinner) ने किया। ये व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक हैं। उन्होंने सक्रिय अनुबद्ध-अनुक्रिया (Operant Conditioning) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। इस प्रतिमान का उद्देश्य व्यवहार परिवर्तन करना होता है। इस प्रतिमान में तीन सोपानों का अनुसरण किया जाता है जो निम्नलिखित हैं-
(a) प्रथम सोपान में पाठ्यवस्तु को शाब्दिक एवं अशाब्दिक रूप में उद्दीपन के रूप में छात्र के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। इस सोपान में पाठ्यवस्तु एवं अनुदेशन को प्रयुक्त किया जाता है। इसमें पाठ्यवस्तु को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है जिससे छात्र अनुक्रिया करे।
(b) द्वितीय सोपान में छात्र की अनुक्रिया के लिए अवसर दिया जाता है। उद्दीपन में अतिरिक्त उद्दीपन भी शामिल किया जाता है जो छात्र की सही अनुक्रिया करने में सहायता करता है।
(c) तृतीय सोपान में छात्रों को पुनर्बलन दिया जाता है। छात्र अपनी अनुक्रिया की जाँच भी साथ-साथ करता है। सही अनुक्रिया होने उन्हें प्रसन्नता होती है एवं आगे के व्यवहार. तथा अनुक्रिया के लिए पुनर्बलन मिलता है। सही अनुक्रिया से नवीन ज्ञान भी सीखा जाता है। छात्रों को अनुक्रिया करने की स्वतंत्रता नहीं होती है। उन्हें अपेक्षित अनुक्रिया ही करनी पड़ती है। अधिकांश पुनर्बलन छात्रों को अनुक्रिया की पुष्टि के रूप में ही मिलता है।
इस प्रतिमान में शिक्षक का स्वरूप निश्चित होता है। छात्रों की अनुक्रिया एवं व्यवहार का नियंत्रण अभिक्रमिक अथवा शिक्षक करता है। छात्र को उसकी क्षमताओं एवं आवश्यकताओं के अनुसार सीखने का समान अवसर प्रदान किया जाता है। सभी क्रियाओं पर शिक्षक का नियंत्रण रहता है। छात्रों को अनुक्रिया करने में कम त्रुटि करनी चाहिए। छात्रों की त्रुटियाँ दस प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। मूल्यांकन में आन्तरिक एवं बाह्य मानदण्डों को प्रयुक्त किया जाता है।
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