कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

उपभोक्ता की बचत एवं अर्थ (Consumer’s Surplus)

उपभोक्ता की बचत एवं अर्थ (Consumer's Surplus)
उपभोक्ता की बचत एवं अर्थ (Consumer’s Surplus)

उपभोक्ता की बचत एवं अर्थ (Consumer’s Surplus)

एक वस्तु के कुल तुष्टिगुण तथा उसकी कुल बाजार कीमत के बीच के अन्तर को उपभोक्ता की पंचत कहा जाता है।”

-सेम्युअल्सन

नोट- यह अध्याय (उपभोक्ता की बचत) माध्यमिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम में नहीं है। किन्तु सन् 1997, 2001 तथा 2003 के प्रश्नपत्रों में इस पर प्रश्न पूछे गए हैं। इसलिए विद्यार्थियों की सुविधा हेतु ‘उपभोक्ता की बचत की अवधारणा की यहाँ व्याख्या की गई है।

प्रारम्भिक- उपभोक्ता की बचत की अवधारणा को सर्वप्रथम आर० के० ड्यूपिट (R.K. Dupit) ने सन् 1844 में प्रस्तुत किया था। तत्पश्चात् प्रो० मार्शल ने सन् 1879 में अपनी ‘Principles of Economics’ नामक पुस्तक में इस अवधारणा को और अधिक स्पष्ट करके इसे वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। यही कारण है कि इस अवधारणा को विकसित करने का श्रेय एल्फ्रेड मार्शल को दिया जाता है। आधुनिक अर्थशास्त्री प्रो० के० ई० बोल्डिंग (K.E. Boulding) ने इस अवधारणा को ‘क्रेता का आधिक्य’ (Buyer’s Surplus) है।

उपभोक्ता की बचत का अर्थ (Meaning of Consumer’s Surplus)

मार्शल के अनुसार बहुत-सी वस्तुएँ ऐसी होती हैं जो हमारे लिए अत्यन्त उपयोगी होती हैं। संयोगवश ऐसी वस्तुएँ हमें कम कीमत पर उपलब्ध हो जाती है जबकि वास्तव में हम इन्हें प्राप्त करने के लिए कहीं अधिक कीमत देने के लिए तैयार रहते हैं। अतः ऐसी वस्तुओं से प्राप्त होने वाली सन्तुष्टि इन वस्तुओं के लिए दी जाने वाली कीमत से अधिक होती है। यह अतिरिक्त सन्तुष्टि ही ‘उपभोक्ता की बचत’ कहलाती है। संक्षेप में, एक उपभोक्ता किसी वस्तु को प्राप्त करने हेतु उसकी बाजार कीमत से जितनी अधिक कीमत देने को तैयार होता है उसे ही ‘उपभोक्ता की बचत’ कहते हैं।

‘उपभोक्ता की बचत’ की अवधारणा लोगों के दैनिक जीवन के साधारण अनुभव पर आधारित है। प्रायः हम माचिस, समाचारपत्र, पोस्ट-कार्ड, कुकिंग गैस आदि वस्तुओं के लिए बाजार कीमत से कुछ अधिक कीमत देने को तैयार हो जाते हैं, किन्तु वास्तव में हमें ये वस्तुएँ कम कीमत में मिल जाती है। अतः किसी वस्तु के लिए कोई उपभोक्ता जो कीमत देने को तैयार होता है और जो कीमत वह वास्तव में देता है उनके (कीमतों) अन्तर को ही उपभोक्ता की बचत’ कहते हैं। उदाहरणार्थ, एक उपभोक्ता कुकिंग गैस के सिलेण्डर के लिए 450 रुपए देने को तैयार है। किन्तु वह उसे 350 रु० में मिल जाता है। इस प्रकार 450-350 = 100 रु० उपभोक्ता की बचत है।

परिभाषाएँ (Definitions) – उपभोक्ता की बचत की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं-

(1) डॉ० मार्शल के अनुसार, “किसी वस्तु के उपभोग से वंचित रहने की अपेक्षा कोई उपभोक्ता उसके लिए जो कीमत देने को तैयार रहता है तथा जो कीमत वह वास्तव में देता है, उनका अन्तर ही अतिरिक्त सन्तुष्टि का आर्थिक माप है। इसे उपभोक्ता की बचत कह सकते हैं।

(2) जे० के० मेहता के शब्दों में, “किसी वस्तु के उपयोग से किसी व्यक्ति को प्राप्त उपभोक्ता की बचत, उस वस्तु प्राप्त सन्तुष्टि तथा उसे प्राप्त करने हेतु परित्याग की जाने वाली उपयोगिता के अन्तर के बराबर होती है।”

(3) पेन्सन- हम जो कुछ कीमत देने को तैयार हैं और जो कुछ कीमत हमें देनी पड़ती है उसका अन्तर ही उपभोक्ता बचत है।

(4) टॉजिंग- “उपभोक्ता की बचत कुल उपयोगिता तथा कुल विनिमय-मूल्य को मापने वाली उपयोगिता का अन्तर है।

उपभोक्ता की बचत की माप (Measurement of Consumer’s Surplus)

उपभोक्ता की बचत को मापने के लिए अर्थशास्त्री निम्न सूत्रों का प्रयोग करते है-

(1) तुष्टिगुण के आधार पर- इस आधार पर उपभोक्ता की बचत को मापने के लिए निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है-

उपभोक्ता की बचत = कुल तुष्टिगुण – सीमान्त तुष्टिगुण या कीमत x वस्तु की क्रय की गई इकाइयाँ

(2) कीमत के आधार पर- इस आधार पर उपभोक्ता की बचत को निम्न सूत्र द्वारा मापा जाता है

उपभोक्ता की बचत = कुल कीमत देने को तैयार – (अन्तिम इकाई के लिए दी गई कीमत X वस्तु की कुल इकाइयों)

उपभोक्ता की बचत के उत्पन्न होने के कारण (1) प्रारम्भिक इकाइयों से अधिक तुष्टिगुण प्राप्त होना- उपभोक्ता को वस्तु की प्रारम्भिक इकाइयों के उपभोग से वाद वाली इकाइयों की अपेक्षा अधिक तुष्टिगुण प्राप्त होता है जबकि वस्तु की सभी इकाइयों के लिए वह समान कीमत चुकाता है। अतः वस्तु की सीमान्त इकाई से पहले की इकाइयों से उसे जो अतिरिक्त तुष्टिगुण प्राप्त होता है उसे ही ‘उपभोक्ता की बचत’ कहते हैं।

(2) प्रत्येक इकाई की कीमत समान होना- बाज़ार में वस्तु की प्रत्येक इकाई की कीमत समान होती है, अर्थात् उपभोक्ता किसी वस्तु विभिन्न इकाइयों के लिए समान कीमत देता है।

(3) सीमान्त तुष्टिगुण के बराबर कीमत देना- कोई उपभोक्ता किसी वस्तु का उपभोग उस इकाई तक करता है जिससे प्राप्त तुष्टिगुण उसकी कीमत के रूप में त्याग किए गए तुष्टिगुण के बराबर होता है। ऐसी इकाई को सीमान्त इकाई’ (marginal unit) तथा उससे प्राप्त तुष्टिगुण को सीमान्त तुष्टिगुण कहते हैं।

(4) सीमान्त इकाई से पहले की सभी इकाइयों का तुष्टिगुण अधिक होना- सीमान्त तुष्टिगुण हास नियम के क्रियाशील होने के कारण उपभोक्ता को वस्तु की उत्तरोत्तर इकाइयों से घटता हुआ सीमान्त तुष्टिगुण प्राप्त होता है। साथ ही वस्तु की अन्तिम या सीमान्त इकाई से पहले की सभी इकाइयों से अपेक्षाकृत अधिक तुष्टिगुण प्राप्त होता है।

(5) तकनीकी प्रगति– उत्पादन के क्षेत्र में हुई तकनीकी प्रगति के कारण अनेक वस्तुएँ बाजार में उपभोक्ताओं के अनुमान से कम कीमत (सस्ती) पर मिल जाती है। इस कारण उनके उपभोग से उपभोक्ता की बचत’ प्राप्त होती है।

उपभोक्ता की बचत तथा कीमत में सम्बन्ध- किसी वस्तु की कीमत तथा उससे मिलने वाली उपभोक्ता की बचत के मध्य विपरीत सम्वन्ध (inverse relation) होता है। किसी वस्तु की कीमत के घटने पर उससे मिलने वाली उपभोक्ता की बचत बढ़ जाती है; इसके विपरीत, वस्तु की कीमत के बढ़ने पर उपभोक्ता की बचत’ कम हो जाती है।

उपभोक्ता की बचत की मान्यताएँ (Assumptions of Cosumer’s Surplus)

यह सिद्धान्त निम्न मान्यताओं पर आधारित है-

(1) तुष्टिगुण को गणनात्मक संख्याओं में मापा जा सकता है।

(2) उपभोग की जाने वाली वस्तु की समस्त इकाइयों समरूप (homogenous) होती हैं, अर्थात् सभी इकाइयों गुण व आकार में समान होती हैं।

(3) प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्र वस्तु है, अर्थात् वस्तु की कोई स्थानापन्न वस्तु (substitute) नहीं होती। इस प्रकार एक वस्तु का तुष्टिगुण अन्य वस्तुओं के तुष्टिगुण को प्रभावित नहीं करता।

(4) तुष्टिगुण को मुद्रा रूपी मापदण्ड द्वारा मापा जा सकता है।

(5) मुद्रा का सीमान्त तुष्टिगुण स्थिर रहता है।

(6) बाजार में वस्तु की समस्त इकाइयों की कीमत समान होती है।

(7) उपभोक्ता की आय, रुचि तथा फैशन में कोई परिवर्तन नहीं होता।

(8) उपभोक्ता की बचत की अवधारणा घटते सीमान्त तुष्टिगुण के नियम पर आधारित है।

अतः इस नियम की सभी मान्यताएँ उपभोक्ता की बचत की अवधारणा पर भी लागू होती हैं।

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Anjali Yadav

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