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उपभोक्ता की बचत का महत्त्व (Importance of Consumer’s Surplus)
‘उपभोक्ता की बचत’ की अवधारणा के महत्व को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-(I) सैद्धान्तिक महत्व, तथा (II) व्यावहारिक महत्त्व
(I) सैद्धान्तिक महत्त्व (Theoretical Importance)
(1) प्रयोग-मूल्य तथा विनिमय-मूल्य में अन्तर का स्पष्टीकरण- उपभोक्ता की बचत’ का सिद्धान्त वस्तुओं के प्रयोग मूल्य तथा विनिमय-मूल्य में पाए जाने वाले अन्तर को स्पष्ट करता है। किसी वस्तु का ‘प्रयोग-मूल्य’ (value-in-use) वह उपयोगिता होती है जो उस वस्तु के उपभोग से प्राप्त होती है जबकि ‘विनिमय-मूल्य’ (value-in-exchange) से अभिप्राय उपभोक्ता द्वारा भुगतान की गई कीमत से होता है। हमारा दैनिक जीवन का अनुभव है कि नमक, माचिस, समाचारपत्र, पोस्ट कार्ड आदि वस्तुओं की उपयोगिता तो अधिक होती है, किन्तु इनकी कीमत कम होती है, क्यों ? क्योंकि इनकी सीमान्त उपयोगिता तीव्रता से कम होती है और इनकी कीमत (विनिमय-मूल्य) इनकी सीमान्त उपयोगिता द्वारा निर्धारित होती है। इसके विपरीत, कार, फ्रिज आदि वस्तुओं का विनिमय-मूल्य इनके प्रयोग-मूल्य से कहीं अधिक होता है किन्तु इनसे उपभोक्ता की बचत कम प्राप्त होती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जिन वस्तुओं से उपभोक्ता की बचता अधिक प्राप्त होती है उनका प्रयोग मूल्य (उपयोगिता) अधिक तथा विनिमय-मूल्य (कीमत) कम होता है। इसके विपरीत, जिन वस्तुओं से ‘उपभोक्ता की बचत कम प्राप्त होती है। उनका विनिमय-मूल्य अधिक होता है।
(2) वातावरण की अनुकूलता पर सुअवसरों से प्राप्त होने वाले लाभों का ज्ञान- उपभोक्ता की बचत द्वारा यह अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी वातावरण विशेष का उपभोक्ता की सन्तुष्टि पर क्या प्रभाव पड़ता है। आधुनिक नगरों के निवासी अनेक ऐसे सुख-साधन तथा सुविधाएँ प्राप्त करते हैं जिनसे वंचित रहने की अपेक्षा वे उनके लिए बहुत अधिक कीमत देने को तैयार होते हैं। किन्तु उन्हें ये सब अपेक्षाकृत कम कीमत पर मिल जाती हैं। अतः इन सुविधाओं से प्राप्त होने वाली सन्तुष्टि (कल्याण) उनके लिए भुगतान की गई कीमत से कहीं अधिक होती है। इसके विपरीत, गाँवों या कस्बों के निवासियों को ऐसी सुविधाएँ (शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन की सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ती है।
(3) कल्याणवादी अर्थशास्त्र का आधार- किसी समाज के नागरिकों को विभिन्न वस्तुओं तथा सेवाओं के उपभोग से जितनी अधिक उपभोक्ता की बचत प्राप्त होती है उस समाज का कल्याण उतना ही बढ़ता है। आधुनिक अर्थशास्त्री का प्रमुख लक्ष्य भी अधिकतम सामाजिक कल्याण करना है, जो तभी सम्भव है जबकि समाज के सदस्यों को अधिकतम उपभोक्ता को बचता प्राप्त हो डॉ० लिटिल के अनुसार सरकार को ऐसी आर्थिक नीतियाँ अपनानी चाहिए जिनके परिणामस्वरूप उपभोक्ता की बचत’ में अधिकाधिक वृद्धि हो सके।
(II) व्यावहारिक महत्त्व (Practical Importance)
(1) एकाधिकार में कीमत- निर्धारण में सहायक एकाधिकारी अपनी वस्तु की बिक्री से अधिकतम लाभ कमाना चाहता है, जिसके लिए वह वस्तु को महंगा बेचना चाहता है। किन्तु कीमत निर्धारित करते समय एकाधिकारी वस्तु से प्राप्त होने वाली उपभोक्ता की बचत को भी ध्यान में रखता है। वह ऐसी वस्तु की कीमत ऊंची रख सकता है जिससे उपभोक्ता की चक्त अधिक प्राप्त होती है। यदि किसी वस्तु से उपभोक्ता की बचत कम प्राप्त होती है तो यह वस्तु की कम कीमत रखेगा अन्यथा उसे अधिकतम लाभ प्राप्त नहीं होगा सम्भय है कि कीमत में वृद्धि करने पर माँग में अपेक्षाकृत अधिक कमी हो जाए।
(2) आर्थिक स्थितियों की तुलना में सहायक- उपभोक्ता की बचत के आधार पर दो देशों के निवासियों अथवा एक ही देश के विभिन्न स्थानों के निवासियों की अथवा एक ही देश में विभिन्न कालों की आर्थिक दशाओं की परस्पर तुलना की जा सकती है। उदाहरणार्थ, यदि समान धनराशि व्यय करके बिहार की तुलना में हरियाणा में उपभोक्ता की बचत अधिक प्राप्त होती है तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि बिहार की अपेक्षा हरियाणा अधिक विकसित राज्य है।
(3) कर नीति के निर्धारण में सहायक- उपभोक्ता की बचत का सिद्धान्त करों की दर तय करने में भी सहायक हो सकता है। किसी वस्तु पर कर लगाने से उसकी कीमत बढ़ती है जिससे उपभोक्ता की बचत कम हो जाती है किन्तु सरकार की आय में वृद्धि हो जाती है। अतः सरकार उन करों को अधिक लगायेगी जिनसे सरकार की आय में होने वाली वृद्धि उपभोक्ता की बचत में होने वाली कमी से अधिक हो। दूसरे शब्दों में, अधिक उपभोक्ता की बचत प्रदान करने वाली वस्तुओं पर वित्त मन्त्री अपेक्षाकृत अधिक कर लगा सकता है।
(4) उद्योगों को वित्तीय सहायता का निर्धारण- सरकार कुछ उद्योगों को अपना उत्पादन बढ़ाने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती है। इससे सरकार की आय में कमी हो जाती है किन्तु दूसरी ओर वस्तुओं की कीमत में कमी होने के कारण उपभोक्ता की बचत’ बढ़ जाती है। अतः सरकार को किसी उद्योग को वित्तीय सहायता तभी प्रदान करनी चाहिए जबकि सरकार की आय में होने वाली कमी की अपेक्षा उपभोक्ता की बचत में होने वाली वृद्धि अधिक हो।
(5) साधनों का बंटवारा- प्रत्येक देश की सीमित साधनों का विभिन्न प्रयोगों में आवंटन (allocation ) इस प्रकार करना चाहिए जिससे अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त हो। अतः जब किसी पुरानी वस्तु के स्थान पर नई वस्तु के उत्पादन में साधनों का प्रयोग किया जाता है तो यह अनुमान लगा लेना चाहिए कि पुरानी वस्तु के स्थान पर नई वस्तु के उत्पादन से कितनी उपभोक्ता की बचत’ प्राप्त होगी। यदि उपभोक्ता की बचत अपेक्षाकृत अधिक होती है तो नई वस्तु का उत्पादन किया जाना चाहिए।
(6) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में महत्त्व- कोई देश अन्य देशों से उन्हीं वस्तुओं का आयात करेगा जिनकी उस देश में कमी है तथा जिनसे उपभोक्ताओं को अधिक बचत प्राप्त होती है। यह चचत जितनी अधिक होगी सम्बन्धित देश को विदेशी व्यापार से उतना ही अधिक लाभ (कल्याण में वृद्धि) प्राप्त होगा। इस प्रकार यह सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में देश का पथ-प्रदर्शक बन सकता है।
निष्कर्ष (Conclusion) कुछ अर्थशास्त्रियों ने उपभोक्ता की बचत की अवधारणा को एक कोरी कल्पना माना है जिसका व्यावहारिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु वास्तविकता यह है कि हमारे जीवन में ऐसे अनेक अवसर जाते हैं जबकि हमें विभिन्न वस्तुओं की खरीदारी से उपभोक्ता की बचत प्राप्त होती है। वस्तुतः हम ऐसी बचतों को प्राप्त करने के इतने आदी हो चुके हैं कि हम इनके महत्त्व का अनुभव ही नहीं कर पाते। निःसन्देह इस सम्बन्ध में थॉमस का यह कथन उल्लेखनीय है, “उपभोक्ता की बचत की अवधारणा वास्तविकता से सम्बन्ध रखती है जिसका अनुभव हम प्रतिदिन संसार करते हैं।” कुछ विद्वानों के विचार में यह सिद्धान्त एक ऐसे फूल के समान है जिसके साथ काँटे भी लगे हैं।
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